चौरी चौरा कांड (5 फरवरी 1922)

चौरी चौरा कांड (5 फरवरी 1922):-

असहयोग आंदोलन के दौरान सी.आर. दास और उनकी पत्नी बसंती देवी के साथ-साथ लगभग 30,000 लोगों की गिरफ्तारी के विरोध में गोरखपुर जिले के चौरी चौरा नामक स्थान पर लोगों ने शांत पूर्वक जुलूस निकालकर अपना विरोध प्रदर्शन किया। प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने भीड़ पर गोलियां चलाई। जिससे प्रदर्शनकारी उग्र हो गए ।उग्र हुए किसान आंदोलनकारियों ने थाने के थानेदार सहित 22 पुलिस कर्मियों को थाने में बंद कर आग लगा दी। जिससे सभी 22 पुलिसकर्मी मारे गए। इस हिंसक भीड़ का नेतृत्व किसान “भगवान दास अहीर” कर रहा था। जो की एक रिटायर्ड सैनिक था।

चौरी चौरा कांड

इस घटना से महात्मा गांधी अत्यंत दुखी हुए। गांधी जी हिंसा के घोर विरोधी थे, उनके विचार से यदि यह आंदोलन हिंसक हो गया तो उनका उद्देश्य असफल हो जाएगा। इसी कारण उन्होंने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन को वापस लेने की घोषणा की |

गांधी जी के इस निर्णय से आंदोलन से जुड़े नेता आश्चर्यचकित थे, कुछ नेताओं ने इस निर्णय पर विरोध जताया और कहा कि “देश के एक गांव के कुछ लोगों की गलती का खामियाजा समूचा देश क्यों भुगते।” कुछ इतिहासकारों का मानना है, कि गांधी जी एक दूरदर्शी व्यक्ति थे, वह इस आंदोलन को वापस लेने के पीछे उनकी दूरगामी परिणामों की सोची समझी रणनीति हो सकती थी। जिसे निम्न बिंदुओं द्वारा समझा जा सकता है:-

•गांधी जी के विचार से “कैदी नागरिक दृष्टि से मृत होते हैं” और इस आंदोलन के तहत प्रथम पंक्ति के लगभग सभी नेताओं को जेल में बंद किया जा चुका था।

•आंदोलन बिना नेताओं के नेतृत्व विहीन, उदासीन हो गया था।

•जनता में उदासीनता झलकने लगी थी, क्योंकि यह आंदोलन काफी लंबा हो गया था।

•यह आंदोलन अपने वास्तविक उद्देश्य से अलग निजी स्वार्थ की ओर अग्रसर हो रहा था।

•आंदोलन का दमन करने के लिए चौरी चौरा कांड सरकार के लिए एक बहाना मिल गया था। जिसके सहारे आंदोलन और आंदोलनकारी दोनों को नष्ट कर दिया जाता।
परिणाम स्वरुप नेताओं के विरोध/ प्रतिक्रियाओं के बाद अंततः सभी ने गांधी जी के फैसले को स्वीकार किया और असहयोग आंदोलन स्थगित हो गया। इसी समय जेल में सी.आर.दास ने कहा “समूचा देश (भारत) एक विशाल बंदी ग्रह है।”

चौरी-चौरा घटना के होने का मुख्य कारण अनाज की बढ़ती कीमतें, शराब की बिक्री का विरोध आदि। इन्हीं समस्याओं के विरोध में एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा धरना प्रदर्शन किया जा रहा था।
चौरी-चौरा घटना के बाद 225 अभियुक्त पकड़े गए। इनमें से 19 व्यक्तियों को फांसी की सजा दी गई तथा शेष अभियुक्तों को देश से निष्कासन की सजा दी गई।

गांधी जी के आंदोलन वापस लेने पर पंडित मोतीलाल नेहरू और लाला लाजपत राय द्वारा गांधी जी को पत्र लिखकर विरोध दर्ज कराया गया और कहा कि “किसी एक स्थान पर दंगे होने की सजा समस्त देशवासियों को नहीं दी जा सकती।”

सुभाष चंद्र बोस ने अपनी “पुस्तक द इंडियन स्ट्रगल (The Indian Struggle)”में लिखा कि “ऐसे अवसर पर जब जनता का उत्साह चरम पर था, पीछे लौटने का आदेश देना किसी राष्ट्रीय संकट से कम नहीं था।”

आंदोलन वापस लेने की घटना से नाराज होकर डा. मुंजे और जे.एम.सेन गुप्ता ने 1922 में दिल्ली की विजय समिति की बैठक में गांधी जी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया। आंदोलन के स्थगन के बाद गांधीजी को गिरफ्तार किया गया तथा 6 वर्ष की सजा दी गई।

प्रश्न:- चौरी चौरा कांड कब और कहां हुआ था?
उत्तर:- चौरी चौरा कांड 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के चौरी चौरा नामक स्थान पर हुआ था।
प्रश्न:- चौरी चौरा कांड का नया नाम?
उत्तर:- चौरी चौरा कांड का नया नाम चौरी चौरा क्रांति कर दिया गया है।
प्रश्न:- चौरीचौरा कांड के समय भारत का वायसराय कौन था?
उत्तर:- चौरी चौरा कांड के समय भारत का वायसराय अर्ल ऑफ रीडिंग (Earl Of Reading) था ।
प्रश्न:- चौरी चौरा कांड किस वर्ष हुआ?
उत्तर:- चौरी चौरा कांड 5 फरवरी 1922 को हुआ।

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भारत में पंचायती राज(1959)|बलवंत राय मेहता,अशोक मेहता समिति

भारत में पंचायती राज (Panchayati Raj In India):-

भारत में पंचायती राज व्यवस्था का सीधा सरोकार ग्रामीण स्थानीय स्वशासन पद्धति से है | यह भारत के सभी राज्य में निचले पायदान पर लोकतंत्र के निर्माण की रूपरेखा है, सन् 1992 के 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत पंचायती राज को संविधान में शामिल किया गया।

भारत में पंचायती राज

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भारत में पंचायती राज का विकास(Panchayati Raj Development In India):-

भारत में पंचायती राज को लागू करने के लिए समय-समय पर विभिन्न समितियां बनाई गई जिनके सिफारिशों के फलस्वरूप पंचायती राज की स्थापना हुई। जो निम्नवत् है:-

बलवंत राय मेहता समिति(Balwant Rai Mehta Committee):-

बलवंत राय मेहता समिति भारत में पंचायती राज विकास कार्य का क्रियान्वयन ढंग से हो सके इसके लिए जनवरी 1957 में भारत सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952 तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवा 1953 जो पहले से क्रियान्वित थे, इनके कार्यों की समीक्षा करके इनको और बेहतर किस तरीके से किया जा सकता है| इसलिए इस एक समिति का गठन हुआ, इस समिति के अध्यक्ष बलवंत राय मेहता थे, इसलिए इस समिति का नाम बलवंत राय मेहता समिति रखा गया|

समिति ने अपनी रिपोर्ट नंबर 1957 सरकार को सौंपी इसलिए लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण स्वच्छता की योजना की सिफारिश की जो अंतिम रूप से पंचायती राज के रूप में जानी गई समिति द्वारा कुछ विशिष्ट सिफारिशें की गई, जो निम्नवत है:-

•इस समिति ने तीन स्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना गांव स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद की सिफारिश की।

•इस समिति द्वारा सुझाव दिया गया कि ग्राम पंचायत की स्थापना हेतु सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होना चाहिए तथा पंचायत समिति और जिला परिषद के सदस्यों को अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाना चाहिए।

•पंचायतों को कार्यकारी निकाय तथा जिला परिषद को सलाहकारी समन्वयकारी और पर्यवेक्षण निकाय बनाना चाहिए। और इन्हीं संस्थाओं को पंचायतों की सभी योजनाओं और विकास कार्यों का क्रियान्वयन करने की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए।

जिला अधिकारी को जिला परिषद का अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए।
इन निकायों को पर्याप्त आर्थिक व सामाजिक रूप से शक्तिशाली बनाया जाए ताकि अपने कार्य और जिम्मेदारियों को भली-भांति संपादित करने में सक्षम बन सके।
भविष्य में इन निकायों को और मजबूती प्रदान करने के लिए नई-नई पद्धतियों का विकास किया जाना चाहिए।

इस समिति की सिफारिश को राष्ट्रीय विकास परिषद ने जनवरी 1958 में स्वीकृत प्रदान की।
पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य बना इस योजना का उद्घाटन 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान राज्य के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया।

अशोक मेहता समिति(Ashok Mehta Committee):-

भारत में पंचायती राज व्यवस्था में  सुधार और मजबूत करने के लिए दिसंबर 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने पंचायती राज पद्धति जोकि कमजोर होती जा रही थी। इसे पुनः मजबूती प्रदान करने के लिए 132 सिफारिशें लागू करने पर जोर दिया। इसने अपनी रिपोर्ट अगस्त 1978 में सौंपी। इसके द्वारा दी गई प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित है:-

*त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति को द्विस्तरीय पद्धति में परिवर्तित करना चाहिए।
विकेंद्रीकरण के लिए राज्य स्तर से नीचे लोक निरीक्षण के लिए जिला ही प्रथम बिंदु होना चाहिए।

*जिला परिषद कार्यकारी निकाय बनाया जाना चाहिए और यह राज्य स्तर की योजनाओं और विकास के लिए जिम्मेदार हो।

*पंचायती चुनाव के किसी भी स्तर पर राजनीतिक पार्टियों की आधिकारिक भागीदारी निर्धारित की जानी चाहिए।

*पंचायत को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए उन्हें अपने आर्थिक स्रोतों के लिए टैक्स लगाने का अधिकार प्रदान किया जाए।

*जिला स्तर पर गठित समिति के द्वारा इस संस्था का नियमित सामाजिक लेखा परीक्षण होना चाहिए। ताकि यह मालूम पड़ सके की जिन आवश्यकता वाले समूह के लिए धनराशि आवंटित की गई है, वह उन तक पहुंच रही है या नहीं।

*इस संस्था का राज्य सरकारों द्वारा अतिक्रमण न किया जा सके इसलिए संस्था के क्रियाशील न होने की दशा में 6 महीने के भीतर चुनाव अवश्य कर लिया जाए।

