लघु संविधान किसे कहते है|स्वर्ण सिंह समिति|एस के धर आयोग

प्यारे दोस्तों आज हम इस लेख में संविधान के बारे में महत्वपूर्ण तथ्यों को पढ़ेंगे,जिसमें लघु संविधान किसे कहते हैं, स्वर्ण सिंह समिति, एस के धर आयोग, आदि विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण तथ्यों को वन लाइनर के रूप में पढ़ेगे |

-42 वे  संविधान संशोधन अधिनियम (1976) को “मिनी कॉन्स्टिट्यूशन” कहा जाता है।

और पढ़े :-भारतीय संविधान (महत्वपूर्ण तथ्य )

-केशवानंद भारती मामला (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि (अनुच्छेद 368) संविधान संशोधन मूल ढांचे में कोई बदलाव की अनुमति नहीं।

-भारत राज्यों का संघ है।

-मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर कोई व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है।

राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 20-21) में प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है।

-मौलिक कर्तव्यों को स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के द्वारा 42वें संविधान संशोधन 1976 में शामिल किया गया।

-2002 के 86 में संविधान संशोधन के माध्यम से एक नए मौलिक कर्तव्य को जोड़ा गया।
धर्मनिरपेक्ष शब्द 1976 के 42 वे संविधान संशोधन में जोड़ा गया।

-61 में संविधान संशोधन अधिनियम 1988 के तहत वर्ष 1989 में मतदान करने की उम्र 21 वर्ष से घटकर 18 वर्ष कर दी गई।

-भारतीय संविधान में कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना भी करता है जैसे निर्वाचन आयोग (अनुच्छेद 324) नियंत्रण एवं महालेखाकार (अनुच्छेद 148) संघ लोक सेवा आयोग एवं राज्य लोक सेवा आयोग (अनुच्छेद 315)।

-वर्ष 1992 में 73 वे एवं 74 में संविधान संशोधन के तहत तीन स्तरीय स्थानीय सरकार का प्रावधान किया गया जो भारतीय संविधान के अलावा विश्व के किसी भी संविधान में नहीं है।

-73वें संविधान संशोधन 1992 के तहत पंचायत को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई।

-97 वे संविधान संशोधन 2011 के द्वारा सरकारी समितियां को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

-भारतीय संविधान की आलोचना में इसे उधार का संविधान, उधारी की एक बोरी, हांच-पांच  कॉन्स्टिट्यूशन, पैबंध गिरी आदि कहा गया।

-प्रस्तावना को सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान में सम्मिलित किया गया था।

एन ए पालकी वाला ने प्रस्तावना को “संविधान का परिचय पत्र कहा”

-42वे  संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में समाजवादी धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्दों सम्मिलित किए गए।

-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित सामाजिक आर्थिकराजनीतिक न्याय के तत्वों को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है।

-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता क्षमता और बंधुत्व के आदर्शों को फ्रांस की क्रांति (1789- 1799) से लिया गया है।

-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समता के तीन आयाम शामिल है नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक।
बेरुबाडी संघ मामले (1960) में उच्चतम न्यायालय ने कहा की प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।
केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय ने पुनः स्पष्ट किया की प्रस्तावना संविधान का आंतरिक हिस्सा है।

-भारत को “विभक्ति राज्यों का अभिभाज्य संघ” कहा गया है।

-अमेरिका को “अविभाज्य राज्यों का अभिभाज्य संघ” कहा गया है।

-संविधान संसद को यह अधिकार प्रदान करता है, कि वह नए राज्य बनाने, नाम परिवर्तन, सीमा परिवर्तन करने में राज्यों की अनुमति की आवश्यकता नहीं है| अर्थात यह साधारण बहुमत और साधारण विधायी प्रक्रिया  के द्वारा पारित किया जा सकता है| अर्थात या प्रक्रिया अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन नहीं माना जाएगा।

-भारतीय क्षेत्र के अन्य देश को देने में अनुच्छेद 368 में संशोधन विशेष बहुमत से संसद द्वारा किया जा सकता है।

-552 देशी रियासतें भारत की सीमा में थी जिनमें 549 रियासतें भारत में शामिल हो गई थी।
हैदराबाद जूनागढ़ और कश्मीर रियासतों ने भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया लेकिन बाद में हैदराबाद को पुलिस कार्रवाई द्वारा जूनागढ़ को जनमत द्वारा कश्मीर को विलय पत्र के द्वारा भारत में शामिल कर लिया गया।

-जून 1948 में एस के धर आयोग का गठन किसने अपनी रिपोर्ट दिसंबर 1948 में पेश की जिसमें राज्यों का पुनर्गठन भाषा ही आधार पर न करके प्रशासनिक सुविधा के अनुसार होना चाहिए।

-धर आयोग की रिपोर्ट को अत्यधिक विद्रोह होने पर दिसंबर 1948 में जवाहरलाल नेहरू वल्लभभाई पटेल पत्ता भी सीता रमैया को शामिल कर जेपी समिति का गठन किया गया किसने अप्रैल 1949 में रिपोर्ट पेश की जिसमें राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हो अस्वीकार कर दिया।

-कांग्रेसी कार्यकर्ता पोट्टी श्री रामलू की 56 दिन की भूख हड़ताल से मृत्यु होने पर अक्टूबर 1953 में मद्रास से तेलुगु भाषा क्षेत्र से आंध्र प्रदेश का गठन किया गया।

-दिसंबर 1953 में फजल अली की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया गया इसके अन्य दो सदस्य के.ऍम.पणिक्कर और एच एन कुंजूरू थे | 1955 में अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें राज्यों के पुनर्गठन में को मुख्य आधार बनाया जाना चाहिए लेकिन इसने “एक राज्य एक भाषा” के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया।

-वर्ष 1960 में मुंबई को बांटकर  महाराष्ट्र और गुजरात दो नए राज्य बने अर्थात गुजरात भारतीय संघ का 15 वां राज्य बना।

दसवीं संविधान संशोधन अधिनियम 1961 द्वारा दादरा एवं नगर हवेली को संघ शासित क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया गया।

-भारत में पुडुचेरी, कराईकाल, माहे यनम 14 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1962 में संघ शासित प्रदेश बनाया गया।

-1963 में नागालैंड 16वां राज्य बना।

-1966 में हरियाणा 17वां राज्य व चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश का गठन किया गया।

-1971 में हिमाचल प्रदेश 18 राज्य बना पहले केंद्र शासित राज्य था। पूर्ण राज्य बना।

भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं|जलोढ़,लैटराइट,लाल,काली,मरुस्थलीय मिट्टियां

भारतीय मृदा के प्रकार

हेलो दोस्तों आज हम लोग इस लेख में भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं (Indian soil types and characteristics) पढ़ेगे और विश्लेषण करेंगे| कृषि प्रधान हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों में मृदा एक बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन है। पौधों के विकास में सहायक महीन कण युक्त और ह्ममस वाले मेंटल के ऊपरी परत के भुरभुरे पदार्थ को मृदा कहते हैं।

मृदा शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द सोलन से हुई मानी जाती है। जिसका अर्थ फर्श होता है। प्राकृतिक रूप से मौजूद मृदा पर कई कारकों का प्रभाव होता है। जैसे मूल पदार्थ, धरातलीय दशा, वनस्पति प्राकृतिक जलवायु, समय, उच्चावच, आदि। समय-समय पर शोधकर्ताओं ने मिट्टी के प्रकारों का विभाजन किया है। लेकिन वर्तमान समय में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भारतीय मृदा को 10 रूपों में वर्गीकृत किया है।

भारतीय मृदा के प्रकार

भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं:-

जलोढ़ मृदा या कछार मिट्टी(Alluvial soil):-

भारतीय मृदा के प्रकार में जलोढ़ मृदा मुख्यतः गंगा सतलज ब्रह्मपुत्र के मैदाने में पाई जाती है इसका क्षेत्रफल लगभग 43.4% है। जो भारत में पाई जाने वाली अन्य मृदाओं में सबसे अधिक है। इसका विस्तार लगभग 142.50 मिलियन वर्ग किलोमीटर में है। यह नर्मदा तथा तापी नदी घाटियों पश्चिमी तथा पूर्वी घाटों तथा गिरीपाद मैदानो में पाई जाती है। इसका रंग हल्के भूरे रंग का होता है। यह बलुआ व से मिश्रित होती है। इसको दो प्रकार में बांटा जा सकता है।

भारतीय मृदा के प्रकार

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बांगर/ भांगर मृदा:-

इस प्रकार की मृदा का रंग काला या बुरा होता है। इसमें अशुद्ध कैल्शियम कार्बोनेट व कंकर होते हैं। इस मिट्टी का विस्तार नदियों के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में होता है। जिससे प्रत्येक वर्ष यहां की परत नई मिट्टी द्वारा निर्मित होती है। इस प्रकार की मृदा में ह्यूमस, चूना, फास्फोरिक अम्ल तथा जैविक पदार्थ की अधिकता होती है। लेकिन पोटाश कम मात्रा में उपलब्ध होता है। इस मृदा में गेहूं, चावल, मक्का, चारा, तिलहन सब्जियां आदि की पैदावार अच्छी होती है।

खादर:-

यह मृदा बांगर मृदा से लगभग 30 मीटर नीचे गहराई में मिलती है। वर्षा काल में नदियों में बाढ़ आने के कारण इसकी ऊपरी परत नई बन जा बनी रहती है जिससे बाहर द्वारा लाई गई मिट्टी से इसकी उर्वरा शक्ति बनी रहती है। इस मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण पाए जाने के कारण इसे स्थानीय भाषाओं में रेह( Reh) कल्लर(kallar) या धुर(thus) कहा जाता है।

लाल मृदा (Red soil):-

लाल मृदा बालू, चिकनी तथा दोमट मिट्टी का मिश्रण है। यह भारत के लगभग 18.6 % भाग (61 मिलियन हेक्टेयर) पर विस्तृत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारतीय मृदा के प्रकार में पाई जाने वाली मृदाओं में दूसरे स्थान पर है। यह मुख्यतः प्रायद्वीपीय क्षेत्र तमिलनाडु, बुंदेलखंड, राजस्थान, काठियावाड़, कच्छ (गुजरात) कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड, मिर्जापुर, सोनभद्र आदि स्थानों में पाई जाती है।

इस मृदा का रंग लाल होता है। जो फेरिक ऑक्साइड के कारण होता है। इस मृदा की ऊपरी परत लाल तथा इसकी निकली परत में पीले रंग का अवक्षेप होता है। यह मिट्टी अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है। इसमें कंकड़ और कार्बोनेट तथा कुछ मात्रा में लवण होते हैं। चूने, फास्फेट, मैग्नीशिया, नाइट्रोजन, ह्यूमस एवं पोटाश आदि अल्प मात्रा में पाए जाते हैं। परंतु निम्न मैदानी भागों में यह मृदा उर्वर, दोमट होती है। तथा इसका रंग गाढ़ा होता है। इस मृदा में मुख्यतः गेहूं, कपास, दलहनों, तंबाकू मिलेट, तिलहनों, आलू एवं फलों की खेती की जाती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

काली मृदा(Black soil):-

क्षेत्रफल की दृष्टि से यह मिट्टी भारत में तीसरे नंबर पर आती है। इसको रेंगुर मिट्टी, कपासी मिट्टी तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चेर्नोजेम आदि नाम से जाना जाता है। इस मृदा का विस्तार भारत में लगभग 50 मिलियन हेक्टेयर में है। जो सभी प्रकार की मृदाओं का लगभग 15% है। इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी लावा के अपरदन के द्वारा हुआ है। जो मुख्यत क्रिटेसस युगीन अपक्षयित लावा रहा होगा। मैग्नेटाइट, एल्युमिनियम सिलीकेट, लोहा, ह्यूमस आदि की उपस्थिति के कारण इसका रंग काला हो जाता है।

यह मृदा गीली होने पर चिपकने वाली हो जाती है। तथा सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसलिए इस मिट्टी को स्वतः कृष्य मिट्टी भी कहा जाता है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस और जैविक पदार्थों की कमी पाई जाती है। गीली होने पर इसमें जुताई करना अत्यधिक कठिन हो जाता है। यह मृदा काफी उर्वर होती है। जिसमें कपास, दलहनों, मिलेट, अलसी अरंडी, तंबाकू, गन्ना, सब्जियां, नींबू आदि की खेती के लिए उपयुक्त है। यह मिट्टी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में विस्तृत है।

भारतीय मृदा के प्रकार

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मरुस्थलीय मृदा(Desert soil):-

इस प्रकार की मृदा देश की मृदा का लगभग 4% है। जिसका क्षेत्रफल लगभग 15 मिलियन हेक्टेयर है। यह मृदा मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, दक्षिणी हरियाणा, अरावली पर्वत के निकटवर्ती क्षेत्र में पाई जाती है।

