गुरु नानक(1469)जयंती|जन्मकथा|वाणी|दोहा|वंशज

 

नानक पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी (1469-1538) के द्वारा संगठित संप्रदाय एक व्यापक संगठन बना यह उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अस्तित्व में आया, नानक देव जी समन्वयशील, उदार प्रवृत्ति, अद्भुत संगठन शक्ति, क्षमाशीलता, दूरदर्शिता आदि गुणों से ओत-प्रोत थे। ऐसे ओजस्वी महापुरुष के जीवन से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तत्वों को इस लेख में समाहित किया गया है जिसका हम अध्ययन करेंगे।

  गुरु नानक                         

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                         गुरु नानक जयंती

27 नवंबर 2023 दिन सोमवार
गुरु नानक देव जी का जन्म दिवस प्रकाश पर्व या प्रकाश उत्सव के रूप में मनाया जाता है । इनके द्वारा सिख धर्म की नींव पंजाब में डाली गई। गुरु नानक देव जी का जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 15 अप्रैल 1469 तलवंडी राय भोई गांव में हुआ था।

          गुरु नानक देव जी की जन्म कथा 

नानक पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। इनका जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 15 अप्रैल 1969 को तलवंडी राय भोई गांव में हुआ था। बाद में इनको ननकाना साहिब के नाम से जाना जाने लगा। इनके पिता का नाम कालू जी मेहता जो कि एक पटवारी होने के साथ- साथ खेती का भी कार्य करते थे। इनकी माता का नाम श्रीमती तृप्ता देवी था। इनका विवाह बटाला निवासी मूला की कन्या सुलक्षणा देवी से 16 साल की उम्र में हो गया था। इनके दो पुत्र     श्री चंद और श्री लक्ष्मी चंद्र थे। पिता की तरह श्री चंद भी एक प्रसिद्ध साधु हुए और उन्होंने उदासी संप्रदाय का प्रवर्तन किया। इनका अधिक समय बड़ी बहन नानकी के यहां गुजरा उनके बहनोई जयराम ने इनको सुल्तानपुर में बुला लिया था।

गुरु नानक  देव जी  कुछ समय तक दौलत खान लोधी के यहां नौकरी की परंतु बाद में नौकरी छोड़कर के यह देशाटन पर निकल गए और लगभग पूरे देश का 5 बार चक्कर 30 वर्षों में लगाया। इस यात्रा को ही सिख धर्म में उदासी कहा गया इनको काली बेन नदी के किनारे ज्ञान प्राप्त हुआ ।

गुरु नानक  देव जी ने संस्कृत, फारसी, पंजाबी एवं हिंदी की शिक्षा प्राप्त की, आरंभ से ही आत्मचिंतन, ईश्वर भक्ति और संत सेवा की ओर उन्मुख थे| हालांकि उन्होंने कुछ समय अपनी गृहस्थी जीवन में बिताया लेकिन बाद मैं इनका मोह साधु संतों एवं धार्मिक विचारधारा की ओर प्रेरित हुआ। इन्होंने धार्मिक रूढ़िवाद जात के संकीर्ण बंधनों तथा अनाचारों के प्रति सदैव विरोध करते रहे। इन्होंने महिलाओं एवं पुरुषों को बराबरी का दर्जा दिया और यह कहा की महिलाओं के सहयोग के बिना किसी भी देश का उत्थान नहीं हो सकता।

गुरु नानक  देव जी एकेश्वरवाद के समर्थक थे और सभी धर्मो का सम्मान करते थे। सत्संग में इनकी रुचि होने के कारण यह अक्सर सत्संगों में प्रतिभाग किया करते थे और भजन गाते थे। इनका एक सहयोगी मर्दाना तलवंडी से आकर इनका सेवक बन गया| जब नानक देव जी भजन गाते थे तो मरदाना रवाब बजाता था। इनके समकालीन कबीर सिकंदर लोदी बाबर और हुमायूं थे ।इनकी विचारधारा कबीर से मिलती-जुलती थी क्योंकि काव्यों में कबीर की तरह उन्होंने भी शांत रस की निर्बाध धारा प्रवाहित की है। कहीं-कहीं पर करुण और अद्भुत आदि रसों का भी व्याख्यान आता है नानक के अनुसार ईश्वर कृपा से तत्व दर्शन तो हो जाता है किंतु उस अनुभव की अभिव्यक्ति सदैव नहीं हो पाती है।