*मुख्य चुनाव आयुक्त के परामर्श के आधार पर राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी द्वारा पंचायती राज चुनाव कराना निर्धारित किया जाए।

*पंचायती संस्थाओं के मामलों की देखरेख के लिए राज्य मंत्री परिषद में एक मंत्री की नियुक्त की जानी चाहिए।

*पंचायती राज को मजबूती प्रदान करने के लिए लोगों को प्रेरित किया जाए तथा स्वैच्छिक संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।

*पंचायत में अनुसूचित जाति व जनजाति के समूह को जनसंख्या के आधार पर आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।

*इस समिति का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही जनता पार्टी की सरकार गिर गई। इसलिए अशोक मेहता समिति की सिफारिशों पर कोई भी कार्रवाई नहीं की जा सकी, लेकिन तीन राज्य कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में इस समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखकर पंचायत राज संस्थाओं के पुनरुद्धार के लिए कुछ कदम उठाए।

जी.वी.के. राव समिति (G.V.K.Rao Committee):-

सन् 1985 में योजना आयोग द्वारा जी.वी.के.राव (गुन्नुपति वेंकट कृष्ण राव) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति को ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की समीक्षा कर रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी।

समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि ग्रामीण विकास कार्यक्रम की प्रक्रिया केवल दफ्तरों तक सीमित होकर रह गई अर्थात नौकरशाहीकरण का दबदबा है, इसी कारण विकास प्रक्रिया पंचायत राज से अलग हो गई और लोकतांत्रीकरण के स्थान पर नौकरशाहीकरण होने के कारण पंचायती राज संस्थाएं कमजोर हो गई, इसीलिए पंचायती राज संस्थाओं को “बिना जड़ की घास” कहा गया।

इन संस्थाओं को सशक्त तथा पुनर्जीवित करने हेतु जी.वी.के. राव समिति द्वारा निम्नलिखित सिफ़ारिशें प्रस्तुत की गई:-

*जिला स्तरीय निकायों को “विकास की प्राथमिक इकाई” के रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए, अर्थात नियोजन और विकास की उचित इकाई जिला है। इसलिए जिले को मुख्य निकाय मानकर विकास कार्यक्रम संचालित किए जाएं।

*राज्य स्तर से संचालित होने वाले कुछ कार्यक्रमों को विकेंद्रीकरण के तहत जिला स्तर पर हस्तांतरित किया जाना चाहिए।

*भारत में पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए।

*समिति द्वारा एक जिला विकास आयुक्त के पद का सृजन करने की सिफारिश की गई, जो जिले का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होगा।

*समिति द्वारा पाया गया कि राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं के नियमित चुनाव नहीं हो रहे हैं। अर्थात चुनाव नियमित तथा समय से संपन्न होने चाहिए।

*त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था {ग्राम पंचायत, पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर) जिला परिषद} को पुनः प्रभावी रूप से लागू किया जाना चाहिए।

एल.एम. सिंघवी समिति (L.M.Singhvi Committee):-

राजीव गांधी सरकार के समय 1986 में एल.एम.सिंघवी (डॉक्टर लक्ष्मीमल सिंघवी) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। जिसे लोकतंत्र और विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं को पुनर्जीवित करने हेतु अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी। इसने निम्न लिखित सिफ़ारिशें प्रस्तुत की:-

*भारतीय संविधान में एक नया अध्याय शामिल किया जाए। जिसमें पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान कर उनका संरक्षण किया जाए। जिससे उनकी पहचान तथा अखंडता बनी रहे।

*पंचायती राज निकायों के नियमित स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने हेतु संवैधानिक उपबंध की सिफारिश की। एक से अधिक गांवों को मिलकर न्याय पंचायत की स्थापना की जाए। जिससे स्थानीय विवादों का शीघ्र निस्तारण किया जा सके।

*गांव का पुनर्गठन कर ग्राम पंचायत को अधिक व्यावहारिक बनाया जाए। ग्राम पंचायत को “लोकतंत्र की भूमि बताया”

*ग्राम पंचायतों को अधिक आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराए जाएं। ताकि यहां विकास कार्यों को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जा सके।

*पंचायती राज संस्थाओं के विवादों के निस्तारण हेतु न्यायिक अधिकरणों की स्थापना की जानी चाहिए।

पी.के. थुंगन समिति(P.K.Thungon Committee):-

1988 में पी.के.थुंगन की अध्यक्षता में संसद की सलाहकार समिति की एक उप समिति का गठन किया गया। जिसका उद्देश्य राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की जांच कर पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने हेतु सुझाव देना था। इस समिति ने निम्नलिखित सिफ़ारिशें प्रस्तुत की:-

•ग्राम तथा जिला स्तर पर त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू की जाए।

•पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की जानी चाहिए।

•पंचायती राज व्यवस्था में जिला परिषद को केंद्र मानकर योजना निर्माण तथा उनके क्रियान्वयन हेतु अधिकार प्रदान किए जाएं।

•पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया जाना चाहिए।

•पंचायती राज संस्थाओं हेतु
राज्य स्तर पर योजना मंत्री की अध्यक्षता में योजना निर्माण व समन्वय समिति का गठन किया जाए।

•पंचायती राज व्यवस्था पर केंद्रित विषयों की सूची तैयार कर उन्हें संवैधानिक दर्जा प्रदान किया जाए।

•पंचायती राज के तीनों स्तरों पर जनसंख्या के आधार पर आरक्षण होना चाहिए तथा महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु आरक्षण का प्रावधान किया जाए।

•सभी राज्यों में राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाए।

•जिले के कलेक्टर को जिला परिषद का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया जाए।

गाडगिल समिति(Gadgil Committee):-

भारत में पंचायती राज में सुधार हेतु 1988 में कांग्रेस पार्टी द्वारा एक नीति एवं कार्यक्रम समिति का गठन किया गया। जिसका अध्यक्ष वी.एन.गाडगिल को नियुक्त किया गया। इस समिति को इस उद्देश्य से नियुक्त किया गया, कि पंचायती राज संस्थाओं को प्रभावित कैसे बनाया जा सके, समिति ने यथास्थिति का अवलोकन कर निम्नलिखित सिफ़ारिशें प्रस्तुत की :-

•पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया जाए।

•पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष सुनिश्चित किया जाए।

•समिति द्वारा स्पष्ट किया गया कि गांव, प्रखंड (ब्लॉक) तथा जिला स्तर पर त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था सुनिश्चित की जाए।

•पंचायत के तीनों स्तरों पर सदस्यों के चुनने हेतु सीधा निर्वाचन होना चाहिए।

•सभी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए।

•पंचायती राज संस्थाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने हेतु कर (Tax) लगाने, वसूलने तथा जमा करने का अधिकार प्रदान किया जाए।

•पंचायती राज संस्थाओं को पंचायत क्षेत्र के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए नीति निर्माण करना तथा उनके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी होगी।

राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाए जो आवश्यकता अनुसार पंचायतों को वित्त आवंटन करें।

•पंचायतों के निष्पक्ष निर्वाचन कराने हेतु राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया जाए।

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विश्व की स्थानीय पवने|चिनूक| फाॅन| सिराको|हरमट्टन|नार्वेस्टर

विश्व की स्थानीय पवने निम्नलिखित हैं:-

1- गर्म स्थानीय पवने:- 

चिनूक हवा (Chinook wind):-                                                    एक प्रकार की गर्म और शुष्क हवा होती है जो मुख्य रूप से पर्वतीय इलाकों से नीचे की ओर बहती है, खासकर उत्तरी अमेरिका में। यह हवा विशेष रूप से *रॉकी पर्वत* (Rocky Mountains) के आस-पास के क्षेत्रों में पाई जाती है। यह हवा उत्तरी अमेरिका के राॅकी पर्वत श्रेणियां के पूर्वी ढाल पर अलबर्टा, पश्चिमी सस्केचवान तथा मोंटाना राज्यों में ढालों से नीचे की और शुष्क और गर्म दक्षिणी-पश्चिमी पवनें प्रवाहित होती हैं।

बसंत काल में इनकी गर्मी से तापमान अचानक बढ़ जाता है। और बर्फ पिघलने की क्रिया तेजी से होने लगती है इन्हीं पवनो को चिनूक कहते हैं। यह पवन वहां के स्थानीय पशुपालकों के लिए लाभदायक होती है क्योंकि इसके आगमन से चरागाहों की बर्फ पिघल जाती है। और वह बर्फ मुक्त हो जाते हैं। जिससे उनके पशुओं को चारा उपलब्ध होता है। चिनूक हवा का प्रभाव मौसम पर बहुत अधिक पड़ता है, और इसे “चिनूक” इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह हवा अक्सर चिनूक नामक स्थानों से आती है।

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चिनूक हवा के प्रमुख लक्षण:-

1.गर्म और शुष्क:- चिनूक हवा में आमतौर पर उच्च तापमान होता है, जो ठंडी और नम हवा की तुलना में बहुत अधिक गर्म होती है।

2.पर्वतीय क्षेत्रों से बहना:- यह हवा जब पर्वतों से नीचे की ओर आकर उतरती है, तो उसे “चिनूक” कहा जाता है। इस प्रक्रिया को “ओरोग्राफिक लिफ्टिंग” कहते हैं, जिसमें हवा पर्वतों के ऊपर चढ़ने के बाद, जब नीचे उतरती है, तो उसकी नमी घट जाती है और तापमान बढ़ जाता है।

3.तेज़ी से मौसम में बदलाव:- चिनूक हवा के कारण अचानक मौसम में परिवर्तन होता है, और इससे ठंडे मौसम में भी गर्मी का अनुभव हो सकता है। यह हवा कभी-कभी हिमपात (snow) को भी जल्दी पिघला देती है।

4.विविध प्रभाव:- चिनूक हवा के कारण बर्फ़ीले इलाकों में जल्दी गर्मी आती है, जिससे बर्फ़ जल्दी पिघलती है और स्थानीय तापमान में तेजी से वृद्धि होती है।

चिनूक हवा विशेष रूप से *कनाडा के प्रेयरी इलाकों* और *संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी राज्यों* में महसूस की जाती है। यह हवा कृषि, मौसम और दिनचर्या पर महत्वपूर्ण असर डाल सकती है।