मरुस्थलीय मृदा में जैविक पदार्थ की कमी और नाइट्रोजन एवं कैल्शियम कार्बोनेट की विधि प्रतिशतता पाई जाती है। इस प्रकार की मिट्टी में आद्रता और नमी को धारण करने की क्षमता कम होती है। इस मिट्टी में घुलनशील लवणों की मात्रा अधिक होती है। इंदिरा नहर से प्राप्त जल द्वारा पश्चिमी राजस्थान की मिट्टियों का कायापलट हुआ है। इस प्रकार की मिट्टी में मुख्ता बाजरा, ग्वार, दलहनों, चारे आदि फसलों की खेती की जाती है। इन फसलों में पानी की न्यून आवश्यकता होती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

लैटराइट मिट्टी(Laterite soil):- 

लैटराइट मिट्टी का नामकरण लैटिन भाषा के शब्द लैटर से हुआ है। जिसका अर्थ ईट होता है। यह मिट्टी भीगी हुई स्थिति में काफी मुलायम होती है लेकिन सूखने पर यह इतनी कड़ी हो जाती है कि ईट के समान हो जाती है। इस प्रकार की मिट्टी मानसूनी जलवायु तथा मौसमी वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाती है। इन मृदाओं का निर्माण आर्द्र एवं शुष्क ऋतुओं की बारंबारता से सिलिकामय पदार्थों के निक्षालन के परिणाम स्वरुप हुआ है। इस प्रकार की मिट्टी में ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण इसका रंग लाल होता है। इस मिट्टी का विकास मुख्यतः पठार के उच्च भागों में हुआ है।

इस मिट्टी का विस्तार भारत में लगभग 12.2 मिलियन हेक्टेयर है। यह भारत की समस्त मृदाओं की 3.7 प्रतिशत है। इस प्रकार की मृदा मुख्यतः पश्चिमी घाट की पहाड़ियों, राजमहल की पहाड़ियों, पूर्वी घाट, सतपुड़ा, विंध्य, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम की उत्तरी पहाड़ियों, मेघालय की गारो पहाड़ियों में पाई जाती है। इस मृदा में लोहे और एल्युमिनियम की प्रचुरता होती है, वहीं इसमें नाइट्रोजन, पोटेशियम, पोटाश, चूना और जैविक पदार्थों की न्यूनता होती है। हालांकि उनकी उर्वरकता निम्न होती है। इनमें चावल, रागी गन्ने और काजू की खेती होती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

पर्वतीय मृदा(Mauntein soil):-

इस प्रकार की मृदा हिमालय की घाटियों में ढलानों पर लगभग 2700 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर पाई जाती है। भारत के लगभग 18.2 मिलियन हेक्टर क्षेत्रफल में फैली है। समस्त मृदा में इसका लगभग 5.5% भाग है यह मिट्टी अप्रौढ़ है तथा इनका क्रमबद्ध अध्ययन अभी बाकी है। इस प्रकार की मृदा का रंग भूरा होता है।

यह मिट्टी दार्जिलिंग, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, लद्दाख आदि क्षेत्रों में पाई जाती है। यहां देवदार, नीले चीड़ के वृक्ष अधिकता में पाए जाते हैं। इस मिट्टी का चरित्र अम्लीय होता है इसमें ह्यूमस की निम्नता पाई जाती है। इन मृदाओं में चावल, मक्का, फलों एवं चारे की खेती की जाती है। वनाच्छादन के कारण ढाल एवं वर्षा की मात्रा के आधार पर उच्च स्थानीय मृदाओं को भूरी एवं लाल मृदा कहा जाता है।

भारतीय मृदा के प्रकार

उपरोक्त भारतीय मृदा के प्रकार में जलोढ़, लैटराइट, काली, लाल, मरुस्थलीय, पर्वतीय मिट्टी आदि का अध्ययन में प्रकार और विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्त की गई।

ज्वालामुखी किसे कहते है |प्रकार |सक्रिय,शांत,मृत,शील्ड ज्वालमुखी|ज्वालामुखी के अंग

ज्वालामुखी किसे कहते है

 

दोस्तों आज हम लोग इस लेख में ज्वालामुखी के बारे में अध्ययन करेंगे जिसमें ज्वालामुखी किसे कहते हैं। ज्वालामुखी की परिभाषा, ज्वालामुखी के प्रकार, ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ, लावा मैग्मा में अंतर, शांत, सक्रिय, मृत, शील्ड ज्वालामुखी। ज्वालामुखी कैसे फटता है, ज्वालामुखी के अंग, ज्वालामुखी का विश्व वितरण, विश्व के प्रमुख ज्वालामुखी, भारत के प्रमुख ज्वालामुखी, ज्वालामुखी शंकु की आकृति के बारे में विस्तृत अध्ययन करेंगे।

      ज्वालामुखी किसे कहते है      

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ज्वालामुखी(VALCANO)

ज्वालामुखी पृथ्वी पर एक विवर या छिद्र (opening)अथवा दरार (Repture) है जिसका संबंध पृथ्वी के आंतरिक भाग से पिघला पदार्थ लावा ,राख, गैस व जलवाष्प का उद्गार होता है। ज्वालामुखी क्रिया में पृथ्वी के अंदर से निकले मैग्मा जो कि पृथ्वी के अंदर विभिन्न रूपों में ठंडा हो जाता है। तथा कभी-कभी धरातल पर भी आ जाता है, और ठंडा होकर यह एक रूप धारण कर लेता है।

ज्वालामुखी क्रिया दो रूपों में संपन्न होती है 1

भूगर्भ में /धरातल के नीचे:-

जब ज्वालामुखी का मैग्मा पृथ्वी से बाहर नहीं निकल पाता है। तो वह पृथ्वी के आंतरिक भाग में ही ठंडा होकर जम जाता है इसके फलस्वरुप पृथ्वी के आंतरिक भाग में विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। जो निम्नलिखित है:-

बैथोलिथ(Batholith):-

चट्टानों में जब मैग्मा गुंबदनुमा आकार में जम जाता है। जो कि ठंडा होने की मंदगति होने के कारण बड़े-बड़े रवों के आकार में प्रदर्शित होता है। इस प्रकार से निर्मित चट्टानें ग्रेनाइट प्रकार की होती हैं। इस प्रकार की चट्टानें अपेक्षाकृत अधिक गहराई में निर्मित होती हैं। जब यही मैग्मा अवसादी चट्टानों में अपेक्षाकृत कम गहराई में ठंडा होता है, तो इससे कई प्रकार की स्थलाकृतियां का निर्माण होता है:-

लैकोलिथ(Laccolith):-

जब मैग्मा पृथ्वी के अंदर उत्तल ढ़ाल के आकार में जम जाता है जिसके फल स्वरुप जो आकृति बनती है। उसे लैकोलिथ कहा जाता

लैपोलिथ(Lapolith):-

जब लावा का जमाव अवतल बेसिन के आकार में होता है जिसके फल स्वरुप जो आकृति का निर्माण होता है। उसे लोपोलिथ कहा जाता है।

फैकोलिथ(Phacolith):-

जब लावा का जमाव मोड़दार पर्वतों के अभिनतियो व अपनतियों में अभ्यांतरिक होता है। जिसके कारण बनने वाली आकृति को फैकोलिथ कहा जाता है।

सिल(Sill):-

जब लावा का जमाव क्षैतिज रूप में होता है। तो जो आकृति बनती है उसे सील कहते हैं इसी सिल की पतली परत को शीट कहा जाता है।

डायक(Dayke):-

जब लावा का जमाव लंबवत रूप में होता है। तो जो आकृति बनती है उसे डायक कहते हैं। और डायक के छोटे-छोटे रूप को स्टॉक कहा जाता है।

धरातल के ऊपर:-

इसके अंतर्गत ज्वालामुखी धरातलीय प्रवाह, गर्म जल के स्रोत, गेंसर, धुआंरे आदि आते है।
जब ज्वालामुखी में विस्फोट होता है। और लावा धरातल के ऊपर निकलता है। जिसके फलस्वरुप विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। और इन्हीं आकृतियों के बाहरी भाग पर शंकु का निर्माण होता है। इन्हीं शंकु में ऊपर क्रेटर और काल्डेरा आकृतियों का निर्माण होता है। ज्वालामुखी से निकलने वाले लावा की घटती तीव्रता के आधार पर ज्वालामुखी शंकुओ को निम्नलिखित प्रकारों में बांटा जाता है:-
पीलियन तुल्य
वल्कैनो तुल्य
स्ट्रांबोली तुल्य
हवाईयन तुल्य

पिलियन तुल्य:-

पिलियन तुल्य ज्वालामुखी सबसे विनाशकारी होते हैं। क्योंकि मैग्मा में सिलिका की अधिक मात्रा होने के कारण मैग्मा अत्यधिक अम्लीय और चिपचिपा हो जाता है। जो कि विस्फोट के बाद शंकु पर कठोरता से जम जाता है। इसी कारण अगला विस्फोट इसी जमे लावा को तोड़ते हुए बाहर निकालने के कारण विनाशकारी विस्फोट में तब्दील हो जाता है। जैसे-
पीली (PELEE)ज्वालामुखी………मार्टीनिक द्वीप
क्राकाटाओ -……………………जावा सुमात्रा
माउंट ताल-……………………..फिलिपींस

वल्केनो तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी अपेक्षाकृत कम विनाशकारी होते हैं। क्योंकि इसमें अम्लीय क्षारीय दोनों प्रकार का मैग्मा निकलता है। इसके साथ-साथ अत्यधिक मात्रा में गैस का उद्धार होता है। जिससे दूर-दूर तक ज्वालामुखी मेंघो का निर्माण होता है। इसकी संरचना फूल गोभी के आकार में प्रदर्शित होती है।

स्ट्राम्बोली तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी के लावा में अम्ल की मात्रा कम होती है। जिससे लावा में कठोरता या चिपचिपापन नहीं होता है। यदि इससे उत्सर्जित गैसों के मार्ग में कोई रुकावट ना हो तो इसमें विस्फोट की संभावना न के बराबर होती है।

हवाई तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी का मैग्मा क्षारीय व तरल होता है। तरल होने के कारण मैग्मा दूर-दूर तक फैल जाता है। जिससे शंकु की ऊंचाई कम रहती है। और शंकु की चौड़ाई अधिक होती है। फलस्वरुप इस प्रकार के ज्वालामुखी का उद्गार अत्यंत शांत होता है।

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ज्वालामुखी के प्रकार:-

ज्वालामुखियों को निम्नलिखित आधारों पर बनता जा सकता है।

सक्रियता के आधार पर:-
1- सक्रिय ज्वालामुखी(Active Valcano):-

इस प्रकार के ज्वालामुखी से सदैव लावा, धूल, धुआं, वाष्प, राख व गैसों का उद्धार होता रहता है। वर्तमान में संपूर्ण पृथ्वी पर इस प्रकार के ज्वालामुखियों की संख्या 500 से अधिक है। भारत का एकमात्र ज्वालामुखी जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह के बैरन द्वीप में स्थित है। सक्रिय ज्वालामुखी की श्रेणी में आता है।

ज्वालामुखी किसे कहते है
विश्व के प्रमुख सक्रिय ज्वालामुखी:-

स्ट्रांबोली (भूमध्य सागर का प्रकाश स्तंभ)-…………………लिपारी द्वीप सिसली।
एटना-……………………………………. …………इटली
कोटोपैक्सी (विश्व का सबसे ऊंचा सक्रिय ज्वालामुखी)… ………इक्वाडोर
माउंट एर्बुश (अंटार्कटिका का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी)- …….अंटार्कटिक
बैरन द्वीप (भारत का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी)- ……………अंडमान निकोबार भारत
कियालू -……………………………………………….हवाई द्वीप (USA)
लांगिला एवं बागाना – ……………………पापुआ न्यू गिनी समेरू- जावा इंडोनेशिया
मेरापी (सर्वाधिक सक्रिय)- ………………..इंडोनेशिया दुकोनो- इंडोनेशिया
यासुर -…………………………………तान्ना द्वीप (वनुआतू)
मौनोलोवा -……………………………..हवाई द्वीप (USA)
ओजल डेल सालाडो- ……………………..अर्जेंटीना 

2- प्रसुप्त ज्वालामुखी (Dormant valcano)

जिन ज्वालामुखियों में वर्षों से विस्फोट या लावा उद्गार नहीं हुआ है। परंतु इस प्रकार की ज्वालामुखी में भविष्य में कभी भी उद्गार होने की संभावना बनी है। प्रसुप्त ज्वालामुखी कहते हैं। जैसे:-
विसुवियस-………………………………. इटली
फ्यूजीयामा- ……………………………….जापान
क्राकाटाओ-………………………………..इंडोनेशिया
नारकोंडम द्वीप में- …………………………..अंडमान निकोबार (भारत)

ज्वालामुखी किसे कहते है
3-शांत ज्वालामुखी(Extinet Volcano):-

इस प्रकार के ज्वालामुखी में अतीत में कभी उद्गार नहीं हुआ है। और न भविष्य में उद्गार होने की संभावना है।
कोह सुल्तान -……………. ईरान
देवबंद – ………………….ईरान
किलिमंजारो- ……………..तांजानिया
पोपा-…………………… म्यांमार
एकांक गुआ -……………. इंडीज पर्वत श्रेणी
चिंम्बराजो- ……………….इक्वाडोर
केनिया – …………………अफ्रीका