नानक देव जी के द्वारा रचित पद ऑन को ग्रंथ साहिब में संकलित किया गया है इनकी विचारधारा का सारतत्व जपुजी है। इनकी प्रसिद्ध रचनाएं असा दी वार, रहिरास,तथा सोहिला आदि हैं। नानक देव जी की अधिकांश रचनाएं हिंदी फारसी बहुल पंजाबी और पंजाबी में है परंतु इनकी रचना नसीहतनामा में खड़ी बोली का भी समावेश हुआ है हालांकि उन्होंने अधिकांश साहित्य पंजाबी में लिखे हैं लेकिन कहीं-कहीं पर बृजभाषा का भी प्रयोग हुआ है नानक वाणी में उपमा, रूपक प्रतीक, और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग भी किया गया है।

                गुरुनानक के दोहे 

              सिखों के प्रथम गुरु गुरु नानक जी के उपदेशों द्वारा उनकी विचारधारा को समझा जा सकता है |जो कि उन्होंने दोहों के रूप में प्रस्तुत किये है, अतः उनके द्वारा रचित कुछ दोहे निम्नलिखित है:-

                                      1.

                     थापिआ न जाइ कीता न होइ l

                       आपे आपि निरंजनु सोइ l

                                   2.

                       ऐसा नामु निरंजनु होइ

                       जे को मंनि जाणै मनि कोइ

                                    3.

                      रमी आवै कपड़ा। नदरी मोखु दुआरू

                       नानक एवै जाणीऐ। सभु आपे सचिआरू

                                  4.

                        गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ

                       दुखु परहरि सुखु घरि लै जाइ

                                  5.       

                    गुरा इक देहि बुझाई

                     सभना जीआ का इकु दाता सो मैं विसरि न जाई

                               6.

                       जेती सिरठि उपाई वेखा

                        विणु करमा कि मिलै लई

                                   7.

                         तीरथि नावा जे तिसु भावा

                          विणु भाणे कि नाइ करी

                                8.

                         गुरा इक देहि बुझाई

                        सभना जीआ का इकु दाता

                           सो मैं विसरि न जाई

                                   9.

                            करमी आवै कपड़ा। नदरी मोखु दुआरू

                              नानक एवै जाणीऐ। सभु आपे सचिआरू

                                     10.

                      फेरि कि अगै रखीऐ। जितु दिसै दरबारू

                    मुहौ कि बोलणु बोलीएै। जितु सुणि धरे पिआरू

                                   11.

                        मंनै मुहि चोटा ना खाइ

                         मंनै जम कै साथि न जाइ

                                       12.

                           साचा साहिबु साचु नाइ । भाखिआ भाउ अपारू

                            आखहि मंगहि देहि देहि । दाति करे दातारू

                  गुरु नानक देव की वाणी

गुरु नानक देव जी ने समय-समय अपने विचारों को प्रस्तुत किया है उन्हीं के संदर्भ में कुछ तत्व इस प्रकार हैं जिन्हें गुरु नानक की वाणी की संज्ञा दी गई है पवित्रता को वास्तविक धर्म और उन्होंने कहा है, कि जो सत्य की खोज करता है, संयम का व्रत रखता है, मन के सरोवर में डुबकियां लगाता, दया को अपना धर्म मानता, क्षमा के भाव को धारण करता है, उन पर ईश्वर की हमेशा कृपा बनी रहती है।
आगे वह कहते हैं की अपने आसपास जो विलासिता पूर्ण या अन्य प्रकार की इच्छाएं विचरण कर रही हैं, उनको अपने पास आने से रोको, संयम की लंगोटी पहनो अपने माथे पर अच्छे कर्मों का टीका लगाओ और भक्ति में लीन होकर भोजन करो। कोई बिरला ही जो उचित कार्य करता है उसमें आनंद का अनुभव करेगा।