विश्व की स्थानीय पवने

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फाॅन (Foehn):-
फाॅन पवन एक गर्म तथा अत्यधिक शुष्क पवन है। जो आल्पस पर्वत के उत्तरी ढ़ाल से नीचे उतरती है। इसको ऑस्ट्रिया तथा जर्मनी में फाॅन कहा जाता है। इसका प्रभाव सबसे अधिक स्विट्जरलैंड में होता है।

यह पवन जब पर्वत से नीचे उतरती है तो इसका तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस से 20 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है। इसी कारण अपने मार्ग की बर्फ को पिघला देती है, जिससे मौसम सुहावना हो जाता है, इसके प्रभाव से यहां अंगूर की फसल शीघ्र पक जाती है। चारागाह पशुओं के चरने योग्य बन जाते हैं। यह पवन मुख्यतः शीत ऋतु के अंत में तथा बसंत ऋतु के प्रारंभ में चला करती है।

 सिराको (SIROCCO):-
यह पवन अत्यधिक आर्द्र और अत्यधिक शुष्क सहारा मरुस्थल में भूमध्य सागर की ओर चलने वाली गर्म हवा है। भूमध्य सागर से गुजरते समय यह नमी धारण करती है तथा इटली में वर्षा करती है।

मरुस्थल की रेत के साथ वर्षा होने पर पानी की बूंदे लाल हो जाती है, इसी कारण इटली में इसे रक्त की वर्षा (Blood rain) कहते हैं। इटली में इसे सिराको (sirocco), स्पेन में लेवेंच (Levech) तथा मैड्रिया तथा कनारी द्वीप समूह में इसे लेस्ट नाम से जाना जाता है। इसे विभिन्न स्थानों में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। जैसे:- मिस्र में खमसिन, लीबिया में गिबली, ट्यूनीशिया में चिली, स्पेन में लेवेंच, मेडिरा व कनारी में लेस्ट, अरब के रेगिस्तान में सिमूम।

सिराको पवन प्रायः सभी मौसमों में चलती है, लेकिन बसंत काल में भूमध्य सागर में चलने वाले चक्रवातों के समय अत्यधिक सक्रिय होती है। यह हवाएं कृषि और बागवानी फसलों के लिए विनाशकारी होती हैं। जैसे स्पेन इटली आदि में इसके चलने से अंगूर और जैतून की फसलों के फूल झड़ने से अत्यधिक नुकसान होता है।

अरब के रेगिस्तानों में सिमूम के नाम से पुकारी जाने वाली यह हवा अत्यधिक गर्म शुष्क रेत की आंधियां होती हैं। जिससे यहां की दृश्यता लगभग शून्य हो जाती है।

हरमट्टन (HARMATTAN):-
सहारा मरुस्थलीय प्रदेश में चलने वाली गर्म अति शुष्क और रेत युक्त गिनी की तट की ओर चलने वाली पवन को “हरमट्टन” कहते हैं। यह पवन इतनी गर्म होती है, जिसके फलस्वरुप पौधों के तनों में दरारें पड़ जाती हैं।

यह हवाएं गिनी तट पर पहुंचती हैं, तो वहां की आर्द्र हवा (उमस) का वाष्पीकरण होने के कारण हवाएं ठंडी हो जाती हैं, फलस्वरुप लोगों को उमस से राहत मिलती है, इसी कारण इस पवन को “डॉक्टर पवन” (Doctor wind) की संज्ञा दी जाती है।

 लू (Loo):-
उष्ण प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु में बहने वाली शुष्क हवाओं को “लू” कहते हैं। भारत में इस पवन का तापक्रम 38 डिग्री सेल्सियस से 49 डिग्री सेल्सियस तक होता है। यह भारत में मई के अंतिम सप्ताह से जून के अंतिम सप्ताह तक बहती है।

 ब्रिक फील्डर (Brick Fielder):-
ब्रिक फील्डर दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के मरुस्थलीय प्रदेशों (विक्टोरिया) से चलने वाली गर्म शुष्क धूल भरी स्थानीय हवा है। इसे “साउदर्ली बूस्टर” के नाम से भी जाना जाता है। इसके प्रभाव से ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण पूर्वी तटीय क्षेत्र का तापमान बहुत बढ़ जाता है, और यहां का मौसम गर्म और शुष्क हो जाता है।

इस पवन में धूल की मात्रा होने के कारण दृश्यता को प्रभावित करती है। यह अर्जेंटीना में चलने वाली “जोंडा पवन” के समकक्ष होती है। इसका नाम मध्य सिडनी में स्थित ब्रिक फील्ड पहाड़ी के नाम से पड़ा है।

 सिमूम(Simoom):-
यह एक गर्म शुष्क तथा दम घुटाने वाली हवा है। जो सहारा और अरब के मरुस्थलों में बसंत और ग्रीष्म में चलती है। यह अपने साथ बालू उड़ा कर लाती है, इन हवाओं का तापमान 32 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक हो जाता है। जिससे शरीर में इतनी गर्मी उत्पन्न होती है, कि पसीने के वाष्पीकरण से उसका समाधान नहीं हो पाता है। जिससे “हीट स्ट्रोक” होने का खतरा रहता है। इसलिए इसे “जहरीली हवा” भी कहते हैं।

काराबुरान (Kara buran):-
काराबुरान पवन मध्य एशिया में सिक्यांग के तारिम बेसिन में बहने वाली गर्म और शुष्क उत्तरी पूर्वी हवा है। यह हवा मरुस्थलों में धूल उड़ाकर लोएस (पाऊस) के मैदान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह हवा बसंत के आरंभ से ही लेकर ग्रीष्म के अंत तक बहती है।

 खमसिन(Khamsin):-
मिस्र में सिराको पवन को ही खमसिन नाम से जाना जाता है। जो मिस्र के उत्तर की ओर प्रवाहित होती है, इसकी उत्पत्ति उष्ण मरुस्थलीय प्रदेशों से होने के कारण इसमें धूल कणों की अधिकता होती है। मुख्यतः यह पवन बसंत ऋतु में चलती है।

 गिबली(Gibli):-
यह पवन उत्तरी अफ्रीका के लीबिया, ट्यूनीशिया से भूमध्य सागर की ओर चलने वाली स्थानीय पवन है। जो कि गर्म शुष्क और धूल भरी होती है। यह पवन जब भूमध्य सागर से गुजरती है तो नमी ग्रहण करती है, जिसके फल स्वरुप बादलों का निर्माण होकर बारिश होती है। जिसमें धूल के कणों की उपस्थिति रहती है। यह पवन सिराको पवन का ही विस्तार है। जिसे लीबिया में गिबली नाम से जाना जाता है।

 चिली(Chilli):-
यह ट्यूनीशिया में चलने वाली गर्म शुष्क हवा है, जो भूमध्यसागरीय क्षेत्र में उत्तरी अफ्रीका से चलने वाली गर्म और शुष्क पवन सिराको को ही ट्यूनीशिया में चिली नाम से जाना जाता है।

 ब्लैक रोलर (Black Roller):-
ब्लैक रोलर एक गर्म स्थानीय पवन है, जो उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदान में दक्षिण पश्चिम या उत्तरी पश्चिमी तेज धूल भरी आंधियों के रूप में चलती है। इन पवनो में धूल की मात्रा इतनी होती है कि जो कि मार्ग में पढ़ने वाली इमारतों को ढ़क देती है।

 शामल (Shamal):-
यह एक गर्म हवा है, जो इराक, मेसोपोटामिया, फारस की खाड़ी की ओर उत्तर पूर्व से चलने वाली पवन है।

 नार्वेस्टर(Norwester):-
यह न्यूजीलैंड के दक्षिण द्वीप की पर्वतमालाओं से उत्पन्न होने वाली फाॅन पवन की भांति गर्म शुष्क झोकेदार पवन है।
भारत और बांग्लादेश में भी बंगाल की खाड़ी से आने वाली स्थानीय आंधी तूफान को नार्वेस्टर या काल वैसाखी कहा जाता है यह उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है यह गरज, बिजली, ओलावृष्टि और भारी बारिश लाती हैं। लेकिन यह कुछ फसलों के लिए लाभकारी सिद्ध होती है।

 सांता आना (Santa Ana):-
सांता आना धूलयुक्त, गर्म, शुष्क स्थानीय पवन है। जो कि दक्षिणी कैलिफोर्निया के तटीय मैदानों में चलती है। इस पवन के प्रकोप से कैलिफोर्निया के फलों के बगीचों को अपार क्षति होती है।पेड़-पौधे सूख जाते हैं, फलस्वरुप जंगलों में आग भी लग जाती है।

 कोयमबैंग (Coembang ):-
कोयमबैंग जावा, इंडोनेशिया में चलने वाली गर्म स्थानीय हवा है। फाॅन के समान लक्षण वाली पवन है। इस पवन द्वारा यहां की तंबाकू की फसल को अधिक नुकसान होता है।

 योमा(Yoma):-
योमा जापान की खड़ी घाटियों में चलने वाली गर्म, शुष्क स्थानीय पवन है। जो निर्धारित स्थानों पर नियमित चलती है।

जोन्डा (Zonda):-
यह अर्जेंटीना में चलने वाली गर्म, शुष्क, उमसदार स्थानीय पवन है। जो पश्चिम में एंडीज पर्वतमालाओं से नीचे मैदानों की ओर चलती है। इसे “शीत फाॅन” (Winter Foehn) भी कहते हैं।

 सोलैनो(Solano):-
यह दक्षिणी पूर्वी स्पेन तथा जिब्राल्टर में बहने वाली पूर्वी तथा दक्षिणी पूर्वी स्थानीय पवन है। यह पवन गर्मियों में शुष्क, गर्म होती है, तथा कभी-कभी नमी ग्रहण करके वर्षा भी करती है।

 ट्रेमोंटेनो (Tramontano):-
यह मध्य यूरोमें बहने वाली गर्म, शुष्क स्थानीय हवा है। जो यहां की संकरी घाटियों में बहती है।

 सिमून(Simun/Simoon):-
यह ईरान मैं चलने वाली कर गर्म, शुष्क स्थानीय पवन है। जो यहां के कुर्दिस्तान पर्वत के नीचे मैदानी भागों में चलती है।

 अयाला (Ayala):-
यह एक तीव्र प्रचंड गर्म स्थानीय पवन है। जो कि फ्रांस के सेंट्रल मैसिफ क्षेत्र में बहती है। मध्य एशिया, इराक, गिनी तट, अमेरिका के मेड्रिया,इटली मे इसी पवन को सिराॅको कहते हैं।