ज्वालामुखी किसे कहते है
उद्गार के आधार पर:-

उद्गार के आधार पर ज्वालामुखियों को दो भागों में बांटा जा सकता है।

केंद्रीय उद्भेदन:-

इस प्रकार का उद्भेदन विनाशात्मक प्लेटों के किनारो के सहारे होता है। और एक केंद्रीय मुख के द्वारा भयंकर विस्फोट के साथ लावा का उद्भेदन होता है।
पीली ज्वालामुखी-…………………….. पश्चिमी द्वीप
क्राकाटोवा ज्वालामुखी -………………….सुण्डा (जावा सुमात्रा )
माउंट ताल- ……………………………फिलीपाइन

दरारी उद्भेदन:-

इस प्रकार का उद्भेदन रचनात्मक प्लेटों के किनारों से होता है। भूगार्भिक हलचलों के कारण भूपर्पटी की शैलों में दरारें बन जाती हैं। इन्हीं दरारों से लावा प्रवाहित होकर धरातल पर प्रवाहित होकर निकलता है। इसी निकले लावा के कारण पठारों का निर्माण हुआ है।

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 ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ:-

ज्वालामुखी से उद्गमित होने वाले पदार्थों को तीन भागों में बांटा जा सकता है:-

गैस तथा जलवाष्प:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय सबसे पहले गैसे और जलवाष्प बाहर आता है। निकलने वाले पदार्थ में सबसे अधिक जलवाष्प लगभग 60 से 90% होती है। इसके साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड नाइट्रोजन तथा सल्फर डाइऑक्साइड निकलने वाली प्रमुख गैसें हैं।

विखंडित पदार्थ:-

टफ:-

यह मूलतः धूल और राख से निर्मित चट्टानों के टुकड़े होते हैं।

प्यूमिस:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले छोटे-छोटे चट्टानी टुकड़े जिनका घनत्व बहुत कम होता है। इसलिए यह पानी पर तैरते रहते हैं प्यूमिस कहलाते हैं।

लैपिली:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले मटर /अखरोट के समान आकार वाले टुकड़ों को लैपिली कहते हैं।

बाम्ब:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ में छोटे-बड़े चट्टानी टुकड़ों को बाम्म कहते हैं। जिनका व्यास कुछ सेंटीमीटर से लेकर फीट तक होता है।

ब्रेसिया:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले नुकीले अपेक्षाकृत बड़े आकार के चट्टानी टुकड़ों को ब्रेसिया कहा जाता है।

लावा:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय निकालने वाला चिपचिपा द्रव पदार्थ लव कहलाता है।
अम्ल की अधिकता के कारण लावा का रंग पीला हल्का गाढ़ा होता है।
क्षार की अधिकता के कारण लावा का रंग गहरा काला, भारी तथा द्रव के समान होता है।

पायरोक्लास्ट:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय सर्वप्रथम भूपटल पर चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़े बाहर निकलते हैं। इन्हीं टुकड़ों को पायरोक्लास्ट कहते हैं। इनके पहले निकलने के कारण ज्वालामुखी पर्वतों की निचली परत में पायरोक्लास्ट पाए जाते हैं।

लावा तथा मैग्मा में अंतर:-

ज्वालामुखी विस्फोट के समय निकलने वाला द्रव पदार्थ जब तक पृथ्वी के आंतरिक भाग अर्थात भूगर्भ में रहता है। तब तक उसे मैग्मा कहा जाता है। जब यही मैग्मा पृथ्वी की सतह पर आ जाता है। तो इसे लावा कहा जाता है।

ज्वालामुखी के अंग:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाला लावा विस्फोटित स्थान के आसपास जमा होने लगता है। जिसके परिणाम स्वरुप एक शंकु नुमा आकृति का निर्माण होता है। उसे ज्वालामुखी शंकु कहते हैं। ज्वालामुखी शंकु के आसपास लावा अधिक मात्रा में एकत्रित होने पर पर्वत का रूप धारण कर लेता है। तब इसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। इन पर्वतों के ऊपर बीचो-बीच में गर्तनुमा आकृति का निर्माण होता है। उसे ज्वालामुखी छिद्र कहते हैं। इस ज्वालामुखी छिद्र से नली के रूप में भूगर्भ से संपर्क होने वाली आकृति को ज्वालामुखी नली कहते हैं।

ज्वालामुखी किसे कहते है
                        क्रेटर:-

ज्वालामुखी शंकु के ऊपर कीपनुमा रचना को क्रेटर कहते हैं। जब इस क्रेटर में पानी भर जाता है। तो इसे क्रेटर झील कहा जाता है। लोनार झील जो महाराष्ट्र (भारत) में स्थित है। क्रेटर झील का उदाहरण है।
जब ज्वालामुखी में पूर्व में हुए उद्गार से अगला उद्गार कम तीव्रता का होता है। तो मुख्य क्रेटर के ऊपर छोटे-छोटे क्रिएटरों का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार की रचना को घोषलाकार क्रेटर कहते हैं। माउंट ताल फिलिपींस इसका उदाहरण है।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना|सियाल(SiAl)|सीमा(SiMa)|निफे(NiFe)|

 

दोस्तों आज हम लोग इस आर्टिकल में सौरमंडल का अकेला ग्रह जिस पर जीवन है। अर्थात आज हम लोग पृथ्वी की आंतरिक संरचना को अप्राकृतिक साधन घनत्व, दबाव ,तापमान तथा पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांतों के साथ और प्राकृतिक साधनों में ज्वालामुखी क्रिया, भूकंप विज्ञान के साथ और पृथ्वी की विभिन्न परतो के संगठन के आधार पर सियाल(SiAl), सीमा(SiMa), निफे(NiFe) के बारे में विस्तृत चर्चा करके पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में जानने की कोशिश करेंगे।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना

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पृथ्वी की आंतरिक संरचना/नीला ग्रह (जल की अधिकता के कारण )

A-अप्राकृतिक साधन (artificial sources):-
1-घनत्व:-

घनत्व के आधार पर यदि पृथ्वी की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया जाए। तो सबसे आंतरिक भाग का घनत्व लगभग 11 से 13.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है तथा मध्य परत का घनत्व लगभग 5.0 और बाहरी परत अर्थात भू-पर्पटी का घनत्व लगभग 3.0 है। उपरोक्त के क्रम में यदि पृथ्वी का औसत घनत्व देखा जाए तो 5.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है अर्थात पृथ्वी की आंतरिक संरचना में घनत्व के आधार पर कई परते निर्मित है। इन परतों में आंतरिक परत अर्थात क्रोड का घनत्व सबसे अधिक है ।

2-दबाव:-

पृथ्वी के आंतरिक भाग अर्थात क्रोड के अधिक घनत्व के बारे में चट्टानों के दबाव व भार के संदर्भ में समझा जा सकता है। कि दबाव बढ़ने से घनत्व बढ़ता है। लेकिन प्रत्येक चट्टान की अपनी एक सीमा होती है। जिससे अधिक उसका घनत्व नहीं हो सकता है। चाहे दवाब कितना ही क्यों न डाल दिया जाए। यद्यपि प्रयोगों से सिद्ध होता है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग के दबाव के कारण न होकर वहां पाये जाने वाले पदार्थों के अधिक घनत्व के कारण है।

3-तापमान:-

पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी उसके तापमान से भी लगाई जा सकती है सामान्य रूप से यदि पृथ्वी के अंदर 8 किलोमीटर तक गहराई में जाने पर पृथ्वी के तापमान में प्रति 32 मीटर में 1 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ जाता है। लेकिन इससे और अधिक गहराई में जाने पर तापमान में वृद्धि दर कम हो जाती है। और यह पहले 100 किलोमीटर की गहराई तक प्रत्येक किलोमीटर पर 12 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि होती है। इस गहराई के उपरांत लगभग 300 किलोमीटर की गहराई तक जाने पर 1 किलोमीटर पर 2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि होती है और इस गहराई के बाद में प्रत्येक किलोमीटर की गहराई में 1 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि होती है। पृथ्वी के आंतरिक भाग से ऊष्मा का प्रवाह बाहर की ओर होता है। जो तापीय संवहन तरंगों के रूप में प्रकट होता है। यह तरंगे रेडियो सक्रिय पदार्थ तथा गुरुत्व बल के तापीय ऊर्जा में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती हैं। प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के आने के बाद यह और भी स्पष्ट हो गया है कि तापीय संवहन तरंगों के रूप में होता है।

पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांतों के द्वारा आंतरिक संरचना का अध्ययन

टी.सी. चैंम्बरलिन के द्वारा दिए गए ग्रहाणु संकल्पना अनुसार पृथ्वी का निर्माण ठोस अणुओ के एकत्रीकरण से हुआ है। इसके कारण इसका मध्य भाग ठोस होना चाहिए।
ज्वारीय संकल्पना जो कि जेम्स जीन द्वारा दी गई है इसके द्वारा पृथ्वी का जन्म सूर्य द्वारा उत्पादित ज्वारीय पदार्थ के ठोस होने से हुई है। अतः इनका मानना है कि पृथ्वी का केंद्र द्रव अवस्था में होना चाहिए। लाप्लास के निहारिका सिद्धांत के द्वारा पृथ्वी की आंतरिक संरचना गैसीय अवस्था में होनी चाहिए। अतः उक्त विचारधाराओं के अध्ययन से पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं बन सकी है।

B-प्राकृतिक साधन(Natural sourses):-

A-ज्वालामुखी क्रिया:-

ज्वालामुखी में विस्फोट होता है। तो उसमें से जो तरल मैग्मा निकलता है। उसके आधार पर स्पष्ट होता है। कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में कोई न कोई ऐसी परत उपस्थित है। जिसकी अवस्था तरल या अर्ध्दतरल है। किंतु यह भी स्पष्ट है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में अत्यधिक दबाव चट्टानों को पिघली अवस्था में नहीं रहने देगा । इन तत्वों के आधार पर भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि पृथ्वी की आंतरिक बनावट क्या है ।

B-भूकंप विज्ञान के साक्ष्य:-

भूकंप विज्ञान में भूकंप के समय उत्पन्न होने वाली भूकंपीय लहरों का अंकन सिस्मोग्राफ (sesmograph) नामक यंत्र पर किया जाता है । इसके अध्ययन से पृथ्वी के अंदर लहरों के विचलन के आधार पर इसका अध्ययन करना संभव हो सका है । सिस्मोग्राफ एक प्रत्यक्ष साधन है जिसके द्वारा पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध हो सकी है ।

पृथ्वी का रासायनिक संगठन एवं विभिन्न परतें:-

International union of geodesy and geophysics (IUGG) के द्वारा किए गए शोध के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है जो निम्न लिखित है-

1-भू-पर्पटी (Crust):-

भूपर्पटी पृथ्वी का सबसे ऊपरी भाग होता है तथा इसकी मोटाई महाद्वीपों और महासागरों में अलग-अलग होती है। I.U.G.G. के अनुसार – महासागरों के नीचे इसकी जो औसत मोटाई लगभग 5 किलोमीटर होती है। जबकि महाद्वीपों के नीचे या लगभग 30 किलोमीटर तक होती है।
I.U.G.G. के अनुसार पी लहरों की गति और क्रस्ट के औसत घनत्व के आधार पर भू-पर्पटी को ऊपरी क्रस्ट तथा निचली क्रस्ट में बांटा जा सकता है।

ऊपरी क्रस्ट

ऊपरी क्रस्ट में “P” लहरों की गति 6.1 किमी प्रति सेकंड तथा इसका औसत घनत्व 2.8 है।

निकली क्रस्ट

निकली क्रस्ट में “P” लहरों की गति 6.9 किलोमीटर प्रति सेकंड तथा इसका घनत्व 3.0 है।

ऊपरी क्रस्ट व निकली क्रस्ट में जो घनत्व का अंतर है वह यहां उपस्थित दबाव के कारण है अतः ऊपरी एवं निकली क्रस्ट के बीच घनत्व संबंधी एक असंबद्धता का निर्माण होता है। जिसकी खोज कोरनाड ने की थी। इसलिए यह असंबद्धता कोनराड असंबद्धता कहलाती है। इस क्रस्ट का निर्माण सिलिका (Silica-Si )और एल्यूमीनियम (Aluminum -Al) से हुआ है इसलिए इसे “सियाल परत” भी कहते हैं ।
सियाल परत का निर्माण ग्रेनाइट चट्टानों द्वारा हुआ है जो कि परतदार शैलों के नीचे पाई जाती है ।