आगे उन्होंने कहा है कि जो लोग असत्य का सहारा लेते हैं वह गंदगी खाते है और जो अमर्यादित कार्य कर्ता है, वह दूसरों को सत्य बोलने और मर्यादा पूर्ण कार्य करने के लिए उपदेश देता है, ऐसे ही असामाजिक लोग अर्थात पथभ्रष्ट लोगो से दूर रहना चाहिए । अपने प्रति तथा मनुष्यो के प्रति कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए तभी ईश्वर की प्राप्ति संभावित है।उन्होंने मुक्ति को पाने के लिए नाम जपने पर बल दिया जीवन भर उन्होंने लोगों को धार्मिक उपदेश और ज्ञान के प्रकाश से फलीभूत किया।

गुरु नानक देव जी एक सामाजिक सुधारक थे उन्होंने हिंदू परंपराओं के द्वारा विभिन्न पाखण्डो का अनुकरण किए जाने का घोर विरोध किया तथा उनसे मुक्त करवाने का प्रयास करते रहे। इनके द्वारा जात- पात का विरोध किया किया गया तथा सभी को सामान अधिकार देने का प्रबल समर्थन किया उन्होंने महिलाओं के प्रति अपने विचारों से स्पष्ट किया कि महिलाएं गर्भधारण करके हम सभी को जन्म देती हैं, इसलिए उन्होंने महिलाओं को ईश्वर के समान दर्जा दिया और उनका उत्तरदायित्व भी पुरुषों के समान बताया। विभिन्न जगहों के पंडितों के उपदेशों में सूर्य की पूजा करना,मृतको को जल समर्पित करना आदि कार्य को निरर्थक बताया। ईश्वर की प्रेरणा से सेवा तथा बलिदान का जीवन व्यतीत करने के लिए उन्होंने अच्छे कर्म करने पर बल दिया।

गुरु नानक देव जी ने पारिवारिक जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है अर्थात उन्होंने एकांत तपस्या की आवश्यकता को अस्वीकार कर दिया है उन्होंने तीन बातों पर बल दिया। नामतः नाम, कृत् तथा वन्द अर्थात ईश्वर का चिंतन करना ईमानदारी से परिश्रम करना तथा दूसरों में बांटकर भोजन करना। यह सभी आदर्श सुखद जीवन के आधार हैं।

गुरु नानक देव जी ने बेईमानी या छल-कपट से अर्जित धन को उन्होंने मुसलमान के लिए सूअर के मांस के समान तथा हिंदुओं के लिए गाय के मांस के समान अपवित्र बताया। उनके द्वारा जो व्यक्ति परिश्रम करके कमाता है और उस कमाई में से थोड़ा दान करता है, वही वास्तविक मार्ग पर आगे बढ़ता है।

गुरु नानक देव जी का मानना था कि नाम जपने से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार इन पांचों दोषों पर विजय प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है इन्होंने बताया कि ईश्वर की इच्छा अनंत है वह अपनी इच्छा के दौरान अंतरिक्ष में संसार की रचना करता है और इसकी सुरक्षा भी करता है वह सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापक हैं ,हर जगह उसका निवास है, सभी कुछ देखता और समझता है।

                 गुरु नानक देव जी के वंशज

1-बाबा श्रीशचंद
2-बाबा लखमीदास
3-बाबा मेहर चंद
4-बाबा रूपचंद
5-बाबा करमचंद
6-बाबा महासिंह
7-बाबा लखपत सिंह
8-बाबा राघपत सिंह
9-बाबा गण्डा सिंह
10-बाबा मूल सिंह
11-बाबा करतार सिंह
12-बाबा प्रताप सिंह
13-बाबा विक्रम सिंह
14-बाबा नरेंद्र सिंह
15-कंवर जगजीत सिंह
16-सरदार चरणजीत सिंह बेदी /सरदार हरचरण बेदी

समुद्रगुप्त (335-375) (335-375),भारतीय नेपोलियन,अभिलेख,मुद्राएँ,मृत्यु,

आज हम लोग इस आर्टिकल में महान गुप्त शासक समुद्रगुप्त (335-375) जिसे चंद्रगुप्त द्वितीय भी कहा जाता है। इसके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने चरम पर था। यह कभी भी किसी युद्ध में पराजित नहीं हुआ इसलिए इसे भारत का नेपोलियन भी कहा गया है, इसके शासनकाल में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं का पता चलता है।
समुद्रगुप्त गुप्त शासक चंद्रगुप्त प्रथम का पुत्र था| समुद्रगुप्त (335-375) जो इसके बाद में शासक बना इस के समय में गुप्त साम्राज्य का विस्तार सबसे अधिक हुआ|