 बर्ग(berg):-
दक्षिण अफ्रीका में चलने वाली गर्म एवं शुष्क स्थानीय पवन है। यह यहां के आंतरिक पठारों से तटीय क्षेत्र की ओर बहती है।

 बाग्यो (Baguio):-
यह फिलिपींस द्वीप समूह क्षेत्र में बहने वाली उष्णकटिबंधीय चक्रवाती पवनें (Tropical Storm) है। जो जुलाई से नवंबर तक चलती हैं

2-ठंडी स्थानीय पवने :-

 मिस्ट्रल(Mistral):-यह एक ठंडी शुष्क स्थानीय हवा है। जो फ्रांस के उच्च पठार से होकर भूमध्य सागर की ओर तीव्र गति से चलती हैं। और यह उत्तरी पश्चिमी अथवा उत्तरी हवाएं जो मुख्यतः रोन डेल्टा तथा लायन्स की खाड़ी में चलती है।

यह ठंडी हवाएं मध्यवर्ती यूरोप में उपस्थित शीतकालीन प्रतिचक्रवात से होकर गुजरती हैं।इन हवाओं की औसत गति 60 किलोमीटर प्रति घंटा होती है, लेकिन कभी-कभी इनकी गति 130 किलोमीटर प्रति घंटा तक पहुंच जाती है।

 बोरा (Bora):-
एड्रियाटिक सागर के उत्तरी तट पर चलने वाली एक ठंडी पवन है। यह पवन मध्य यूरोप में उत्तरी पूर्वी पर्वतों के उच्च दाब क्षेत्र से भूमध्य सागर में विद्यमान निम्न दाब के क्षेत्र में प्रायः शीत काल में चलती है। इस पवन के लक्षण मिस्ट्रल पवन से मिलते जुलते होते हैं।

 विली विली (Willy Willy):-
यह पवन एक रूप से उष्णकटिबंधीय तीव्र तूफान की श्रेणी में आता है जो ठंडा अल्पकालिक एवं स्थानीय होता है। यह हवाएं ऑस्ट्रेलिया में उत्तरी -पश्चिमी तट के समीप उत्पन्न होती हैं।

 पोनेण्टी (Ponente):-
यह एक ठंडी पवन है, जिसके चलने से सामान्यता मौसम शुष्क हो जाता है। यह भूमध्य सागरीय क्षेत्र में कोर्सिका के तट पर तथा भूमध्य सागरीय फ्रांस में चलने वाली पश्चिम पवन हैं।

 पुर्गा (Purga):-
यह एक ठंडी स्थानीय पवन है। जो टुंड्रा प्रदेश के अलास्का व साइबेरिया क्षेत्र में प्रचंड हिम झंझावात या बर्फीले तूफानों के रूप में उत्तर- पश्चिम दिशा में चलते हैं।

 ब्लिजर्ड(Blizzard):-
यह एक ठंडी स्थानीय हवा है। जिसे ‘हिम झंझावात” भी कहते हैं। जो दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र साइबेरिया, कनाडा तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में चलती है। यह पवन ध्रुवों से आने के कारण बर्फ के कणों से युक्त होती है। इसके चलने से यहां का तापमान अचानक हिमांक से नीचे गिर जाता है। सतह बर्फ से ढक जाती है, जिससे शीत लहर चलने लगती है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में पश्चिम व पूर्व में कोई अवरोध न होने के कारण यह हवाएं समस्त मध्यवर्ती मैदानों को प्रभावित करती हुई दक्षिणी प्रान्तो तक पहुंच जाती है। यहां पर इनको “नॉर्दर्न (Northern)” कहते हैं, तथा साइबेरिया में इन्हें “बुरान” कहते हैं।

 बाइज (Bise):-
यह दक्षिणी फ्रांस में शीत ऋतु के समय चलने वाली अत्यधिक ठंडी पवन है।

 लेवेंतर(Leventer):-
दक्षिणी स्पेन में शीत ऋतु के समय चलने वाली ठंडी हवा है।

 पैंम्पीरो (Pempero):-
यह एक तीव्र गति से चलने वाली ठंडी हवा है। जो अर्जेंटीना तथा उरुग्वे के पम्पास क्षेत्र में चलती है। कभी-कभी यह पवन चमक और गरज के साथ तीव्र वर्षा भी करती हैं।

संविधान में रिट के प्रकार|बन्दी प्रत्यक्षीकरण|परमादेश|प्रतिषेध

भारतीय संविधान में रिट के प्रकार:- भारतीय संविधान में कुल 5 प्रकार की रिटों का उल्लेख है, अनुच्छेद 32 के अनुसार उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय इन्हें जारी करता है। जो निम्नलिखित है:-

बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) रिट :-यह रिट एक आदेश है जो उस व्यक्ति के लिए होती है| जिसने किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में रखा है। न्यायालय आदेश पारित करता है कि जिस व्यक्ति को अवैध रूप से बंदी बनाया गया है उसे सशरीर उपस्थित किया जाए। जिससे न्यायालय उसके कारावास के कारणों से अवगत हो सके । यदि हिरासत में लिए गए व्यक्ति का मामला अवैध है।तो उसे स्वतंत्र किया जा सकता है । यह रिट किसी व्यक्ति, चाहे अधिकारी हो या प्राइवेट व्यक्ति को  जारी की जा सकती है। इसकी अवमानना करने पर उसे दण्डित भी किया जाएगा। कुछ मामलो मे यह रिट जारी नही की जा सकती हैं जैसे :-

– हिरासत कानून के अनुसार है |

यदि कार्यवाही किसी विधान मंडल या न्यायालय की अवमानना के तहत हुई हो।

किसी न्यायालय ने हिरासत में रखने की सजा दी हो| हिरासत न्यायालय के न्याय क्षेत्र के बाहर हुई हो।

यह रिट अनु० 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवम  दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नही। इसी संदर्भ में यह रिट मानव स्वतंत्रता  का सर्वोत्तम अग्रदूत कहा गया है। यह रिट व्यक्तिगत आजादी के लिए जारी की जाती है।

रिट
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परमादेश(Mandamus) रिट:- यह रिट सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है। इसका शाब्दिक अर्थ “हम आदेश देते हैं” इसके तहत न्यायालय किसी सरकारी अधिकारी, सरकारी इकाई, सरकारी निगम, अधीनस्थ न्यायालय, प्राधिकरणों को यह आदेश जारी करता है। कि वह सार्वजनिक उत्तरदायित्व का निर्वहन ठीक प्रकार से करें। उनके द्वारा उनके कार्यों और उसे न करने के बारे में पूछा जा सके परमादेश रिट निम्नलिखित को जारी नहीं की जा सकती
1- निजी इकाई या निजी (प्राइवेट) व्यक्तियों के विरुद्ध।
2- भारत के राष्ट्रपति एवं राज्यों के राज्यपालों के विरुद्ध।
3- गैर संवैधानिक विभागों के विरुद्ध।

 प्रतिषेध(Prohibition) रिट:-यह रिट सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों द्वारा निम्न/अवर न्यायालयों को आदेश जारी किया जाता है। कि वह अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर के मामलों में की जाने वाली कार्रवाई को रोक दें इस रिट का शाब्दिक अर्थ ही “रोकना है” यह रिट केवल न्यायिक व अर्ध न्यायिक प्राधिकरण के विरुद्ध ही जारी की जा सकती है
 

उत्प्रेषण(Certiorari) रिट:-उत्प्रेषण रिट का शाब्दिक अर्थ “प्रमाणित होना या सूचना देना है।” इस रिट को किसी विवाद को निम्न/अवर न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है। रिट के न्यायिक व अर्ध न्यायिक प्राधिकरणों के खिलाफ ही जारी किया जाता था। लेकिन सन 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि यह रिट व्यक्तियों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक प्राधिकरणों के खिलाफ भी जारी की जा सकती है। हालांकि देखा जाए तो यह विधिक निकायों एवं निजी व्यक्तियों या इकाइयों के विरुद्ध जारी नहीं की जा सकती है।
 

अधिकार पृच्छा(Quo Warranto) रिट:-यह रिट किसी भी व्यक्ति द्वारा जारी की जा सकती है। न कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा और पूछा जा सकता है। कि वह किस अधिकार से उस पद पर कार्य कर रहा है। अर्थात इस रिट का शाब्दिक अर्थ “किस अधिकार से, प्राधिकृत या वारंट द्वारा।”
इस रिट के द्वारा न्यायालय उस व्यक्ति के खिलाफ आज्ञा पत्र जारी करता है। जो व्यक्ति उस पद पर कार्यरत है जिसे करने के लिए वह अधिकार नहीं रखता है। अर्थात न्यायालय उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्यरत है। अतः जिस किसी व्यक्ति द्वारा लोक कार्यालय के अवैध अनाधिकार ग्रहण करने को रोकता है। इसे मंत्रित्व कार्यालय या निजी कार्यालय के लिए जारी नहीं किया जा सकता है। यदि पूरक सार्वजनिक कार्यालयों का निर्माण संवैधानिक हो तब इस रिट को जारी किया जा सकता है।

 इल्बर्ट बिल | विवाद क्या था | विरोध किसने किया |वायसराय कौन था

इल्बर्ट बिल भारतीय जजों के साथ होने वाले भेदभाव/अन्याय को दूर करने की भावना से एक विधेयक सर पी.सी. इलबर्ट द्वारा प्रस्तुत किया गया जिसे “इल्बर्ट बिल” की संज्ञा दी जाती है।

इल्बर्ट बिल

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भारत में 1861 से समस्त क्षेत्र में एक समान फौजदारी कानून लागू कर दिया गया था। इसी तहत सभी प्रान्तों में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी।