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2- मैंटल (Mantle):-

भू पर्पटी के बाद जब भूकंपीय लहरें मैंटल में पहुंचती हैं। तो इसमें प्रवेश करने से पहले भूकंपीय लहरों की गति में अचानक वृद्धि हो जाती है। और ये लहरें 7.9 किलोमीटर प्रति सेकंड से बढ़कर 8.1 किलोमीटर प्रति सेकंड तक हो जाती है। इस तरह निचली क्रस्ट तथा ऊपरी मेंटल के बीच में एक असंबद्धता का निर्माण होता है। जो कि चट्टानों के घनत्व में परिवर्तन को दर्शाती है। इस इस असंबद्धता की खोज ए.मोहोरोविकिक द्वारा की गई थी । इसलिए इस असंबद्धता को मोहो असंबद्धता कहते हैं। मोहो असंबद्धता से लगभग 2900 किलोमीटर की गहराई तक मेंटल का विस्तार है। और इस मेंटल का आयतन पृथ्वी के कुल आयतन का लगभग 83% और द्रव्यमान लगभग 68% है। मेंटल का निर्माण प्रमुखतः सिलिका(Silica-Si और मैग्नीशियम magnisium-Ma) से हुआ है। अतः से हम SiMa (सीमा)परत भी कहा जाता है। आई. यू. जी. जी.(IUGG) ने मेंटल को भूकंपीय लहरों की गति के आधार पर तीन भागों में बांटा है।

1- मोहो असंबद्धता से 200 किलोमीटर की गहराई तक का भाग।
2- 200 से 700 किलोमीटर ।
3- 700 से 2900 किलोमीटर ।

मेंटल की ऊपरी परत लगभग 100 से 200 किलोमीटर की गहराई तक भूकंपीय लहरों की गति धीमी पड़ जाती है। यह लगभग 7.8 किलोमीटर प्रति सेकंड रह जाती है इस भाग को निम्न गति का मंडल भी कहते हैं ऊपरी मैंटल और निचली मैंटल के बीच घनत्व संबंधी इस असंबद्धता को रेपिटी असंबद्धता कहते हैं।

3-क्रोड़(core):-

पृथ्वी की इस परत का विस्तार 2900 किलोमीटर से 6371 किलोमीटर तक है। अर्थात इसका पृथ्वी के केंद्र तक विस्तारित है। निचले मैंटल के आधार पर P तरंगो की गति में जो अचानक वृद्धि होती है। और यह लगभग 13.6 किलोमीटर प्रति सेकंड हो जाती है। P तरंगो की गति में अचानक से जो वृद्धि होती है, वह चट्टानों के घनत्व में परिवर्तन को दर्शाती है जिससे यहां पर एक असंबद्धता उत्पन्न होती है। इसे गुटेनबर्ग- विशार्ट असंबद्धता कहते हैं। गुटेनबर्ग असंबद्धता से लेकर पृथ्वी के केंद्र तक के भाग को दो भागों में विभाजित किया गया है:-

1-बाह्य क्रोड़़ (outer core) (2900-5150 कि.मी.)
2-आंतरिक क्रोड़ (inner core) (5150-6371 कि.मी.)

बाह्य क्रोड़ का विस्तार 2900 किलोमीटर से 5150 किलोमीटर की गहराई तक विस्तारित है इस मंडल में भूकंपीय S लहरें प्रवेश नहीं कर पाती है। आंतरिक भाग में जहां घनत्व सर्वाधिक है तुलना की दृष्टि से अधिक तरल होने के कारण P तरंगों की गति 11.23 किलोमीटर प्रति सेकंड रह जाती है। हालांकि अत्यधिक तापमान के कारण क्रोड़ को पिघली हुई अवस्था में होना चाहिए किंतु अत्यधिक दबाव के कारण यह अर्ध्दतरल या प्लास्टिक अवस्था में रहता है। क्रोड़ का आयतन पूरी पृथ्वी का मात्र 16% है। लेकिन इसका द्रव्यमान पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 32% है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह मंडल तरल अवस्था में होना प्रदर्शित करता है। 5150 से 6371 किलोमीटर की गहराई तक का भाग आंतरिक क्रोड़ के अंतर्गत आता है। जो ठोस या प्लास्टिक अवस्था में है एवं इसका घनत्व 13.6 है यहां P लहरों की गति 11.33 किलोमीटर प्रति सेकंड हो जाती है।

बाय क्रोड़ और आंतरिक क्रोड़ के बीच में पायी जाने वाली घनत्व से संबंधित असंबद्धता को लैहमेन असंबद्धता कहा जाता है इस क्रोड़ का आयतन पूरी पृथ्वी का लगभग 16% है। लेकिन इसका द्रव्यमान पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 32% है क्रोड़ के आंतरिक भागों का निर्माण निकेल और लोहा से हुआ है। इसलिए इसे निफे (NiFe) परत कहा जाता है। हालांकि इसमें सिलिकन की भी कुछ मात्रा रहती है।
नीफे (NiFe)
सीमा परत के नीचे पृथ्वी की तीसरी एवं अंतिम परत पाई जाती है इसे नीफे परत कहते हैं। क्योंकि इसकी रचना निकेल (Nickel)तथा फेरियम (Ferrium) से मिलकर हुई है। इस प्रकार यह परत कठोर धातुओं की बनी है जिस कारण इसका घनत्व अधिक है।

गुरु नानक(1469)जयंती|जन्मकथा|वाणी|दोहा|वंशज

 

नानक पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी (1469-1538) के द्वारा संगठित संप्रदाय एक व्यापक संगठन बना यह उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अस्तित्व में आया, नानक देव जी समन्वयशील, उदार प्रवृत्ति, अद्भुत संगठन शक्ति, क्षमाशीलता, दूरदर्शिता आदि गुणों से ओत-प्रोत थे। ऐसे ओजस्वी महापुरुष के जीवन से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तत्वों को इस लेख में समाहित किया गया है जिसका हम अध्ययन करेंगे।

  गुरु नानक                         

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                         गुरु नानक जयंती

27 नवंबर 2023 दिन सोमवार
गुरु नानक देव जी का जन्म दिवस प्रकाश पर्व या प्रकाश उत्सव के रूप में मनाया जाता है । इनके द्वारा सिख धर्म की नींव पंजाब में डाली गई। गुरु नानक देव जी का जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 15 अप्रैल 1469 तलवंडी राय भोई गांव में हुआ था।

          गुरु नानक देव जी की जन्म कथा 

नानक पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। इनका जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 15 अप्रैल 1969 को तलवंडी राय भोई गांव में हुआ था। बाद में इनको ननकाना साहिब के नाम से जाना जाने लगा। इनके पिता का नाम कालू जी मेहता जो कि एक पटवारी होने के साथ- साथ खेती का भी कार्य करते थे। इनकी माता का नाम श्रीमती तृप्ता देवी था। इनका विवाह बटाला निवासी मूला की कन्या सुलक्षणा देवी से 16 साल की उम्र में हो गया था। इनके दो पुत्र     श्री चंद और श्री लक्ष्मी चंद्र थे। पिता की तरह श्री चंद भी एक प्रसिद्ध साधु हुए और उन्होंने उदासी संप्रदाय का प्रवर्तन किया। इनका अधिक समय बड़ी बहन नानकी के यहां गुजरा उनके बहनोई जयराम ने इनको सुल्तानपुर में बुला लिया था।

गुरु नानक  देव जी  कुछ समय तक दौलत खान लोधी के यहां नौकरी की परंतु बाद में नौकरी छोड़कर के यह देशाटन पर निकल गए और लगभग पूरे देश का 5 बार चक्कर 30 वर्षों में लगाया। इस यात्रा को ही सिख धर्म में उदासी कहा गया इनको काली बेन नदी के किनारे ज्ञान प्राप्त हुआ ।

गुरु नानक  देव जी ने संस्कृत, फारसी, पंजाबी एवं हिंदी की शिक्षा प्राप्त की, आरंभ से ही आत्मचिंतन, ईश्वर भक्ति और संत सेवा की ओर उन्मुख थे| हालांकि उन्होंने कुछ समय अपनी गृहस्थी जीवन में बिताया लेकिन बाद मैं इनका मोह साधु संतों एवं धार्मिक विचारधारा की ओर प्रेरित हुआ। इन्होंने धार्मिक रूढ़िवाद जात के संकीर्ण बंधनों तथा अनाचारों के प्रति सदैव विरोध करते रहे। इन्होंने महिलाओं एवं पुरुषों को बराबरी का दर्जा दिया और यह कहा की महिलाओं के सहयोग के बिना किसी भी देश का उत्थान नहीं हो सकता।

गुरु नानक  देव जी एकेश्वरवाद के समर्थक थे और सभी धर्मो का सम्मान करते थे। सत्संग में इनकी रुचि होने के कारण यह अक्सर सत्संगों में प्रतिभाग किया करते थे और भजन गाते थे। इनका एक सहयोगी मर्दाना तलवंडी से आकर इनका सेवक बन गया| जब नानक देव जी भजन गाते थे तो मरदाना रवाब बजाता था। इनके समकालीन कबीर सिकंदर लोदी बाबर और हुमायूं थे ।इनकी विचारधारा कबीर से मिलती-जुलती थी क्योंकि काव्यों में कबीर की तरह उन्होंने भी शांत रस की निर्बाध धारा प्रवाहित की है। कहीं-कहीं पर करुण और अद्भुत आदि रसों का भी व्याख्यान आता है नानक के अनुसार ईश्वर कृपा से तत्व दर्शन तो हो जाता है किंतु उस अनुभव की अभिव्यक्ति सदैव नहीं हो पाती है।

नानक देव जी के द्वारा रचित पद ऑन को ग्रंथ साहिब में संकलित किया गया है इनकी विचारधारा का सारतत्व जपुजी है। इनकी प्रसिद्ध रचनाएं असा दी वार, रहिरास,तथा सोहिला आदि हैं। नानक देव जी की अधिकांश रचनाएं हिंदी फारसी बहुल पंजाबी और पंजाबी में है परंतु इनकी रचना नसीहतनामा में खड़ी बोली का भी समावेश हुआ है हालांकि उन्होंने अधिकांश साहित्य पंजाबी में लिखे हैं लेकिन कहीं-कहीं पर बृजभाषा का भी प्रयोग हुआ है नानक वाणी में उपमा, रूपक प्रतीक, और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग भी किया गया है।

                गुरुनानक के दोहे 

              सिखों के प्रथम गुरु गुरु नानक जी के उपदेशों द्वारा उनकी विचारधारा को समझा जा सकता है |जो कि उन्होंने दोहों के रूप में प्रस्तुत किये है, अतः उनके द्वारा रचित कुछ दोहे निम्नलिखित है:-

                                      1.

                     थापिआ न जाइ कीता न होइ l

                       आपे आपि निरंजनु सोइ l

                                   2.

                       ऐसा नामु निरंजनु होइ

                       जे को मंनि जाणै मनि कोइ

                                    3.

                      रमी आवै कपड़ा। नदरी मोखु दुआरू

                       नानक एवै जाणीऐ। सभु आपे सचिआरू

                                  4.

                        गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ

                       दुखु परहरि सुखु घरि लै जाइ

                                  5.       

                    गुरा इक देहि बुझाई

                     सभना जीआ का इकु दाता सो मैं विसरि न जाई

                               6.

                       जेती सिरठि उपाई वेखा

                        विणु करमा कि मिलै लई

                                   7.

                         तीरथि नावा जे तिसु भावा

                          विणु भाणे कि नाइ करी

                                8.

                         गुरा इक देहि बुझाई

                        सभना जीआ का इकु दाता

                           सो मैं विसरि न जाई

                                   9.

                            करमी आवै कपड़ा। नदरी मोखु दुआरू

                              नानक एवै जाणीऐ। सभु आपे सचिआरू

                                     10.

                      फेरि कि अगै रखीऐ। जितु दिसै दरबारू

                    मुहौ कि बोलणु बोलीएै। जितु सुणि धरे पिआरू

                                   11.

                        मंनै मुहि चोटा ना खाइ

                         मंनै जम कै साथि न जाइ

                                       12.

