इल्बर्ट बिल भारतीय जजों के साथ होने वाले भेदभाव/अन्याय को दूर करने की भावना से एक विधेयक सर पी.सी. इलबर्ट द्वारा प्रस्तुत किया गया जिसे “इल्बर्ट बिल” की संज्ञा दी जाती है।
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भारत में 1861 से समस्त क्षेत्र में एक समान फौजदारी कानून लागू कर दिया गया था। इसी तहत सभी प्रान्तों में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी।
सन 1861 से पूर्व देश में दो प्रकार के कानून थे। एक प्रेसीडेंसी नगरों के लिए अंग्रेजी कानून तथा दूसरा ग्रामीण क्षेत्रों में मुगल कानून लागू था। उस समय के नीति निर्धारकों का विचार रहा कि यूरोपीय लोगों को मुगल कानून के अंतर्गत लाना उचित नहीं। कालांतर में इसने एक प्रथा का रूप धारण किया। जिसमें प्रेसीडेंसी नगरों के भारतीय दंड नायक (मजिस्ट्रेट) तथा सेशन जज भारतीय तथा यूरोपीय दोनों व्यक्तियों के मुकदमों की सुनवाई कर सकते थे। कहने का आशय है, कि उस समय प्रेसीडेंसी नगरों के न्यायालय में कोई भी भारतीय जज नहीं होते थे। दूसरी तरफ ग्रामीण प्रदेशों के न्यायालयों में भारतीय तथा यूरोपीय दोनों प्रकार के जज होते थे। परंतु यूरोपीय अभियुक्तों का मुकदमा केवल यूरोपीय जज ही सुनता था। यह नियम केवल फौजदारी मामलों पर लागू था। परंतु दीवानी मामलों पर ऐसा भेदभाव नहीं था।
विवाद का मुख्य कारण था। 1972 में तीन भारतीय न्यायिक सेवा में चयनित हुए तथा 1882 में उनकी पदोन्नति की गई तब वह प्रेसीडेंसी नगर कोलकाता से बाहर भेज दिए गए, जहां यूरोपीय अभियुक्तों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। इसी कारण पदोन्नति हुई भारतीय जज श्री बिहारी लाल गुप्ता ने बंगाल के उप गवर्नर सर इशले ईंडन को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने अपने पदोन्नति होने पर अधिकारों में कमी होने को न्याय संगत नहीं होना बताया तथा भारतीय और यूरोपीय पदाधिकारी में तो इस भेदभाव से न्यायाधीशों की शक्तियां नष्ट होती है।
सर पी.सी. इल्बर्ट एक न्याय में विश्वास करने वाले व्यक्ति थे। अतः वह भारतीयों को न्याय दिलाने के पक्षधर थे। इस समय वायसराय की परिषद में एक विधि सदस्य थे। इसलिए उन्होंने भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से 2 फरवरी 1883 को विधान परिषद में एक विधेयक प्रस्तुत किया। इसी विधेयक को उनके नाम पर “इल्बर्ट बिल” कहा गया।
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इल्बर्ट बिल का प्रमुख उद्देश्य भारतीय न्यायधीशों को यूरोपीय में न्यायाधीशों के समान शक्तियां प्रदान करना था। और काले- गोरे जाति भेद पर आधारित सभी न्यायिक अयोग्यताएं समाप्त करके यूरोपीय न्यायधीशों की भांति भारतीय न्यायाधीशों को सामान शक्तियां प्रदान की जाए।
इस बिल का विरोध बड़े-बड़े उद्यानों वाले यूरोपीय मालिकों द्वारा प्रमुखता से किया गया। क्योंकि इन मालिकों द्वारा भारतीय मजदूर पर बर्बरता का व्यवहार किया जाता था ।और उनसे कठोर परिश्रम कराया जाता था। यदि मजदूर कार्य करने में असमर्थता व्यक्त करता तो उसे बेरहमी से पीटा जाता था। कभी-कभी तो पीटते-पीटते उनकी मृत्यु तक हो जाती थी। इस प्रकार की हत्या का मामला न्यायालय में जाता था। तो वहां यूरोपीय न्यायाधीश ही मामले की सुनवाई करते थे और उन्हें थोड़ा दंड देकर या कभी-कभी बिना दंड के ही छोड़ देते थे लेकिन जब भारतीय न्यायाधीशों के समक्ष ऐसा मामला पहुंचा तो शायद उन्हें कठोर सजा सुनाई जा सकती थी। इसलिए इन मालिकों ने इस बिल का विरोध किया।
यूरोपीय मालिकों ने इल्बर्ट बिल के विरोध हेतु एक प्रतिरक्षण संघ (Defence association) बनाया जिसमें लगभग डेढ़ लाख रुपये चंदे के रूप में एकत्रित हुए। इस प्रकार उन्होंने प्रचार किया “कि क्यों हमारा निर्णय काले लोग करेंगे। क्या वे हमें जेल भेजेंगे क्या वह हम पर आज्ञा चलाएंगे यह मालिकों द्वारा मानना असंभव है” उन्होंने यहां तक कहा कि भारत में अंग्रेजी शासन समाप्त हो जाए लेकिन वह इस घृणित कानून को नहीं मानेंगे।
विरोध इतना प्रचंड था। कि कुछ यूरोपीय ने वायसराय को बंदी बनाकर इंग्लैंड भेजने की साजिश रची। गालियां दी गई तथा कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही वायसराय को वापस बुला लिया जाए इसकी मांग कर दी। विरोध का असर इंग्लैंड में भी दिखने लगा क्योंकि लंदन के प्रसिद्ध समाचार पत्र द टाइम्स ने भी वायसराय रिपन की नीतियों की आलोचना की। महारानी विक्टोरिया ने वायसराय के इस बिल के प्रति व्यवहार पर संदेह व्यक्त किया।
अंततः रिपन को झुकना पड़ा और 26 जनवरी 1884 को नया विधेयक पारित किया गया। जिसमें नियम बनाया गया कि यदि यूरोपीय व्यक्तियों का मुकदमा सेशन जजों के समक्ष आए तो वे लोग 12 सदस्यों की पीठ की मांग कर सकते हैं। जिसमें कम से कम सात यूरोपीय//अमेरिकी जज होना अनिवार्य होगा ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार जजों की पीठ गठित करना संभव नहीं था। इसलिए यह मुकदमे हस्तांतरित करना होता था।