सन 1861 से पूर्व देश में दो प्रकार के कानून थे। एक प्रेसीडेंसी नगरों के लिए अंग्रेजी कानून तथा दूसरा ग्रामीण क्षेत्रों में मुगल कानून लागू था। उस समय के नीति निर्धारकों का विचार रहा कि यूरोपीय लोगों को मुगल कानून के अंतर्गत लाना उचित नहीं। कालांतर में इसने एक प्रथा का रूप धारण किया। जिसमें प्रेसीडेंसी नगरों के भारतीय दंड नायक (मजिस्ट्रेट) तथा सेशन जज भारतीय तथा यूरोपीय दोनों व्यक्तियों के मुकदमों की सुनवाई कर सकते थे। कहने का आशय है, कि उस समय प्रेसीडेंसी नगरों के न्यायालय में कोई भी भारतीय जज नहीं होते थे। दूसरी तरफ ग्रामीण प्रदेशों के न्यायालयों में भारतीय तथा यूरोपीय दोनों प्रकार के जज होते थे। परंतु यूरोपीय अभियुक्तों का मुकदमा केवल यूरोपीय जज ही सुनता था। यह नियम केवल फौजदारी मामलों पर लागू था। परंतु दीवानी मामलों पर ऐसा भेदभाव नहीं था।

विवाद का मुख्य कारण था। 1972 में तीन भारतीय न्यायिक सेवा में चयनित हुए तथा 1882 में उनकी पदोन्नति की गई तब वह प्रेसीडेंसी नगर कोलकाता से बाहर भेज दिए गए, जहां यूरोपीय अभियुक्तों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। इसी कारण पदोन्नति हुई भारतीय जज श्री बिहारी लाल गुप्ता ने बंगाल के उप गवर्नर सर इशले ईंडन को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने अपने पदोन्नति होने पर अधिकारों में कमी होने को न्याय संगत नहीं होना बताया तथा भारतीय और यूरोपीय पदाधिकारी में तो इस भेदभाव से न्यायाधीशों की शक्तियां नष्ट होती है।
सर पी.सी. इल्बर्ट एक न्याय में विश्वास करने वाले व्यक्ति थे। अतः वह भारतीयों को न्याय दिलाने के पक्षधर थे। इस समय वायसराय की परिषद में एक विधि सदस्य थे। इसलिए उन्होंने भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से 2 फरवरी 1883 को विधान परिषद में एक विधेयक प्रस्तुत किया। इसी विधेयक को उनके नाम पर “इल्बर्ट बिल” कहा गया।

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इल्बर्ट बिल का प्रमुख उद्देश्य भारतीय न्यायधीशों को यूरोपीय में न्यायाधीशों के समान शक्तियां प्रदान करना था। और काले- गोरे जाति भेद पर आधारित सभी न्यायिक अयोग्यताएं समाप्त करके यूरोपीय न्यायधीशों की भांति भारतीय न्यायाधीशों को सामान शक्तियां प्रदान की जाए।
इस बिल का विरोध बड़े-बड़े उद्यानों वाले यूरोपीय मालिकों द्वारा प्रमुखता से किया गया। क्योंकि इन मालिकों द्वारा भारतीय मजदूर पर बर्बरता का व्यवहार किया जाता था ।और उनसे कठोर परिश्रम कराया जाता था। यदि मजदूर कार्य करने में असमर्थता व्यक्त करता तो उसे बेरहमी से पीटा जाता था। कभी-कभी तो पीटते-पीटते उनकी मृत्यु तक हो जाती थी। इस प्रकार की हत्या का मामला न्यायालय में जाता था। तो वहां यूरोपीय न्यायाधीश ही मामले की सुनवाई करते थे और उन्हें थोड़ा दंड देकर या कभी-कभी बिना दंड के ही छोड़ देते थे लेकिन जब भारतीय न्यायाधीशों के समक्ष ऐसा मामला पहुंचा तो शायद उन्हें कठोर सजा सुनाई जा सकती थी। इसलिए इन मालिकों ने इस बिल का विरोध किया।

यूरोपीय मालिकों ने इल्बर्ट बिल के विरोध हेतु एक प्रतिरक्षण संघ (Defence association) बनाया जिसमें लगभग डेढ़ लाख रुपये चंदे के रूप में एकत्रित हुए। इस प्रकार उन्होंने प्रचार किया “कि क्यों हमारा निर्णय काले लोग करेंगे। क्या वे हमें जेल भेजेंगे क्या वह हम पर आज्ञा चलाएंगे यह मालिकों द्वारा मानना असंभव है” उन्होंने यहां तक कहा कि भारत में अंग्रेजी शासन समाप्त हो जाए लेकिन वह इस घृणित कानून को नहीं मानेंगे।

विरोध इतना प्रचंड था। कि कुछ यूरोपीय ने वायसराय को बंदी बनाकर इंग्लैंड भेजने की साजिश रची। गालियां दी गई तथा कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही वायसराय को वापस बुला लिया जाए इसकी मांग कर दी। विरोध का असर इंग्लैंड में भी दिखने लगा क्योंकि लंदन के प्रसिद्ध समाचार पत्र द टाइम्स ने भी वायसराय रिपन की नीतियों की आलोचना की। महारानी विक्टोरिया ने वायसराय के इस बिल के प्रति व्यवहार पर संदेह व्यक्त किया।

अंततः रिपन को झुकना पड़ा और 26 जनवरी 1884 को नया विधेयक पारित किया गया। जिसमें नियम बनाया गया कि यदि यूरोपीय व्यक्तियों का मुकदमा सेशन जजों के समक्ष आए तो वे लोग 12 सदस्यों की पीठ की मांग कर सकते हैं। जिसमें कम से कम सात यूरोपीय//अमेरिकी जज होना अनिवार्य होगा ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार जजों की पीठ गठित करना संभव नहीं था। इसलिए यह मुकदमे हस्तांतरित करना होता था।

 भारत में पर्यावरण आंदोलन|चिपको(1974)|विश्नोई(1730)|अप्पिको(1983)

भारत में चलाएं गए प्रमुख पर्यावरण आंदोलन:-
भारत में पर्यावरण आंदोलन देखा जाए तो आदिकाल से चलाया जा रहा है। पर्यावरण से संबंधित तत्वों जैसे धरती, जल, आग, वायु, आकाश, पर्वत, नदी, वनस्पतियों से भारतीयों की असीम श्रद्धा जुड़ी है। वह उनकी विभिन्न रूपों में पूजा अर्चना करके इसके संरक्षण में अपना योगदान देते रहे हैं। इसका उल्लेख वेदों, गीता, महाभारत, उपनिषद आदि में किया गया है।

लेकिन वर्तमान में विकास की अंधी दौड़ में हम अपने और अपनी आने वाली पीढ़ी के जीवन को संकट में डाल रहे हैं। और लगातार वन एवं जैव विविधता को नुकसान पहुंचा रहे हैं। भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए वनों को काटने से रोकने प्राकृतिक संसाधनों को भविष्य के लिए बनाए रखने हेतु भारतीय पुरुषों महिलाओं ने विभिन्न आंदोलन चलाए। जिससे पर्यावरण संरक्षण को काफी मदद मिली और सरकार द्वारा भी विभिन्न नियम बनाए गए।
पर्यावरण संरक्षण हेतु भारत में पर्यावरण आंदोलन चलाए गए। जिनमें प्रमुख आंदोलन निम्नलिखित हैं:-

भारत में पर्यावरण आंदोलन

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चिपको आंदोलन (Chipko Movement):-
चिपको आंदोलन 26 मार्च 1973 ई. को उत्तर प्रदेश के चमोली जिले (वर्तमान में उत्तराखंड) में वनों की कटाई को रोकने के लिए किया गया।
इस आंदोलन में प्रदर्शन कार्यों द्वारा पेड़ों को गले लगाया गया जिससे पेड़ों को काटा ना जा सके।
वर्ष 1964 में सामाजिक कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट द्वारा दसोली ग्राम स्वराज संघ की स्थापना की गई। जो की कर्ण सिंह और ज्योति कुमारी आंदोलन से प्रेरित था।
उक्त संघ की स्थापना का मुख्य उद्देश्य जंगली संसाधनों का उपयोग कर छोटे-छोटे उद्योगों की स्थापना कर सके।
 चिपको आंदोलन को प्रेरणा बिश्नोई आंदोलन से मिली। जो 1731 में राजस्थान के खेजड़ी गांव से प्रारंभ हुआ। यहां अमृता देवी बिश्नोई और उनकी तीन पुत्री ने पेड़ों से लिपटकर (चिपककर) अजीत सिंह द्वारा कटवायें जा रहे खेजड़ी के वृक्षों को काटने से रोका लेकिन अजीत सिंह के लोगों द्वारा उनके समेत गांव के 363 लोगों को पेड़ों के साथ काट दिया गया।
आधुनिक चिपको आंदोलन की शुरुआत 26 मार्च 1974 में उत्तर प्रदेश के रैणी गांव (वर्तमान में उत्तराखंड) में ₹2500 पेड़ों की नीलामी काटने के लिए की गई। लेकिन इन पेड़ों की कटाई का विरोध गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं द्वारा पेड़ों से चिपककर किया गया। इस विरोध से वन्य जीव अधिकारियों को गौरा देवी की बात माननी पड़ी और पेड़ों की कटाई रोक दी गई।
चिपको आंदोलन के जनक सुंदरलाल बहुगुणा, गौरा देवी, चंडी प्रसाद भट्ट तथा अन्य कार्यकर्ताओं के साथ ग्रामीण महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।
चिपको आंदोलन पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से किया गया शांति एवं अहिंसक आंदोलन था।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा सन् 1980 में हिमालयी वृक्षों को काटने पर 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी गई। यह इस आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता थी।
भारत में पर्यावरण आंदोलन साइलैंट वैली आंदोलन (silent valley movement):-
साइलेंट वैली आंदोलन 1973 में केरल के पलक्कड़ जिले में चलाया गया था।
यह आंदोलन कुंतीपूझा(Kunthi puzha) नदी पर बनाए जा रहे जल विद्युत प्रोजेक्ट के विरोध में चलाया गया था।
जिस स्थान पर यह जल विद्युत प्रोजेक्ट बनाया जा रहा था। वहां सदाबहार उष्णकटिबंधीय वन है। यह वन अत्यधिक घने होने के कारण बहुत ही शांत रहता है। इसलिए इसे शांत घाटी (silent valley)कहा जाता है।
यहां के वनों में पेड़ पौधों एवं जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं। जिसमें मुख्यतः राष्ट्रीय पशु बाघ, नीलगिरी लंगूर, विशिष्ट जीव लाॅयन टेल्ड मकाक आदि यहां की स्थानीय प्रजातियां पाई जाती हैं।