                           साचा साहिबु साचु नाइ । भाखिआ भाउ अपारू

                            आखहि मंगहि देहि देहि । दाति करे दातारू

                  गुरु नानक देव की वाणी

गुरु नानक देव जी ने समय-समय अपने विचारों को प्रस्तुत किया है उन्हीं के संदर्भ में कुछ तत्व इस प्रकार हैं जिन्हें गुरु नानक की वाणी की संज्ञा दी गई है पवित्रता को वास्तविक धर्म और उन्होंने कहा है, कि जो सत्य की खोज करता है, संयम का व्रत रखता है, मन के सरोवर में डुबकियां लगाता, दया को अपना धर्म मानता, क्षमा के भाव को धारण करता है, उन पर ईश्वर की हमेशा कृपा बनी रहती है।
आगे वह कहते हैं की अपने आसपास जो विलासिता पूर्ण या अन्य प्रकार की इच्छाएं विचरण कर रही हैं, उनको अपने पास आने से रोको, संयम की लंगोटी पहनो अपने माथे पर अच्छे कर्मों का टीका लगाओ और भक्ति में लीन होकर भोजन करो। कोई बिरला ही जो उचित कार्य करता है उसमें आनंद का अनुभव करेगा।

आगे उन्होंने कहा है कि जो लोग असत्य का सहारा लेते हैं वह गंदगी खाते है और जो अमर्यादित कार्य कर्ता है, वह दूसरों को सत्य बोलने और मर्यादा पूर्ण कार्य करने के लिए उपदेश देता है, ऐसे ही असामाजिक लोग अर्थात पथभ्रष्ट लोगो से दूर रहना चाहिए । अपने प्रति तथा मनुष्यो के प्रति कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए तभी ईश्वर की प्राप्ति संभावित है।उन्होंने मुक्ति को पाने के लिए नाम जपने पर बल दिया जीवन भर उन्होंने लोगों को धार्मिक उपदेश और ज्ञान के प्रकाश से फलीभूत किया।

गुरु नानक देव जी एक सामाजिक सुधारक थे उन्होंने हिंदू परंपराओं के द्वारा विभिन्न पाखण्डो का अनुकरण किए जाने का घोर विरोध किया तथा उनसे मुक्त करवाने का प्रयास करते रहे। इनके द्वारा जात- पात का विरोध किया किया गया तथा सभी को सामान अधिकार देने का प्रबल समर्थन किया उन्होंने महिलाओं के प्रति अपने विचारों से स्पष्ट किया कि महिलाएं गर्भधारण करके हम सभी को जन्म देती हैं, इसलिए उन्होंने महिलाओं को ईश्वर के समान दर्जा दिया और उनका उत्तरदायित्व भी पुरुषों के समान बताया। विभिन्न जगहों के पंडितों के उपदेशों में सूर्य की पूजा करना,मृतको को जल समर्पित करना आदि कार्य को निरर्थक बताया। ईश्वर की प्रेरणा से सेवा तथा बलिदान का जीवन व्यतीत करने के लिए उन्होंने अच्छे कर्म करने पर बल दिया।

गुरु नानक देव जी ने पारिवारिक जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है अर्थात उन्होंने एकांत तपस्या की आवश्यकता को अस्वीकार कर दिया है उन्होंने तीन बातों पर बल दिया। नामतः नाम, कृत् तथा वन्द अर्थात ईश्वर का चिंतन करना ईमानदारी से परिश्रम करना तथा दूसरों में बांटकर भोजन करना। यह सभी आदर्श सुखद जीवन के आधार हैं।

गुरु नानक देव जी ने बेईमानी या छल-कपट से अर्जित धन को उन्होंने मुसलमान के लिए सूअर के मांस के समान तथा हिंदुओं के लिए गाय के मांस के समान अपवित्र बताया। उनके द्वारा जो व्यक्ति परिश्रम करके कमाता है और उस कमाई में से थोड़ा दान करता है, वही वास्तविक मार्ग पर आगे बढ़ता है।

गुरु नानक देव जी का मानना था कि नाम जपने से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार इन पांचों दोषों पर विजय प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है इन्होंने बताया कि ईश्वर की इच्छा अनंत है वह अपनी इच्छा के दौरान अंतरिक्ष में संसार की रचना करता है और इसकी सुरक्षा भी करता है वह सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापक हैं ,हर जगह उसका निवास है, सभी कुछ देखता और समझता है।

                 गुरु नानक देव जी के वंशज

1-बाबा श्रीशचंद
2-बाबा लखमीदास
3-बाबा मेहर चंद
4-बाबा रूपचंद
5-बाबा करमचंद
6-बाबा महासिंह
7-बाबा लखपत सिंह
8-बाबा राघपत सिंह
9-बाबा गण्डा सिंह
10-बाबा मूल सिंह
11-बाबा करतार सिंह
12-बाबा प्रताप सिंह
13-बाबा विक्रम सिंह
14-बाबा नरेंद्र सिंह
15-कंवर जगजीत सिंह
16-सरदार चरणजीत सिंह बेदी /सरदार हरचरण बेदी

समुद्रगुप्त (335-375) (335-375),भारतीय नेपोलियन,अभिलेख,मुद्राएँ,मृत्यु,

आज हम लोग इस आर्टिकल में महान गुप्त शासक समुद्रगुप्त (335-375) जिसे चंद्रगुप्त द्वितीय भी कहा जाता है। इसके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने चरम पर था। यह कभी भी किसी युद्ध में पराजित नहीं हुआ इसलिए इसे भारत का नेपोलियन भी कहा गया है, इसके शासनकाल में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं का पता चलता है।
समुद्रगुप्त गुप्त शासक चंद्रगुप्त प्रथम का पुत्र था| समुद्रगुप्त (335-375) जो इसके बाद में शासक बना इस के समय में गुप्त साम्राज्य का विस्तार सबसे अधिक हुआ|

समुद्रगुप्त

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इतिहासकार विसेंट स्मिथ द्वारा समुद्रगुप्त को भारतीय नेपोलियन की संज्ञा दी क्योंकि समुद्रगुप्त कभी पराजित नहीं हुआ था।

समुद्रगुप्त के सिक्कों पर कांच नाम उत्कीर्ण है तथा सर्वराजोच्छेत्ता उपाधि भी मिलती है कुछ विद्वानों का मानना है कि कांच इसका भाई था जिससे उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ था।

इलाहाबाद का अशोक स्तंभ अभिलेख समुद्रगुप्त के शासनकाल की जानकारी प्रदान करता है जिसमें समुद्रगुप्त की विजय हो के बारे में जानकारी प्राप्त होती जिस का प्रमुख स्रोत हरि सिंह द्वारा रचित प्रयाग स्तंभ लेख है जिसे चंपू शैली में लिखा गया है इसे प्रयाग प्रशस्ति भी कहा गया है अशोक का यह स्तंभ लेख कौशांबी में स्थित था बाद में अकबर द्वारा इसे इलाहाबाद में स्थापित कराया गया था।

समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ किया गया इसके उपरांत उसने प्रथिव्यामा प्रतिरथ(प्रथिव्या प्रथम वीर) की उपाधि धारण की जिसका अर्थ ऐसा व्यक्ति जिसका पृथ्वी पर कोई प्रतिद्वंदी ना हो इसके द्वारा अश्वमेघ प्रकार के सिक्कों के मुखपृष्ठ पर यज्ञयूप में बंधे हुए घोड़े का चिन्ह तथा पृष्ठ भाग पर राजमहिषी दत्तदेवी की आकृति के साथ अश्वमेघ पराक्रम अंकित है अतः इसकी एक उपाधि परक्रमांक भी है।

समुद्रगुप्त एक महान विजेता के साथ साथ कभी संगीतज्ञ और विद्या का संरक्षक था इसके सिक्कों पर इसे वीणा बजाते हुए प्रदर्शित किया गया है एक कभी होने के कारण इसे कविराज की उपाधि प्रदान की गई है।

समुद्रगुप्त द्वारा छह प्रकार की स्वर्ण मुद्राएं चलाई गई जो निमृत हैं:-
1-गरुड़ प्रकार
2-धनुर्धारी प्रकार
3- परभु प्रकार
4- अश्वमेघ प्रकार
5-व्याघ्र हनन प्रकार
6-वीणा वादन प्रकार

समुद्रगुप्त के समकालीन राजा शासक रूद्र सिंह तृतीय (गुजरात) मेघवर्मन (श्रीलंका) कुषाण नरेश केदार (पेशावर)।

समुद्रगुप्त द्वारा आर्यावर्त तथा दक्षिणा पथ के 12-12 राज्य को पराजित किया गया आटविक राज्य ( गाजीपुर से लेकर मध्य प्रदेश), समतट ( बांग्लादेश ), ड्वाक (असम), कामरूप (असम) कर्तपुर (करतारपुर जालंधर), नेपाल को भी विजित किया।

समुद्रगुप्त के दरबार में महान बौद्ध भिक्षु वसुबंधु रहते थे ।

दक्षिण पथ विजय नीति तीन प्रमुख आधार शिलाए थी:-
1- ग्रहण -शत्रु पर अधिकार।
2- मोक्ष– शत्रु को मुक्त करना।
3- अनुग्रह– राज्य लौटा कर शत्रु पर दया करना।

प्रश्न 1- समुद्रगुप्त का वर्णन किस अभिलेख में है।

उत्तर- समुद्रगुप्त का वर्णन प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख में किया गया है। जिसमें उसे चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा उसे उत्तराधिकारी चुनने का वर्णन किया गया। तथा इसमें समुद्रगुप्त की दिग्विजय का उद्देश्य धरणि बन्ध था उसकी उत्तर में अपनाई गई नीति को प्रसभोध्दरण तथा दक्षिण में मोक्षानुग्रह कहा गया था। इसमे समुद्रगुप्त को धर्म प्रचार बन्धु की उपाधि प्रदान की गई है।

प्रश्न 2- समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन किसने कहा।

उत्तर- समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन विंसेंट स्मिथ द्वारा कहा गया।

प्रश्न 3-समुद्रगुप्त की मुद्राएं।

उत्तर- समुद्रगुप्त द्वारा 6 प्रकार की मुद्राएं चलाई 1- गरुड़ प्रकार 2-धनुर्धारी प्रकार 3-परभु प्रकार 4-अश्वमेघ प्रकार 5- व्याघ्र हनन प्रकार 6- वीणा वादन प्रकार

प्रश्न 4-समुद्रगुप्त की मृत्यु हुई।

उत्तर- समुद्रगुप्त की मृत्यु 375 ईसवी में हुई। इसका शासनकाल 355 से 375 ईसवी तक रहा।

प्रश्न 5- समुद्रगुप्त की पत्नी का नाम।

उत्तर- समुद्रगुप्त की पत्नी का नाम दत्ता देवी था।

प्रश्न 6-समुद्रगुप्त के पिता का नाम।

उत्तर- समुद्रगुप्त के पिता का नाम चंद्रगुप्त प्रथम था।

प्रश्न 7-समुद्रगुप्त का दरबारी कवि कौन था।

उत्तर- समुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण था।

लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति (1848-1856) Doctrine of Lapse in Hindi / हड़प नीति/व्यपगत का सिद्धान्त

भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के लिए लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति बहुत बड़ी कूटनीतिक चाल थी। गवर्नर लॉर्ड डलहौजी एक बहुत ही कूटनीतिक एवं कार्य कुशलता के लिए प्रसिद्ध गवर्नर जनरल था। वह मात्र 30 वर्ष की आयु में गवर्नर जनरल पद पर नियुक्त किया गया। स्कॉटलैंड के वह एक अमीर पिता का पुत्र था । लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति के कारण इसे इतिहास के महान गवर्नरों में शुमार किया जाता है क्योंकि उसने अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया उसने किसी भी अवसर को छोड़ा नहीं जिससे कि अंग्रेजी साम्राज्य में वृद्धि हुई इसके स्थान पर यदि अन्य कोई शायद गवर्नर जनरल होता तो वह कुछ परिस्थितियों मैं राज्यों को हड़पने का कार्य नहीं करते लेकिन इस गवर्नर जनरल ने कुछ भी बहाना मिला उससे उसने अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार किया उसने युद्ध में पंजाब और पीगू (बर्मा) को जीता और अपनी हड़प नीति के द्वारा शांति का प्रयोग करते हुए उसने अवध, सातारा, जैतपुर, झांसी और नागपुर को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाया और उसने आधुनिक भारत के भवन की आधारशिला रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति

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लॉर्ड डलहौजी द्वारा जीतकर विलय किए गए राज्य :-

द्वितीय आंग्ल सिख युद्ध और पंजाब का विलय 1849 :-

इस युद्ध की शुरुआत तो अंग्रेज अधिकारी वान्स इग्न्यू और लेफ्टिनेंट एंडरसन की मुल्तान में सिपाहियों द्वारा हत्या कर दिया जाना था। यह संकट मुल्तान के गवर्नर मूलराज के विद्रोह द्वारा उत्पन्न हुआ था। हजारा के सिख गवर्नर ने भी इस समय विद्रोह किया और अपना झंडा फहराया। सिखों ने पेशावर, अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मोहम्मद को सौंप दिया और उससे दोस्ती कर ली। बहुत से पंजाबी मूलराज के समर्थन में आ गए इस प्रकार यह एक राष्ट्रीय युद्ध का रूप ले चुका था। लॉर्ड डलहौजी के अनुसार” बिना पूर्व चेतावनी के कारण ही सिखों ने युद्ध की घोषणा कर दी है अतः यह युद्ध करना स्वाभाविक हो गया था और उसने सौगंध ली और कहा कि यह युद्ध प्रतिशोध के रूप में किया जाएगा।”

लार्ड गाॅफ की अधीनता में अंग्रेज सैनिकों ने 16 नवंबर 1848 को सीमा पार की और रामनगर, चिलियांवाला और गुजरात में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में सिखों की हार हुई इस अवसर को डलहौजी ने पंजाब के विलय के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह कहा गया कि जब तक लोगों के पास युद्ध करने के साधन तथा अवसर है पंजाब में शांति नहीं होगी और उस समय तक भारत में शांति की कोई प्रत्याभूति नहीं होगी। जब तक हम सिखों को पूर्णतया अधीन नहीं कर लेते और इनके राज्य का पूर्णतया अंत नहीं कर देते। इसी के साथ 29 मार्च 1849 को पंजाब के विलय की घोषणा की गई और वहां के महाराजा दिलीप सिंह को पेंशनर बना दिया गया और अंग्रेजों ने शासन संभाल लिया। अंग्रेजों के लिए यह विलय राजनीतिक रूप से उचित और लाभदायक था क्योंकि इससे जो भारत के उत्तरी पश्चिमी सीमा पर दर्रे थे जो उस समय रास्ते के रूप में प्रयोग किए जा रहे थे उन पर अंग्रेजों का अधिकार सुनिश्चित हो गया था। हालांकि डलहौजी के पास इस विलय का कोई वैधानिक और नैतिक अधिकार नहीं था। इस लिए इवैन्ज बैल ने इसे “संगीन विश्वासघात” की संज्ञा दी।

लोअर बर्मा अथवा पीगू का राज्य में विलय (1852) :-

यन्दाबू की संधि (1826) के बाद कुछ अंग्रेज व्यापारी बर्मा के दक्षिणी तट और रंगून में बस गए थे। यह यहां के निवासी रंगून के गवर्नर पर दुर्व्यवहार की शिकायत करते थे। शैम्पर्ड और लुईस नाम के दो अंग्रेज कप्तानों पर बर्मा सरकार ने छोटे से अपराध के लिए भारी जुर्माने लगा दिए थे। अंग्रेजी कप्तानों ने डलहौजी को पत्र लिखा यह पत्र डलहौजी को बहाना बनाने के लिए पर्याप्त था डलहौजी ने ब्रिटिश गौरव और प्रतिष्ठा की रक्षा का दृढ़ संकल्प लिया था। उसके अनुसार उसका मानना था कि “यदि कोई व्यक्ति गंगा नदी के मुहाने पर अंग्रेजी झंडे का अपमान करता है। तो वह वैसा ही है जैसा कि कोई टेम्स नदी के मुहाने पर अपमान करता है।” इस बहाने को अमली जामा पहनाते हुए लॉर्ड डलहौजी ने फॉक्स नाम के युद्धपोत के अफसर काॅमेडोर लैंबर्ट को रंगून भेजा और उससे ब्रिटिश कप्तानों की क्षतिपूर्ति के लिए बातचीत करने और उनसे हर्जाना मांगने को कहा। छोटे से झगड़े को सुलझाने के लिए युद्ध पोतों का भेजना यह प्रदर्शित करता है कि यदि उसकी इच्छा के अनुसार समाधान नहीं किया गया तो युद्ध सुनिश्चित होगा लैंबर्ट ने बर्मा के महाराजा के युद्ध पोतों को पकड़ लिया और भयंकर युद्ध हुआ बर्मा सरकार हार गई। अब लोअर बर्मा को अपने साम्राज्य में विलय करने की घोषणा 20 दिसंबर 1852 को कर दी गई। अंग्रेजी साम्राज्य को इससे अमेरिका और फ्रांस की बढ़ती हुई समुद्रों में शक्ति पर नियंत्रण पाने का रास्ता साफ हो गया था। द्वितीय बर्मा युद्ध के विषय में अर्नाल्ड ने कहा “द्वितीय बर्मा युद्ध ना तो मूलतः और ना ही व्यवहारिक दृष्टि से न्याय पूर्ण था।” उदारवादी नेता कांब्डन और ब्राइट ने इसे एक बहुत “गंभीर पाप” की संज्ञा दी।

सिक्किम का विलय (1850) :-

सिक्किम एक छोटा सा राज्य था। जो नेपाल और भूटान देशों के बीच में स्थित था। वहां के राजा पर या दोष लगाया गया कि उसने दो अंग्रेज डॉक्टरों से दुर्व्यवहार किया है। इसलिए लॉर्ड डलहौजी को अपनी हड़प नीति के तहत बहाना मिल गया और उसने 1850 में सिक्किम के कुछ दूरवर्ती प्रदेश जिनमें दार्जिलिंग भी सम्मिलित था भारत में मिला लिए गए अर्थात अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित हो गए।

लार्ड डलहौजी द्वारा शांतिपूर्ण विलय- व्यपगत का सिद्धांत :-

डलहौजी के साम्राज्य विस्तार के कार्य में व्यापक के सिद्धांत की चर्चा न की जाए तो यह अधूरा माना जाएगा इस सिद्धांत के द्वारा डलहौजी ने महत्वपूर्ण रियासतों को अपने साम्राज्य में मिलाया और उसने झूठें रजवाड़ों और कृत्रिम मध्यस्थ शक्तियों द्वारा जो प्रजा की मुसीबतों को बढ़ाने का कार्य कर रहे थे। इस बात का बहाना करके परोक्ष रूप में वह मुगल शक्ति के साम्राज्य को हड़प करना चाहता था और भारतीय राज्य राजवाड़े जो मुगलों के उत्तराधिकारी का दावा कर सकते थे। उस संभवाना को समाप्त करने का कार्य किया उसके अनुसार भारत में तीन प्रकार की रियासतें थी:-

1-ऐसी रियासतें जो पूर्णता स्वतंत्र थी उनमें किसी भी प्रकार का दखल नहीं किया जाएगा।

2-वे रियासतें जो अंग्रेजी शासन के अधीन भी वह बिना गवर्नर जनरल के आदेश से गोद नहीं ली जा सकती थी।

3-वे रियासतें जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई या उन पर अंग्रेजों का पूर्ण नियंत्रण था उन्हें गोद लेने की आज्ञा नहीं दी जाएगी।

लॉर्ड डलहौजी ने अपनी नीति का 1854 में पुनरावलोकन करते हुए कहा की प्रथम श्रेणी की रियासतों के गोद लेने के मामलों में हमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है।

दूसरी श्रेणी के गोद लेने के लिए रियासतों को हमारी अनुमति अति आवश्यक है। उसने यह भी कहा कि इस प्रकार की रियासतों को हम अनुमति दे सकते हैं और उनको नहीं भी अनुमति देने का अधिकार रखते हैं।

परंतु तीसरी श्रेणी की रियासतों में हमारा विश्वास है कि उत्तराधिकार में गोद लेने की आज्ञा दिया जाना बिल्कुल ही गलत है अतः हम इसकी आज्ञा कभी नहीं देंगे।

लार्ड डलहौजी के द्वारा व्यपगत सिद्धांत के द्वारा विलय किए गए राज्य निम्नवत थे:- सतारा (1848), जैतपुर और संभलपुर (1849), बघाट (1850), उदेपुर (1852), झांसी (1853) और नागपुर (1854) ।

सतारा (1848):-

लॉर्ड डलहौजी के व्यपगत सिद्धांत के अनुसार हड़प किया जाने वाला यह प्रथम राज्य था। यहां के शासक अप्पा साहिब के कोई पुत्र नहीं था। उन्होंने अपनी मृत्यु के पहले कंपनी के अनुमति के बिना एक दत्तक पुत्र बना लिया था। इसी अवसर का लाभ उठाकर डलहौजी ने इस राज्य को आश्रित राज्य घोषित कर इसका विलय अंग्रेजी शासन में कर लिया। इस विलय का समर्थन डायरेक्टरों द्वारा भी किया गया। और उन्होंने इस विलय के बारे में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि हम पूर्णता सहमत हैं और उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारतीय सामान्य कानून और प्रथा के अनुसार सातारा जैसे अधीनस्थ राज्यों को कंपनी की स्वीकृति के बिना दत्तक पुत्र लेने का अधिकार नहीं है। इस विलय के विरोध में जोसेफ ह्यूम ने कामन्स सभा में इसकी तुलना “जिसकी लाठी, उसकी भैंस” के रूप में की।

संभलपुर (1849):-

उड़ीसा में स्थित इस राज्य का शासक नारायण सिंह था।नारायण सिंह का कोई पुत्र नहीं था और वह कोई दत्तक पुत्र भी नहीं बना सके। इस अवसर का लाभ उठाकर 1849 संभल का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में कर लिया गया।

जैतपुर (1849):-

जैतपुर मध्य प्रदेश में स्थित एक रियासत थी जिसका सतारा रियासत की तरह कोई दत्तक उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सका। इस आधार पर जैतपुर का भी विलय कर लिया गया।

बघाट (1850):-

यह रियासत पंजाब में स्थित थी। जिसका विलय 1850 में अंग्रेजी शासन द्वारा कर लिया गया । लेकिन बाद में 1857 की क्रांति में यहां के राजा ने अंग्रेजी सत्ता का समर्थन किया और उनका सहयोग किया। इस कारण कैनिंग ने यहां के राजा की राज भक्ति देख कर इसे पुनः वापस कर दिया था |

उदेपुर (1852):-

यह रियासत मध्य प्रदेश में स्थित थी। इसका विलय हड़प नीति के द्वारा 1852 में कर लिया गया परंतु बाद में कैनिंग द्वारा बघाट रियासत की तर्ज पर इसे वहां के शासक को वापस कर दिया गया।

झांसी (1853):-

इस रियासत के राजा गंगाधर राव को उत्तराधिकार के आधार पर कंपनी ने शासक स्वीकार कर लिया लेकिन नवंबर 1853 में गंगाधर राव बिना पुत्र के स्वर्ग सिधार गए। उनकी विधवा लक्ष्मीबाई को डलहौजी ने पुत्र गोद लेने की अनुमति नहीं दी।
उत्तराधिकारी न होने के आधार पर झांसी रियासत का विलय कर लिया गया।

नागपुर (1854):-

1817 में लॉर्ड हेस्टिंग्ज द्वारा नागपुर रियासत का उत्तराधिकारी भोंसले परिवार के एक बच्चे राघू जी तृतीय को स्वीकार कर लिया गया था। 1853 में राजा का बिना दत्तक पुत्र को गोद लिए ही निधन हो गया। लेकिन उसने रानी को पुत्र गोद लेने को कह दिया था । जब रानी ने पुत्र गोद लेने का प्रस्ताव किया तो कंपनी में अस्वीकार कर दिया और राज्य का विलय कर लिया गया। इस विलय का अवसर उठाकर कंपनी ने रानियों के आभूषण और राजमहल के सामान को बेचकर लगभग 2 लाख पौंड की धनराशि प्राप्त की ।

अवध का विलय (1856):-

अवध के विलय का मुख्य कारण केवल वहां का कुशासन माना गया लेकिन इस कुशासन को देखा जाए तो मुख्य कारण अंग्रेज स्वयं ही थे। लॉर्ड डलहौजी ने इस रियासत के विलय की योजना बहुत ही कूटनीतिक तरीके से बनाई ,उसने अपने ही अधिकारियों को अवध में जांच करने के लिए भेजा और उन अधिकारियों द्वारा अवध में कुशासन के विषय को वरीयता पूर्वक बढ़ा चढ़ा कर लंदन भेज दिया गया। और वहां की गृह सरकार से अवध के विलय की अनुमति प्राप्त कर ली गृह सरकार और ब्रिटिश जनमत तैयार करने के बाद डलहौजी ने बड़ी आसानी से यह कार्य कर दिया। अवध को लॉर्ड डलहौजी ने “दुधारू गाय” की संज्ञा दी थी । इसी कारण बहुत ही सुनियोजित तरीके से लंदन से जांच कमेटी बनवा कर 1854 मे आउट्रम को स्लीमैन के स्थान पर भेजा गया। इसकी रिपोर्ट के आधार पर नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटाकर अवध का विलय कर लिया गया।

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हड़प्पा कालीन प्रमुख नगर

हड़प्पा कालीन प्रमुख नगर
हड़प्पा संस्कृति का विस्तार उत्तर में माण्डा चिनाव नदी के तट पर जम्मू कश्मीर, दक्षिण में दैमाबाद गोदावरी नदी के तट पर, पश्चिम में सुत्कागेण्डोर दाश्क नदी के तट पर, पूर्व में आलमगीरपुर हिण्डन नदी के किनारे मेरठ उत्तर प्रदेश तक होने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
हड़प्पा कालीन प्रमुख नगरों में केवल 7 नगरों को ही नगर माना गया है वैसे देखा जाए तो लगभग 1500 स्थलों की खोज की जा चुकी है। सात नगर निम्नवत् हैं:-

हड़प्पा

पंजाब प्रांत (पाकिस्तान) के मांण्टगोमरी जिले में रावी नदी के बाएं तट पर स्थित है। •इसकी खोज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक जान मार्शल के निर्देश पर 1921 ईस्वी में दयाराम साहनी द्वारा की गई।
•यह स्थल सिंधु घाटी सभ्यता का क्षेत्रफल की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा स्थल है यहां AB और F नाम के दो टीले हैं AB टीले पर दुर्ग बना है तथा दुर्ग के बाहरी टीले को F नाम दिया गया।
•F नाम के टीले पर अन्नागार, श्रमिक आवास और अनाज कूटने के लिए गोलाकार चबूतरो के साक्ष्य मिले हैं अर्थात इनसे यह स्पष्ट होता है कि यह जनसाधारण के निवास की जगह थी AB टीले पर दुर्ग होने से स्पष्ट होता है कि यहां प्रशासक वर्ग के व्यक्तियों का निवास स्थल था।
• हड़प्पा नगर क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान मिला जिसे समाधि r37 नाम दिया गया।
•1934 ईस्वी में प्राप्त समाधि का नाम समाधि H रखा गया।
यहां से पत्थर से बनी लिंग योनि की संकेतात्मक मूर्ति, विशाल अन्नागार, मातृ देवी चित्र, सोने की मोहर, सवाधान पेटिका, गेहूं जौ के दाने, मृदभाण्ड उद्योग के साक्ष्य, 16 भठ्ठियां, धातु बनाने की एक मूषा मिली है जिससे ताम्रकार होने के साक्ष्य।