 यहां निर्माणाधीन जल विद्युत प्रोजेक्ट से यहां पाई जाने वाली विभिन्न पेड़- पौधों जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियों के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो सकता था ।
यह आंदोलन एक सामाजिक आंदोलन बन गया था। क्योंकि इस आंदोलन के समर्थन में विशिष्ट लोगों ने जनता से संपर्क हेतु विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया। जिससे जनता को जागरूक किया जा सके।
यह आंदोलन कामयाब रहा और 1985 को इस स्थान को साइलेंट वैली राष्ट्रीय पार्क घोषित किया गया।

भारत में पर्यावरण आंदोलन 

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बिश्नोई आंदोलन:-
बिश्नोई आंदोलन 15वीं शताब्दी में संत ज़ाभोजी (भगवान जंभेश्वर) के नेतृत्व में राजस्थान से शुरु हुआ।
इस आंदोलन को पर्यावरण आंदोलन, बिश्नोई आंदोलन, बिश्नोई चिपको आंदोलन या खेजड़ली आंदोलन आदि नामो से भी जाना जाता है।
संत जांभोजी के द्वारा पर्यावरण के प्रति इतनी सेवा भावना से प्रेरित होकर बिश्नोई समुदाय द्वारा वृक्षों और जीवों की पूजा और संरक्षण किया जाता है।
सन 1730 में राजस्थान के राजा अभय सिंह द्वारा मेहरानगढ़ के किले में फूल महल के निर्माण हेतु लकड़ी की आपूर्ति के लिए सिपाहियों द्वारा रामू खोड के खेत में खडे़ खेजड़ी के वृक्षों को काटना प्रारंभ किया गया।
खेजड़ी के वृक्षों को काटने से रोकने हेतु रामू खोड की पत्नी अमृता बिश्नोई वह तीन पुत्रियों रत्नी, आंसू और भागू पेड़ों से लिपट गई। लेकिन राजा के सिपाहियों द्वारा इन सभी को पेड़ों के साथ काट दिया गया। पेड़ों की रक्षा के लिए मां बेटियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।
अमृता देवी वह उनकी पुत्रियों से प्रेरित होकर जोधपुर के खेजरली गांव के 363 स्त्री पुरुष शहीद हो गए। इस घटना के राजा के संज्ञान में आने पर उन्होंने अपना आदेश वापस ले लिया और पेड़ों की कटाई बंद करवाई और बिश्नोई समुदाय से माफी मांगी।
अमृता देवी के बलिदान को सम्मान देने के लिए भारत सरकार व राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। जैसे अमृता देवी बिश्नोई स्मृति पर्यावरण पुरस्कार (राजस्थान व मध्य प्रदेश सरकार द्वारा दिया जाता है) अमृता देवी बिश्नोई वन्य जीव संरक्षण पुरस्कार (भारत सरकार द्वारा)
भारत में पर्यावरण आंदोलन

नर्मदा बचाओ आंदोलन:-
यह आंदोलन नर्मदा नदी पर बनाई जाने वाली बहुउद्देशीय बांध परियोजना के विरोध में था। इस योजना के तहत बनाए जाने वाले नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन सरदार सरोवर बांध जो की एक बेहद बड़ा बांध था। जिसका सर्वाधिक विरोध किया गया। इस परियोजना का निर्माण गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र राज्य द्वारा सम्मिलित रूप से कराया जा रहा था। इस परियोजना से लगभग 37000 हेक्टेयर भूमि के जलमग्न होने का खतरा था। तथा लाखों परिवारों की कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किया गया। जिसमें 58% भूमि आदिवासी लोगों की थी। बांध के निर्माण से लाखों परिवारों के विस्थापित होने का खतरा उत्पन्न हो जाता क्योंकि पानी को रोकने से आसपास की भूमि जलमग्न हो रही थी ।
इस आंदोलन में आदिवासी, किसान, पर्यावरण कार्यकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने भाग लिया जिसमें प्रमुख नेतृत्व कर्ता मेधा पाटकर, बाबा आमटे एवं अरुंधति राय थे। इन लोगों के प्रयास से उच्चतम न्यायालय द्वारा विस्थापित लोगों के लिए उचित पुनर्वास हेतु स्पष्ट नीति निर्माण करने का आदेश दिया गया।

भारत में पर्यावरण आंदोलन

एप्पिको आंदोलन:-
एप्पिको आंदोलन दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में 1983 में चलाया गया। यह आंदोलन उत्तर प्रदेश (वर्तमान में उत्तराखंड) के चिपको आंदोलन से प्रेरित था। एप्पिको शब्द कन्नड़ भाषा का है जिसका अर्थ “गले लगाना” होता है। यह आंदोलन पूर्णता अहिंसक था। 38 दिनों तक चलने वाले इस आंदोलन में युवाओं की सहभागिता सराहनीय थी। उनके अनुसार वनों की कटाई अधिक होने के बावजूद कागजों पर प्रति एकड़ दो पेड़ ही काटना प्रदर्शित किया जाता था। इससे गांव के आसपास के जंगल धीरे-धीरे गायब होने लगे जंगलों की कटाई के विरोध में सितंबर 1983 में अनेक महिलाओं, पुरुषों एवं बच्चों ने पांडुरंग हेगड़े के नेतृत्व में सलकानी से 5 किलोमीटर चलकर कालासे (kalase) में काटे जा रहे पेड़ों को गले लगाया।

कुतुब मीनार(1199)|उद्देश्य|निर्माणकर्ता|स्थान|सीढ़िया

कुतुब मीनार:-

कुतुब मीनार कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा कुतुब मीनार का निर्माण कराने का मकसद मुसलमानों को प्रार्थना हेतु इकट्ठा किया जा सके। लेकिन कालांतर में इसे चित्तौड़ और मांडू में बनी मीनारों के परिपेक्ष में देखा जाने लगा तथा इसे विजय की मीनार माना जाने लगा। कुतुबमीनार का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 ईस्वी में कुव्वत-उल- इस्लाम मस्जिद के प्रांगण में इसका निर्माण कार्य प्रारंभ कराया। प्रारंभ में इसके निर्माण हेतु जो खाका तैयार किया गया था उसमें इसकी ऊंचाई 225 फीट तथा चार मंजिल होना तय किया गया था।

कुतुब मीनार

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कुतुबुद्दीन कुतुबमीनार की केवल एक मंजिल का निर्माण कर सका शेष कार्य इल्तुतमिश द्वारा किया गया। कुतुबमीनार का निर्माण सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में कराया गया था। फिरोज तुगलक के समय में कुतुब मीनार पर आकाशीय बिजली गिरने के कारण इसकी चौथी मंजिल क्षतिग्रस्त हो गयी |जिससे इस चौथी मंजिल को तोड़कर इसके स्थान पर दो मंजिलो का निर्माण कराया गया | जिससे कुतुबमीनार की उचाई 234 फिट हो गयी थी | समय समय पर कुतुबमीनार की मरम्मत का कार्य फिरोजशाह तुगलक ,सिकंदर लोदी व् मेजर आर. स्मिथ द्वारा कराया गया |   

कुतुब मीनार के आंतरिक भाग में कुछ छोटे-छोटे देवनागरी अभिलेख खुदे हैं। इन्हीं अभिलेखों के आधार पर इसे शुरू में हिंदू मीनार होने से जोड़ा जाने का प्रयास किया गया और कहा गया कि मुसलमानों ने इसकी बाहरी दीवारों पर कटाई करके मीनार का स्वरूप प्रदान किया।

उक्त विचारधारा का सिरे से खण्डन जान मार्शल जैसे इतिहासकारों ने किया है। और कुतुब मीनार को इस्लामी मीनार ही माना जाना सर्व उचित है। इस मीनार के निकले छज्जों को छत्तेदार डिजाइन से अलंकृत पत्थरों के ब्रैकेट द्वारा सहारा दिया गया है।

प्रश्न:- कुतुब मीनार कहां है।
उत्तर:- कुतुब मीनार दिल्ली की कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के परिसर में स्थित है।

प्रश्न :- कुतुब मीनार क्यों बनाया गया था।
उत्तर:- कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा मुसलमानों को एक जगह एकत्रित करके प्रार्थना सभाओं का आयोजन करना था।

प्रश्न:- कुतुबमीनार का निर्माण कब हुआ।
उत्तर:- कुतुब मीनार का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा 1199 ईस्वी में दिल्ली की कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के परिसर में कराया गया।

प्रश्न:- कुतुब मीनार में कितनी सीढ़ियां हैं।
उत्तर:- कुतुब मीनार में 379 सीढ़ियां हैं।

अलीगढ़ आंदोलन (1876)|सर सैयद अहमद खां|अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय|तहजीब-उल-अखलाक

सर सैयद अहमद ख़ां:-

अलीगढ़ आंदोलन (1876), सर सैयद अहमद खां, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, तहजीब-उल-अखलाक

सर सैयद अहमद के नेतृत्व में अलीगढ़ आंदोलन 1876 में प्रारंभ हुआ। सर सैयद अहमद का जन्म 1817 ईस्वी में दिल्ली में हुआ। यह अंग्रेजी शिक्षा एवं ब्रिटिश सत्ता के सहयोग के पक्षधर थे। क्योंकि सर सैयद अहमद ख़ां का मानना था कि मुसलमानों में शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है इसलिए वह शिक्षा का प्रचार-प्रसार करके उनके बौद्धिक स्तर में वृद्धि तथा रोजगार प्राप्त करने में सक्षम हो सके। जिससे मुस्लिम समाज की दशा में सुधार हो सके।

अलीगढ़ आंदोलन

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अलीगढ़ आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था, कि मुस्लिम समुदाय का उत्थान कैसे किया जाए भारत में ज्यो-ज्यो पुनर्जागरण बड़ा और शिक्षा का विकास हुआ तो मुस्लिम समाज का एक प्रबुद्ध वर्ग शिक्षा की महत्ता को समझने लगा। इसी वर्ग का नेतृत्व सर सैयद अहमद ने अपने हाथों में संभाला और मुसलमानों में शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाना तथा मुस्लिम समाज का उत्थान सुनिश्चित करना। लेकिन उनके इस कार्य का उलेमाओं तथा कट्टरपंथी मुसलमानों ने खुला विरोध किया। लेकिन सर सैयद अहमद अपने इस कार्य में निडरता से करने में डटे रहे।