मोहनजोदड़ो

•यह स्थल लरकाना जिला सिंध प्रांत पाकिस्तान में सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित था।
•यह स्थल हड़प्पा सभ्यता की राजधानी माना जाता है।
•यह क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा नगर था।
•मोहनजोदड़ो का अर्थ- प्रेतों का टीला तथा इसे सिन्धु बाग भी कहा जाता है।
•इस स्थल की खोज राखलदास बनर्जी ने 1922 में की थी।
•यहां सबसे महत्वपूर्ण वस्तु विशाल स्नानागार है जो 11.88 मीटर लंबा 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा था। फर्श पक्की ईंटों से निर्मित दोनों सिरों पर सीढ़ियां थी इसमें पानी भरने व निकालने का उचित प्रबंध किया गया था।
•विशाल स्नानागार का उपयोग धर्म अनुष्ठानों संबंधी स्नान के लिए होता था। इसको मार्शल द्वारा तत्कालीन विश्व का आश्चर्यजनक निर्माण बताया गया है।
•स्नानागार के अतिरिक्त निम्न वस्तुओं की प्राप्ति हुई:-
अन्नागार:
अन्नागार या अन्नकोठार इसकी लंबाई 45.71 मीटर तथा 15.23 मीटर चौड़ाई थी। व्हीलर के अनुसार मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी इमारत थी।
सभा भवन:
27×27 मीटर वर्गाकार दुर्ग के दक्षिण में अवस्थित भवन था।
पुरोहित आवास:
इसकी लंबाई 70× 23.77 मीटर स्नानागार के उत्तर पूर्व में स्थित भवन था। उक्त के अलावा खोचेदार नालियां, नर्तकी की मूर्ति (कांस्य) पशुपति मुहर, मकानों में खिड़कियां, मेसोपोटामिया की मोहर आदि।
•यहां के पूर्वी किले के HR क्षेत्र से कांसे की नर्तकी की मूर्ति तथा 21 मानव कंकाल प्राप्त हुए।
•पिग्गट महोदय द्वारा हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो को सिंधु सभ्यता की जुड़वा राजधानी कहा गया है।

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चन्हूदडो

•सिंधु नदी के बाएं तट पर स्थित इस नगर की खोज एन.जी. मजूमदार द्वारा 1931 ईस्वी में की गई।
•यहां झूंकर संस्कृति तथा झांगर संस्कृति का विकास हुआ।
•मनके बनाने का कारखाना यहीं से प्राप्त हुआ जिसकी खोज मैके द्वारा की गई।
•तीन घड़ियाल तथा दो मछलियों की बनी आकृति वाली मुद्रा यहीं से प्राप्त हुई।
•यहां वक्राकार ईटों का प्रयोग किया गया।
•कुत्ते द्वारा बिल्ली का पीछा करते पंजों के निशान ईटों पर प्राप्त हुए।
•लिपस्टिक, काजल, उस्तरा, कंघा आदि यहां से वस्तुएं प्राप्त हुई।

लोथल

•इस स्थल की खोज 1954 में एस. आर. राव द्वारा की गई जिसे लघु हड़प्पा या लघु मोहनजोदड़ो कहा जाता है।
•यह स्थल भोगवा नदी के किनारे अहमदाबाद (गुजरात) में स्थित था।
•लोथल से एक गोदीवाड़ा (पत्तन) का साक्ष्य प्राप्त हुआ।
•यहां से प्राप्त तीन युग्मित समाधियो से सती प्रथा का अनुमान लगाया जाता है।
•यहां से अग्निकुंड, मनके बनाने का कारखाना तथा 126 मीटर× 30 मीटर भवन प्राप्त हुआ। जिसे प्रशासनिक भवन की संज्ञा दी गई।

 कालीबंगा

•कालीबंगा राजस्थान के गंगानगर जिले में घग्गर नदी के तट पर स्थित है।
•कालीबंगा का अर्थ- काली रंग की चूड़ियां।
•यह हड़प्पा सभ्यता का एकमात्र ऐसा नगर है जहां ऊपरी और निचले दोनों स्थान दुर्गीकृत हैं।
•इस नगर की खोज अमलानंद घोष द्वारा 1951 में की गई थी।
•यह नगर सरस्वती (आधुनिक नाम घग्घर) दृष्द्वती नदी के मध्य स्थित है।
•कालीबंगा में चूड़ी निर्माण उद्योग, शल्य चिकित्सा, गोलाकार कब्र, कांस्य उद्योग के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
•यहां हल से जूते खेत का साक्ष्य सबसे महत्वपूर्ण है।
•यहां अंत्येष्टि संस्कार पूर्ण समाधिकरण, दाह संस्कार एवं आंशिक समाधिकरण द्वारा किए जाने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
•एक युगल समाधान प्राप्त तथा बच्चे की खोपड़ी में 6 छिद्र होना शल्य चिकित्सा होने का प्राचीनतम साक्ष्य माना गया है।
•यहां से आबादी के बड़े स्तर पर पलायन होने तथा भूकंप के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए।

 बनवाली

•बनवाली भारत के हरियाणा के फतेहाबाद जिले में सरस्वती नदी के किनारे स्थित था।
इसकी खोज आर.एस. विष्ट द्वारा 1974 में की गई।
•यहां से बैलगाड़ी के पहिए, जौ का उपयोग, अग्नि वेदिका, मिट्टी के हल की प्रतिकृति तथा सीधी सड़क होने के साक्ष्य प्राप्त हुए।
•यहां अग्निवेदियों के साथ अर्द्ध वृत्ताकार ढांचे प्राप्त होने से कुछ विद्वान इन्हें मंदिर होने का प्रमाण की संभावना व्यक्त करते हैं।

धौलावीरा

•यह नगर गुजरात के कच्छ जिले के भचाऊ तालुका में लूनी- जोजरी लाइन के मध्य खादिर नामक द्वीप पर स्थित है।
•इसकी खोज श्री जे.पी. जोशी द्वारा सन 1967-68 में की गई।
•यहां से विशाल बांध उच्च जल प्रबंधन, मनहर -मनसर तालाब, दीवार पर लिखा सबसे बड़ा लेख आदि साक्ष्य प्राप्त हुए।
•यह भारत में स्थित सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा नगर था।
•सिंधु सभ्यता का एकमात्र क्रीडागार (स्टेडियम) तथा नेवले की पत्थर की मूर्ति यहां से प्राप्त हुई।
•यहां से पॉलीशदार श्वेत पाषाण के टुकड़े बड़ी मात्रा में मिले।

भारतीय संविधान (महत्वपूर्ण तथ्य )

भारतीय संविधान

•42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 को मिनी कांस्टिट्यूशन कहा जाता है

केशवानंद भारती मामला 1973 मे सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि (अनुच्छेद 368 संविधान संशोधन) मूल ढांचे में कोई बदलाव की अनुमति नहीं ।

भारत राज्यों का संघ है।

•मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर कोई व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है।

•राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 20 21 में प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है।

•मौलिक कर्तव्यों को स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के द्वारा 42 संविधान संशोधन 1976 में शामिल किया गया।

•2002 के 86 वें संविधान संशोधन के माध्यम से एक नए मौलिक कर्तव्य को जोड़ा गया।

धर्मनिरपेक्ष शब्द 1976 के 42 वें संविधान संशोधन में जोड़ा गया।

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61 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1988 के तहत वर्ष 1989 में मतदान करने की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।

•भारतीय संविधान में कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना भी करता है जैसे निर्वाचन आयोग (अनुच्छेद 324) नियंत्रक एवं महालेखाकार (अनुच्छेद 148) संघ लोक सेवा आयोग एवं राज्य लोक सेवा आयोग (अनुच्छेद 315)

•भारतीय संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल का उल्लेख है राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) राज्य में आपातकाल (अनुच्छेद 356) वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)।

•वर्ष 1992 में 73 वें एवं 74 वें संविधान संशोधन के तहत तीन स्तरीय स्थानीय सरकार का प्रावधान किया गया जो भारतीय संविधान के अलावा विश्व के किसी भी संविधान में नहीं है।

•73वें संविधान संशोधन 1992 के तहत पंचायतों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई।

•74 वें संविधान संशोधन 1992 के द्वारा नगर पालिकाओं को मान्यता प्रदान की गई ।

•97 वे संविधान संशोधन 2011 के द्वारा सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

•भारतीय संविधान की आलोचना में इसे उधार का संविधान, उधारी की एक बोरी, हांच-पांच कांस्टिट्यूशन, पैबंदगिरी आदि कहा गया।

•प्रस्तावना को सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान में सम्मिलित किया गया है।

एन. ए. पालकीवाला ने प्रस्तावना को संविधान का परिचय पत्र कहा।

•42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द सम्मिलित किए गये।

•भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय के तत्वों को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है।

•भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के आदर्शों को फ्रांस की क्रांति (1789- 1799) से लिया गया है।

•भारतीय संविधान की प्रस्तावना में क्षमता के 3 आयाम शामिल है नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक।

बेरुबारी संघ मामले 1960 में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।

केशवानंद भारती मामले 1973 में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रस्तावना संविधान का आंतरिक हिस्सा है।

भारत को विभक्त राज्यों का अविभाज्य संघ कहा गया है।

अमेरिका को अविभाज्य राज्यों का अविभाज्य संघ कहा गया है।

•संविधान संसद को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह नए राज्य बनाने, नाम परिवर्तन, सीमा परिवर्तन करने में राज्यों की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात यह साधारण बहुमत और साधारण विधायी प्रक्रिया के द्वारा पारित किया जा सकता है अर्थात यह प्रक्रिया अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन नहीं माना जाएगा।

•भारतीय क्षेत्र को अन्य देश को देने में अनुच्छेद 368 में संशोधन विशेष बहुमत से संसद द्वारा किया जा सकता है।

552 देसी रियासतें भारत की सीमा में थी जिनमें 549 रियासतें भारत में शामिल हो गई थी।

हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर रियासतों ने भारत में शामिल होने से इंकार कर दिया लेकिन बाद में हैदराबाद को पुलिस कार्यवाही द्वारा, जूनागढ़ को जनमत द्वारा ,कश्मीर को विलय पत्र के द्वारा भारत में शामिल कर लिया गया।

•जून 1948 में एस. के. धर आयोग का गठन जिसने अपनी रिपोर्ट दिसंबर 1948 में पेश की जिसमें राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर न करके प्रशासनिक सुविधा के अनुसार होना चाहिए।

•आयोग की रिपोर्ट से अत्यधिक विद्रोह होने पर दिसंबर 1948 में जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, पट्टाभिसीतारमैया को शामिल कर जे. वी. पी. समिति का गठन किया गया इस ने अप्रैल 1949 में रिपोर्ट पेश की जिसमें राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हो अस्वीकार कर दिया।

•कांग्रेसी कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामुलू की 56 दिन की भूख हड़ताल से मृत्यु होने पर अक्टूबर 1953 में मद्रास से तेलुगू भाषी क्षेत्र से आंध्र प्रदेश का गठन किया गया।

•दिसंबर 1953 में फजल अली की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया गया जिसके अन्य दो सदस्य के. एम. पणिक्कर और एच एन कुंजरू थे । 1955 में अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें राज्यों के पुनर्गठन में भाषा को मुख्य आधार बनाया जाना चाहिए लेकिन इसमें “एक राज्य एक भाषा” के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया।

•वर्ष 1960 में मुंबई को बांटकर महाराष्ट्र और गुजरात 2 नए राज्य बने अर्थात गुजरात भारतीय संघ का 15 वां राज्य बना।

•10 वां संविधान संशोधन अधिनियम 1961 द्वारा दादरा एवं नगर हवेली को संघ शासित क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया गया।

•भारत में पुडुचेरी, कराईकल, माहे, यनम 14 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1962 में संघ शासित प्रदेश बनाया गया।

•1963 में नागालैंड 16वां राज्य बना।

•1966 में हरियाणा 17 राज्य व चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश का गठन किया गया।
1971 में हिमाचल प्रदेश 18वां राज्य बना पहले केंद्र शासित राज्य था पूर्ण राज्य बनाया गया ।

कर्नाटक युद्ध (लगभग 20 वर्ष तक )

 प्रथम कर्नाटक युद्ध (1740 से 1748 ई.तक)

•कर्नाटक युद्ध यूरोप में गठित घटनाक्रम के तहत ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकारी युद्ध का मात्र एक विस्तार था।

•1740 ईस्वी में फ्रांसीसी तथा अंग्रेज मेरिया थरेसा के उत्तराधिकार को लेकर आपस में झगड़ रहे थे।

•फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले ने भारत में शांति बनाने रखने की बहुत कोशिश की लेकिन युद्ध की पहल अंग्रेजों की तरफ से की गई।

•यह युद्ध प्रत्यक्ष रूप से कर्नाटक के नवाब पद के उत्तराधिकार का संघर्ष दिख रहा था लेकिन अप्रत्यक्ष रूप में इसमें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी लड़ रही थी।