1857 की महान क्रांति के पश्चात अंग्रेजी सत्ता को लगने लगा कि इस क्रांति में मुख्य षड्यंत्र करता मुसलमान थे। इसकी पुष्टि कुछ समय पश्चात हुए बहावी आंदोलन ने कर दी। अंग्रेजी सरकार को यह एहसास हो गया था कि बढ़ते हुए राष्ट्रवाद के कारण हिंदू मुस्लिम एकता के कारण कालांतर में और अधिक विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए अंग्रेजी सरकार ने बड़ी चालाकी से मुसलमानों को अपने सहयोगी के रूप में इस्तेमाल करने का निश्चय किया।

अलीगढ़ आंदोलन के प्रणेता सर सैयद अहमद का मत था। कि मुस्लिम समुदाय अभी पिछड़ा है और यदि हिंदू मुस्लिम एकता बनी रहे तो इसमें मुसलमानों कोई लाभ न होकर नुकसान ही होगा। किसी समय सर सैयद अहमद हिंदू मुस्लिम एकता के समर्थक थे। कालांतर में हिंदू तथा कांग्रेस विरोधी होते गए। फल स्वरुप अलीगढ़ आंदोलन विरोधी होता चला गया। इसी का अवसर पाकर अंग्रेजी सरकार ने मुसलमानों को अपने को अपने पक्ष में करने में सफलता प्राप्त की। और अलीगढ़ आंदोलन अंग्रेजों की विश्वसनीयता हासिल करने में सफल रहा।

सर सैयद अहमद ने अपने जीवन के दो मुख्य लक्ष्य बनाए। पहला अंग्रेजी सरकार और मुसलमानों के संबंधों को ठीक करना तथा दूसरा मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करना। सर सैयद अहमद खान मुस्लिम मदरसो में पढ़ाई जाने वाली पुरानी पद्धति की शिक्षा से खुश नहीं थे। और इन्होंने यह तर्क दिया कि कुरान में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है जो मुस्लिम समाज को पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आने वाला अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने से रोकता है। इनके द्वारा सन 1864 में साइंटिफिक सोसायटी की स्थापना तथा गाजीपुर में इसी वर्ष एक अंग्रेजी शिक्षा का स्कूल खोला गया। 1870 में फारसी भाषा में एक पत्रिका तहजीब-उल-अखलाक निकाली। यह सदैव अंग्रेजी सरकार के प्रति राजभक्त बने रहे। इसी क्रम में उनके द्वारा 1875 में अलीगढ़ में मुहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल स्कूल की स्थापना की गई। जो 1878 में कॉलेज बना तथा 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया।
अलीगढ़ आंदोलन में सर सैयद अहमद खान के समर्थकों में चिराग अली, नजीर अहमद, अल्ताफ हुसैन अली, मौलाना शिबली नोमाली आदि प्रमुख थे। 1887 कांग्रेस के अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयब जी बने तो इन्होंने इसका विरोध किया।

भारत का क्षेत्रफल|अन्य नाम|विस्तार|अंतरराष्ट्रीय सीमा|दर्रे|अपवाह तंत्र

दोस्तों आज हम लोग इस लेख में भारत के संबंध में महत्वपूर्ण तथ्यो का अवलोकन करेंगे। जिसमें भारत का क्षेत्रफल, विस्तार, स्थित, अन्य नाम, अंतरराष्ट्रीय सीमाएं, प्रमुख पर्वत, नदियां, झीलें, भारतीय सीमा से गुजरने वाली विभिन्न रेखाओं आदि के बारे में भी चर्चा करेंगे।

भारत का क्षेत्रफल:-

भारत रूस, कनाडा, चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील व ऑस्ट्रेलिया के बाद सातवां सबसे विशाल देश है। इसका क्षेत्रफल 3287263 वर्ग किलोमीटर है, जो की संपूर्ण विश्व का 2.43 प्रतिशत है। भारत में विश्व की कुल आबादी का 17.5% निवास करती है। यह जनसंख्या की दृष्टि से चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। निकट भविष्य में लगातार जनसंख्या वृद्धि के कारण जल्द ही भारत चीन को पीछे छोड़कर प्रथम स्थान पर पहुंच जाएगा।

भारत का क्षेत्रफल

नामकरण:-

भारत एक विशाल देश है। इसी कारण से उपमहाद्वीप की संज्ञा दी गई है। समय-समय पर इसको विभिन्न नाम से पुकारा गया प्राचीन काल में इसका नाम आर्यावर्त था, जो की बाद में राजा भारत के नाम पर भारत वर्ष नाम से संबोधित किया जाने लगा।

पर्शिया (आधुनिक ईरान) से भारत आए लोगों में सर्वप्रथम भारत के सिंधु घाटी में प्रवेश किया। यह स्थान वैदिक आर्यों का निवास स्थान था। पर्शियन सिंधु नदी को हिंदू नदी कहते थे। क्योंकि यह लोग “स” अक्षर का उच्चारण “ह” अक्षर के समान करते थे। इस प्रकार यह लोग हिंदुस्तान कहने लगे इसी कारण यह लोग यहां के निवासियों को हिंदू कहने लगे। यहां जामुन के पेड़ों की अधिकता के कारण जैन पौराणिक कथाओं के अनुसार हिंदू और बौद्ध ग्रंथों में इसके लिए जम्बूद्वीप शब्द का प्रयोग किया गया है। यूनानियों द्वारा इसे इंडिया कहा गया भारत के संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा जिसे हाल ही में संविधान संशोधन के द्वारा इंडिया शब्द को हटा दिया गया।

भारत की स्थिति और विस्तार:-

भारत-दक्षिण एशिया में स्थित एक चतुष्कोणीय आकृति वाला देश है प्रायद्वीपीय भारत त्रिभुजाकार होने के कारण हिंद महासागर को अरब सागर वह बंगाल की खाड़ी नामक दो शाखाओं में विभाजित करता है। भारत के पूर्व में इंडो-चीन प्रायद्वीप तथा पश्चिम की ओर अरब प्रायद्वीप स्थित है। इसकी स्थिति अक्षीय दृष्टि से उत्तरी गोलार्द्ध में तथा देशांतरीय दृष्टि से पूर्वी गोलार्द्ध में है।
भारत की स्थिति पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में 8°4′ से 37° 6′ उत्तरी अक्षांश तथा 68°7′ से 97°25′ पूर्वी देशांतर के बीच में स्थित है।

भारत के मानक समय का निर्धारण:-

भारत का मानक समय 82.5 पूर्वी देशांतर से निर्धारित किया गया है। जो कि भारत के लगभग मध्य से होकर गुजरती है। तथा उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) के निकट नैनी से होकर निकलती है। इसी स्थान से भारत के मानक समय का निर्धारण किया गया है। 82.5 पूर्वी देशांतर भारत के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश से होकर गुजरती है।

भारत का अक्षांशीय और देशांतरीय विस्तार:-

भारत का अक्षांशीय विस्तार पूर्व से पश्चिम तक 2933 किलोमीटर है। जो की सुदूरस्त पश्चिमी बिंदु गौर मोता अथवा गुहार मोती (गुजरात) से सुदूरस्त पूर्वी बिंदु किबिथू (अरुणाचल प्रदेश) तक है।
भारत का देशांतरीय विस्तार उत्तर से दक्षिण 3214 किलोमीटर है। जो कि सुदूरस्त उत्तर बिंदु सियाचिन ग्लेशियर के निकट इंदिरा कॉल लद्दाख व सुदूरस्त दक्षिणी बिंदु इंदिरा पॉइंट, ग्रेट निकोबार (कन्याकुमारी, तमिलनाडु) में स्थित है।

कर्क रेखा:-

कर्क रेखा भारत के 8 राज्यों से गुजरती है। जो निम्नवत हैं:-
गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और मिजोरम।

भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा की लंबाई और संबद्ध राज्य:-

भारत की कुल अंतर्राष्ट्रीय सीमा 22716.5 किलोमीटर है। जिसमें 15200 किलोमीटर स्थलीय सीमा और 7516.5 किलोमीटर तटीय सीमा है।

भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा से संबद्ध देश:-

बांग्लादेश:-

4096.7 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा वाला देश है। जो भारत के साथ सबसे लंबी सीमा रेखा बनाता है। इससे भारत के राज्यों में पश्चिम बंगाल, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, असम की सीमाएं मिलती हैं।

चीन:-

भारत की चीन के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा की लंबाई 3488 किलोमीटर है ।जो भारत के लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश राज्यों से संबंध है। भारत चीन की सीमा रेखा को मैकमोहन रेखा कहते हैं।

पाकिस्तान:-

भारत के साथ पाकिस्तान की सीमा रेखा की लंबाई 3323 किलोमीटर है। जो गुजरात, राजस्थान, पंजाब, जम्मू कश्मीर तथा लद्दाख से संबंध है। इसकी सीमा रेडक्लिफ रेखा के नाम से जानी जाती है।

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विश्व की जनजातियां|बुशमैन|पिग्मी|मसाई|बोरो|सकाई|सेमांग|बद्दू|

 

विश्व की जनजातियां :-

प्यारे दोस्तों आज हम लोग इस लेख में विश्व की जनजातियों (विश्व की जनजातियां) के बारे में जानेंगे | जनजातियों से आशय है। कि लोगों का ऐसा समूह जो रूढ़िवादी परंपराओं के साथ और उत्पत्ति के समय से ही अपने आदिम स्वरूप में ही जीवन निर्वाह कर रहे रहा है। ऐसे लोगों के समूह को जनजातीय कहा जाता है। विश्व की प्रमुख जनजातियां निम्नलिखित हैं:-

01- बुशमैन (Bushman):-

इस जनजाति के लोगों की आंखें चौड़ी व त्वचा काली होती है। यह प्रायः नग्न अवस्था में रहते हैं। इनका निवास स्थान दक्षिण अफ्रीका के कालाहारी मरुस्थल व लेसोथो, नैटाल, वासूतोलैंड, दक्षिण रोडेशिया तक विस्तृत है। यह लोग हब्सी प्रजाति के हैं। यह बड़े ही परिश्रमी व उत्साही प्रवृत्ति के होते हैं। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय आखेट करना एवं जंगली वनस्पतियों को इकट्ठा करना। यह धूप ठंड एवं वर्षा से बचने के लिए लकड़ियों व पत्तों से निर्मित गुंबदाकर झोपड़ियों का निर्माण करते हैं। यह लोग सर्वभक्षी प्रवृत्ति के होते हैं। उत्सवों आदि में दीमक से बने भोजन को यह बड़े चाव से खाते हैं। इसलिए दीमक को “बुशमैन का चावल”(Bushman’s rise) की संज्ञा दी जाती है।

विश्व की जनजातियां

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02- पिग्मी (Pigmy):-

पिग्मी जनजाति के लोगों के चेहरे की बनावट में नाक चपटी, ओठ मोटे बाहर की ओर उभरे तथा छल्लेदार गुच्छो के समान सिर पर बाल पाए जाते हैं। यह काले निग्रोटो प्रजाति के लोग हैं। इनका कद 01 से 15 मीटर तक होता है। जो कि विश्व की सभी जनजातियों में सबसे कम है। यह लोग गले में बांस की बनी सीटी लटकाए रहते हैं। जिससे पक्षियों की बोली की नकल करके उनका शिकार करते हैं। तथा साथियों से संपर्क बनाए रखने में इसका प्रयोग करते हैं।
पिग्मी जनजाति की कई उपजातियां हैं। जिन्हें सम्मिलित रूप से “आचुआ” नाम से जाना जाता है। इसकी म्बूती तथा बिंगा गोसेरा उपजातियां कांगो बेसिन के गैबोन, युगांडा, दक्षिण पूर्व एशिया व फिलिपींस के वनो, आमेटा और न्यूगिनी के वनों में पाई जाती हैं। निवास के लिए यह कोई स्थाई घर नहीं बनाते यह रहने के लिए मधुमक्खी के छत्ते की तरह इनकी झोपड़ियां होती हैं। जो 2 मीटर व्यास वह डेढ़ मीटर ऊंची होती हैं। इसका दरवाजा लगभग 50 सेंटीमीटर ऊंचा होता है। जिसमें यह घुटनों के बाल खिसक कर घुसते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय आखेट है। इस जनजाति के पुरुष जानवरों की खाल वह महिलाएं पत्तों से अपने कमर के निचले भाग को ढके रखती हैं। इस जनजाति के लोगों को “केला” खाना बहुत पसंद है।

विश्व की जनजातियां

03- मसाई (Masai):-

इस जनजाति के लोगों का बदन छरहरा, कद लंबा तथा त्वचा का रंग भूरा और गहरा कत्थई होता है। यह मुख्यतः चमड़े से बने हल्के वस्त्रो का प्रयोग करते हैं इनमें मेडिटरेनियन (भूमध्य सागरीय) और निग्रोइड जाति के मिश्रण की झलक दिखाई पड़ती है। यह टंगानिका, केन्या व पूर्वी युगांडा के पठारी क्षेत्र में घुमक्कड़ी पशु चारक के रूप में जीवन निर्वाह करते हैं। लेकिन कभी-कभी अस्थाई झोपड़ियों का निर्माण रहने के लिए करते हैं। जिसे “क्राॅल” कहा जाता है। यह लोग गाय को पवित्र मानते हैं,एवं कुत्तों को रखवाली के लिए पालते हैं मसाई लोगों का मुख्य भोजन रक्त है। यह गाय और बैल की गर्दन को रस्सी से बांधकर सुई द्वारा नसों से खून निकलते हैं। इसे ताजे दूध में मिलाकर पीते हैं। मसाई जनजाति के पुजारी/धार्मिक नेता को “लैबान” कहते हैं। जिसका सभी सम्मान करते हैं। यह जनजाति यूरोपीयों के संपर्क में आने से इसके रहन-सहन में काफी बदलाव देखा गया है।

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04- बोरो (Boro):-

पश्चिमी अमेजन बेसिन, ब्राज़ील, पेरू और कोलंबिया के सीमांत क्षेत्रों में पाई जाने वाली यह जनजाति बहुत ही लड़ाकू निर्दय, क्रूर प्रवृत्ति की होती है। इस जनजाति के लोगों की त्वचा का रंग भूरा बाल सीधे तथा कद मध्यम होता है। इनका शारीरिक बनगठाव बोरो अमेरिका के रेड इंडियन के समान है। यह लोग अभी भी आदिम कृषक के रूप में जीवन यापन करते हैं। इन लोगों की निर्दयता की पराकाष्ठा इनके द्वारा मनाए जाने वाले उत्सवों में प्रतीत होती है, इनमें यह अपने को श्रेष्ठ दिखाने के लिए मानव हत्या करना, मांस लक्षण करना तथा विजय चिन्ह के रूप में मानव खोपड़ियों को अपने झोंपड़ियो में सजा कर रखते हैं।

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05- सकाई(Sakai):-

सकाई जनजाति के लोगों का रंग साफ कद लंबा, सिर लंबा पतला, घुंघराले बाल और अधिकतर निर्वस्त्र रहते हैं। अपने शरीर के नीचे के भाग को घास व पत्तों से ढके रहते हैं। इनका निवास स्थान मलाया प्रायद्वीप, मलेशिया के वन घटिया हैं। यह प्रायः निर्दयी प्रवृत्ति के होते हैं। इनका प्रमुख व्यवसाय कृषि, बागानी कृषि, आखेट आदि होता है। आखेट हेतु यह बांस की नली निर्मित फूक नली का प्रयोग करते हैं। इस जनजाति की महिलाएं पूर्णता स्वतंत्र होती है। उन पर पारिवारिक शासक जैसा कोई दवाब नहीं होता है। बालक बालिकाओं स्वेच्छाचारी होते हैं। अर्थात उनमें संबंधों जैसा कोई प्रावधान नहीं होता है।

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06- सेमांग(Semang):-

मुख्यत: मलाया प्रायद्वीप, मलेशिया के वन और कुछ मात्रा में अंडमान, फिलिपींस, मध्य अफ्रीका में सेमांग जनजाति निवास करती है। नीग्रिटो प्रजाति के,नाटा कद, ओठ चपटे मोटे, बाल घुंघराले काले होते हैं।यह अपने गुप्तांगों को ढकने के लिए पेड़ों की छाल को कूटकर उनसे प्राप्त रेशों से पतली- पतली पत्तियों से बुनकर कपड़ों का प्रयोग करते हैं। इनका जीवन वनों की उपज और आखेट पर निर्भर करता है। यह प्रायः पेड़ों पर झोपड़ियां बनाकर निवास करते हैं। इनका मुख्य भोजन रतालु (yam) है।

विश्व की जनजातियां

07- बद्दू (Badawins):-

अरब के उत्तरी भाग के हमद और नेफद मरुस्थल में पाई जाने वाली बद्दू जनजाति कबीले के रूप में चलवासी जीवन व्यतीत करती है। इनका संबंध नीग्रोटो प्रजाति से है। पशुपालन में यह ऊंट भेड़ बकरी घोड़े को पालते हैं। जो बद्दू ऊंटो का पालन करते हैं। उन्हें “रुवाला” कहा जाता है। यह लोग तंबू बनाकर रहते हैं। बद्दू लोगों का रंग हल्का कत्थई और गेहुआ, बाल घुंघराले और काले होते हैं। यह सिर पर स्कार्फ बांधते हैं। महिलाएं लंबे चोंगे व पाजामे के साथ-साथ सिर पर बुर्का पहनती हैं।

विश्व की जनजातियां

08- खिरगीज(Khirghiz):-

मंगोल प्रजाति की यह जनजाति मध्य एशिया में किर्गिस्तान गणराज्य में पामीर के पठार और थ्यानशान पर्वत माला में निवास करती है। इनका कद नाटा, पीला रंग, सुगठित शरीर, आंखें तिरछी व छोटी, बालों का रंग काला होता है। यह अपने पशुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ऋतु परिवर्तन के हिसाब से ले जाते हैं। अतः चलवासी प्रवृत्ति के होते हैं। खिरगीज त्योहारों पर घोड़े के मांस को खाना पसंद करते हैं। यह लोग दूध को सड़ाकर कर खट्टी शराब बनाते हैं। जिसे “कुसिम” कहते हैं। यह निवास के लिए अस्थाई गोलाकार तंबू का प्रयोग करते हैं। जिसे युर्त(Yurt) कहते हैं।यह लोग ऊन व खाल से निर्मित वस्त्रो का प्रयोग करते हैं। पुरुष लंबे कोट तथा पजामा तथा महिलाएं कोट के साथ ऊनी दोडू पहनती हैं।

विश्व की जनजातियां

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09- एस्किमो(Eskimo):-

मंगोलांयड प्रजाति के एस्किमो अमेरिका के उत्तर पूर्व में ध्रुव से सटे ग्रीनलैंड से पश्चिम में अलास्का तथा टुंड्रा प्रदेश में रहने वाली जनजाति है। एस्किमो का शाब्दिक अर्थ “कच्चा मांस खाने वाला” होता है। इन लोगों का रंग भूरा एवं पीला, चेहरा सपाट और चौड़ा तथा आंखें गहरी कत्थई होती है। गालों की हड्डियां ऊंची और सिर लंबा होता है।
एस्किमो लोगों का पालतू पशु रेंडियर है। यह रेडिंयर तथा कैरिबों की खाल से बने वस्त्रो का प्रयोग करते हैं। पांव में लंबे जूते सिर पर फर की टोपी हाथों में दस्ताने तथा दो कोट पहनते हैं। एस्किमो का मुख्य व्यवसाय शिकार करना है। यह वालरस, सील मछली, रेंडियर, श्वेत भालू, कैरीबो, आर्कटिक लोमड़ी आदि का शिकार करते हैं। यह “हारपून”(Harpoon) नामक हथियार तथा “उमियाक” नाव की सहायता से व्हेल का शिकार कर लेते हैं। सील मछली का शिकार करने के लिए प्रयोग की जाने वाली एक छिद्र वाली शैली को “माउपोक”(Maupok) तथा दो छिद्र वाली शैली को “इतुआरपोक”(Ituarpok) को कहते हैं। शिकार के लिए प्रयोग की जाने वाली नाव को कायक(Kayak) कहते हैं। यह लोग बर्फ पर बिना पहियों वाली गाड़ी “स्लेज” जो कि कुत्तों द्वारा खींची जाती है। परिवहन के लिए प्रयोग करते हैं यह लोग बर्फ के टुकड़ों से निर्मित घर जिन्हें “इग्लू”(igloo) कहते हैं, में निवास करते हैं।

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