•इस समय पांडिचेरी का फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले था तथा मद्रास का अंग्रेज गवर्नर मोर्स था।

•युद्ध की पहल बारनैट के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जलपोत पकड़कर की।

•फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन से अपने जहाजों की सुरक्षा के लिए निवेदन किया लेकिन अंग्रेजों ने नवाब की बात को भी नजरअंदाज कर दिया।

•फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले युद्ध के पक्ष में नहीं था इसलिए उसने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा अंग्रेज गवर्नर मोर्स दोनों से युद्ध ना होने देने का प्रस्ताव रखा।

• डुप्ले ने कूटनीतिक सहारा लिया और मॉरीशस के फ्रांसीसी गवर्नर ला बूर्डोने से सहायता मांगी जो अपने 3000 सैनिकों के साथ आकर मद्रास पर अधिकार कर लिया।

•इस दौरान डुप्ले और ला बूर्डोने दोनों के बीच मतभेद हो गया तो ला बूर्डोने ने 4 लाख पौंड की रिश्वत अंग्रेजों से लेकर मद्रास उन्हें सौंप दिया।

•ला बोर्डोने के मॉरीशस जाने के बाद डुप्ले ने मद्रास पर फिर अधिकार कर लिया।

•फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले ने यह कहकर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन को अपने पक्ष में कर लिया था कि मद्रास को जीतने के बाद उसे सौंप देंगे लेकिन डुप्ले ने ऐसा नहीं किया। फलस्वरूप युद्ध अवश्यंभावी हो गया था।

•1748 ईसवी में कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन के पुत्र महफूज खां एक विशाल सेना लगभग 10 हजार सैनिक लेकर अडयार के समीप डुप्ले की कूटनीतिक चाल से ओतप्रोत कैप्टन पैराडाइज के अधीन एक छोटी सी फ्रांसीसी सेना जिसमें लगभग 230 फ्रांसीसी सैनिक और लगभग 700 भारतीय सैनिक थे महफूज खां की सेना को पराजित किया।

•इस युद्ध को सेंटथोमे का युद्ध भी कहा जाता है।

•इस जीत से यह स्पष्ट हो गया कि घुड़सवार सेना की अपेक्षा तोपखाना श्रेष्ठ है तथा अनुशासनहीन बड़ी सेना पर अनुशासित छोटी सेना भारी पड़ी।

•नवाब की सेना और मद्रास को परास्त करने के बाद फ्रांसीसियों में नई ऊर्जा का उद्भव हुआ और उन्होंने पांडिचेरी के दक्षिण में स्थित अंग्रेजों की एक बस्ती फोर्ट सेंट डेविड पर अधिकार करने का प्रयास किया किंतु लगभग डेढ़ सालों के घेरे के बाद भी असफल रहे।

•कुछ समय पश्चात इंग्लैंड से भारत में अंग्रेजों की सहायता के लिए सेना पहुंच गई सहायता मिलने की बाद अंग्रेजों ने पांडिचेरी का घेरा डाला परंतु वह उस पर अधिकार करने में असफल रहे और पुनः फोर्ट सेंट डेविड मे वापस आ गए।

•1748 ई. में यूरोप में अंग्रेज और फ्रांसीसियो के बीच एक्स-ला-शापेल की संधि हुई जिसके तहत यूरोप में युद्ध समाप्त हो गया इस संधि से मद्रास अंग्रेजों को तथा अमेरिका में लुईसबर्ग फ्रांसीसियों को वापस मिल गए इस तरह युद्ध के प्रथम दौर में दोनों दल बराबर रहे ।

•पहले कर्नाटक युद्ध का कोई तात्कालिक राजनीतिक प्रभाव भारत में नहीं पड़ा न तो इस युद्ध से फ्रांसीसी को कोई लाभ हुआ और ना ही अंग्रेजों को।

•इस युद्ध में भारतीय राजाओं की कमजोरियों को उजागर किया, और जल सेना का महत्व बड़ा अर्थात यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि भारतीय सेना यूरोपीय सेना से स्पष्ट रूप से कमजोर हो गई थी।

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द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-54)

•डुप्ले की राजनैतिक चाहत और चरम पर पहुंच गई क्यों कर्नाटक के प्रथम युद्ध मे उसने अपने राजनैतिक, कूटनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में कुछ सीमा तक सफल रहा।

•उसके द्वारा भारतीय राजवंशों के परस्पर झगड़ों में भाग लेकर अपने राजनीतिक प्रभाव को और प्रसारित करने के उद्देश्य से वहां कूटनीतिक रूप से अग्रसर हुआ।

•यह एक अच्छा अवसर था यूरोपीय शक्तियों के लिए क्योंकि भारतीय राजवंशों में उत्तराधिकार के लिए विवाद उत्पन्न हो रहे थे। इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए यूरोपीय शक्तियां तैयार थी।

•यूरोपियों को यह अवसर हैदराबाद तथा कर्नाटक के सिंहासनों के विवादास्पद उत्तराधिकार के कारण जल्द ही प्राप्त हुआ।

आसफजाह का 21 मई 1748 को स्वर्गवास हो गया उसका पुत्र नासिर जंग उत्तराधिकारी बना। परंतु उसके भतीजे (आसफजाह के पौत्र) मुजफ्फर जंग ने इसका विरोध किया।

•दूसरी तरफ कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन और उसके बहनोई चंदा साहिब के बीच मतभेद था। यह दोनों विवाद एक बड़े विवाद में परिवर्तित हो गए।

•अवसर का फायदा उठाने हेतु डुप्ले ने मुजफ्फर जंग को दक्कन की सुबेदारी तथा चंदा साहिब को कर्नाटक की सुबेदारी सौपने का समर्थन करने की बात की किन्ही कारणों से अंग्रेजों को नासिरजंग तथा अनवरुद्दीन का साथ देना पड़ा।

•अगस्त 1749 को बिल्लौर के समीप अंबूर के स्थान पर मुजफ्फरजंग, चंदा साहिब तथा फ्रेंच सेनाओं ने अनवरुद्दीन को हराकर मार दिया।

•डुप्ले को यह कूटनीतिक अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई।

•दिसंबर 1750 में नासिर जंग एक युद्ध में मारा गया मुजफ्फर जंग दक्कन का सूबेदार बना और उसके द्वारा फ्रांसीसियों को बहुत से उपहार भेंट किए गए डुप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण भाग में मुगल प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त कर दिया।

•मुजफ्फर जंग के आग्रह पर एक फ्रांसीसी सेना की टुकड़ी बुस्सी की अध्यक्षता में हैदराबाद में तैनात कर दी गई।

•डुप्ले की इच्छा अनुसार 1751 में चंदा साहिब कर्नाटक के नवाब बनाए गए। डुप्ले का यह समय राजनैतिक शक्ति की चरम स्थिति थी।

•फ्रांसीसियो का विरोध होना स्वाभाविक था स्वर्गीय अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली त्रिचनापल्ली में शरण लिए था फ्रांसीसी तथा चंदा साहेब दोनों मिलकर भी त्रिचनापल्ली के दुर्ग को जीतने में असफल रहे अंग्रेजों की स्थिति इस फ्रांसीसी विजय से कमजोर हो गई थी।

•त्रिचनापल्ली के फ्रांसीसी घेरे को तोड़ने में असफल रहा। क्लाइव त्रिचनापल्ली पर दबाव कम करने के लिए कर्नाटक की राजधानी अर्काट को 210 सैनिकों की सहायता से जीत लिया।

•अर्काट को पुनः जीतने के लिए चंदा साहिब में 4000 सैनिक भेजें जो अर्काट को पुनः प्राप्त नहीं कर सके।क्लाइव ने 53 दिन तक इस सेना का सामना किया।

•फ्रांसीसियो पर इस हार का गहरा प्रभाव पड़ा 1752 में स्टैंगर लारेंस के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना ने त्रिचनापल्ली को बचा लिया तथा जून 1752 में डेरा डालने वाली फ्रांसीसी सेना ने अंग्रेजों के आगे हथियार डाल दिए। चंदा साहिब की भी धोखे से तंजौर के राजा ने हत्या कर दी।

•त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसियों की हार से डुप्ले का पतन होना प्रारंभ हो गया फ्रांसीसी कंपनी के डायरेक्टरों ने इस युद्ध की पराजय से हुई धन हानि के लिए डुप्ले को वापस बुला लिया।

•डुप्ले के स्थान पर 1754 में गोडेहू को भारत में फ्रांसीसी प्रदेशों का गवर्नर जनरल बनाया गया तथा डुप्ले को उसका उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया ।

1755 में पांडिचेरी की संधि फ्रांसीसी कंपनी एवं अंग्रेजी कंपनियों के बीच एक अस्थाई संधि हुई।

•अंग्रेजों की सहायता से मुहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बनाया गया परंतु हैदराबाद में अभी भी फ्रांसीसी डटे हुए थे तथा उन्होंने सूबेदार सालारजंग से और अधिक जागीर प्राप्त कर ली।

•कर्नाटक के द्वितीय युद्ध में फ्रांसीसियो को कुछ स्तर तक हानि पहुंची तथा अंग्रेजों की स्थिति में मजबूत हुई।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756-63 ई. तक)

•यह युद्ध भी यूरोपीय संघर्ष का ही भाग था।

•पांडिचेरी की संधि (1755) अस्थाई थी क्योंकि इस संधि का समर्थन दोनों देशों की सरकारों द्वारा किया जाना था परंतु 1756 ईस्वी में यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध प्रारंभ हो गया इसी कारण अंग्रेज और फ्रांसीसी एक दूसरे के विरोध में आ गए।

•फ्रांसीसी सरकार में अप्रैल 1757 में काउंट डी लाली को भारत भेजा। अप्रैल 1758 में भारत पहुंचा।

•इसी दौरान अंग्रेजों द्वारा सिराजुद्दौला को हराकर पश्चिम बंगाल पर अधिकार स्थापित कर चुके थे जिससे अंग्रेजों को अपार धन मिला। इसी धन का उपयोग करके अंग्रेजों द्वारा फ्रांसीसी यों को दक्कन में पराजित करने में सफलता प्राप्त हुई।

•काउंट डी लाली के भारत आने के उपरांत वास्तविक युद्ध आरंभ हुआ जिसके द्वारा फ्रांसीसी प्रदेशों को सैनिक हथियारों से युक्त अधिकारी नियुक्त किया तथा लाली ने 1758 ईस्वी में फोर्ट सेंट डेविड जीत लिया।

•फोर्ट सेंट डेविड की जीत से उत्साहित काउंट डी लाली द्वारा तंजौर पर आक्रमण किया गया क्योंकि उस पर 56 लाख रुपए बकाया था। परंतु यह अभियान असफल रहा इसके कारण फ्रांसीसियों की ख्याति को काफी नुकसान हुआ।

•इसी दौरान लाली द्वारा बुस्सी को हैदराबाद से वापस बुलाना उसकी सबसे बड़ी भूल थी इसके कारण फ्रांसीसियों की स्थिति और कमजोर हो गई।

•इसी समय पोकांक के नेतृत्व में अंग्रेजी बेड़े ने डआश के नेतृत्व वाली फ्रांसीसी सेना को तीन बार पराजित किया और उसे भारतीय सागर से वापस जाने पर मजबूर कर दिया।

1760 में वाण्डियावाश के स्थान पर अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच निर्णायक लड़ाई लड़ी गई अंग्रेज सेना का नेतृत्व आयरकुट तथा फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व काउंट लाली द्वारा किया जा रहा था इसमें काउंट लाली बुरी तरह पराजित हुआ। यह युद्ध वाण्डियावाश का युद्ध (22 जनवरी 1760 ई.) के नाम से जाना जाता है।
फ्रांसीसी बुस्सी को अंग्रेजों द्वारा युद्ध बंदी बना लिया गया।

•फ्रांसीसियो की जनवरी 1761 की पराजय ने इनको पांडिचेरी लौटने पर मजबूर कर दिया अंग्रेजों द्वारा पांडिचेरी को भी जीत। लिया गया तथा फ्रांसीसियों ने इसे भी अंग्रेजों को सौंप दिया इसी दौरान शीघ्र ही माही और जिंजी भी उनके हाथ से निकल गए अर्थात अब फ्रांसीसी पूरी तरह से पराजित हो चुके थे।

•1763 में अंग्रेजों और फ्रांसीसियो के बीच पेरिस की संधि पर हस्ताक्षर होते हैं जिसके फलस्वरूप सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त हो जाता है।

•अंग्रेजों द्वारा फ्रांसीसियों को उनके सारे कारखाने वापस कर दिए गए लेकिन उनको किलेबंदी तथा सैनिक रखने का अधिकार नहीं दिया गया अब वह सिर्फ व्यापार कर सकते थे।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध अंततः निर्णायक सिद्ध हुआ जिसके फलस्वरूप भारत में फ्रांसीसियो का साम्राज्य पूरी तरह से नष्ट हो गया था।

फ्रांसीसी भारत में अब केवल व्यापारी बन के रह गए थे।