समुद्रगुप्त

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इतिहासकार विसेंट स्मिथ द्वारा समुद्रगुप्त को भारतीय नेपोलियन की संज्ञा दी क्योंकि समुद्रगुप्त कभी पराजित नहीं हुआ था।

समुद्रगुप्त के सिक्कों पर कांच नाम उत्कीर्ण है तथा सर्वराजोच्छेत्ता उपाधि भी मिलती है कुछ विद्वानों का मानना है कि कांच इसका भाई था जिससे उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ था।

इलाहाबाद का अशोक स्तंभ अभिलेख समुद्रगुप्त के शासनकाल की जानकारी प्रदान करता है जिसमें समुद्रगुप्त की विजय हो के बारे में जानकारी प्राप्त होती जिस का प्रमुख स्रोत हरि सिंह द्वारा रचित प्रयाग स्तंभ लेख है जिसे चंपू शैली में लिखा गया है इसे प्रयाग प्रशस्ति भी कहा गया है अशोक का यह स्तंभ लेख कौशांबी में स्थित था बाद में अकबर द्वारा इसे इलाहाबाद में स्थापित कराया गया था।

समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ किया गया इसके उपरांत उसने प्रथिव्यामा प्रतिरथ(प्रथिव्या प्रथम वीर) की उपाधि धारण की जिसका अर्थ ऐसा व्यक्ति जिसका पृथ्वी पर कोई प्रतिद्वंदी ना हो इसके द्वारा अश्वमेघ प्रकार के सिक्कों के मुखपृष्ठ पर यज्ञयूप में बंधे हुए घोड़े का चिन्ह तथा पृष्ठ भाग पर राजमहिषी दत्तदेवी की आकृति के साथ अश्वमेघ पराक्रम अंकित है अतः इसकी एक उपाधि परक्रमांक भी है।

समुद्रगुप्त एक महान विजेता के साथ साथ कभी संगीतज्ञ और विद्या का संरक्षक था इसके सिक्कों पर इसे वीणा बजाते हुए प्रदर्शित किया गया है एक कभी होने के कारण इसे कविराज की उपाधि प्रदान की गई है।

समुद्रगुप्त द्वारा छह प्रकार की स्वर्ण मुद्राएं चलाई गई जो निमृत हैं:-
1-गरुड़ प्रकार
2-धनुर्धारी प्रकार
3- परभु प्रकार
4- अश्वमेघ प्रकार
5-व्याघ्र हनन प्रकार
6-वीणा वादन प्रकार

समुद्रगुप्त के समकालीन राजा शासक रूद्र सिंह तृतीय (गुजरात) मेघवर्मन (श्रीलंका) कुषाण नरेश केदार (पेशावर)।

समुद्रगुप्त द्वारा आर्यावर्त तथा दक्षिणा पथ के 12-12 राज्य को पराजित किया गया आटविक राज्य ( गाजीपुर से लेकर मध्य प्रदेश), समतट ( बांग्लादेश ), ड्वाक (असम), कामरूप (असम) कर्तपुर (करतारपुर जालंधर), नेपाल को भी विजित किया।

समुद्रगुप्त के दरबार में महान बौद्ध भिक्षु वसुबंधु रहते थे ।

दक्षिण पथ विजय नीति तीन प्रमुख आधार शिलाए थी:-
1- ग्रहण -शत्रु पर अधिकार।
2- मोक्ष– शत्रु को मुक्त करना।
3- अनुग्रह– राज्य लौटा कर शत्रु पर दया करना।

प्रश्न 1- समुद्रगुप्त का वर्णन किस अभिलेख में है।

उत्तर- समुद्रगुप्त का वर्णन प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख में किया गया है। जिसमें उसे चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा उसे उत्तराधिकारी चुनने का वर्णन किया गया। तथा इसमें समुद्रगुप्त की दिग्विजय का उद्देश्य धरणि बन्ध था उसकी उत्तर में अपनाई गई नीति को प्रसभोध्दरण तथा दक्षिण में मोक्षानुग्रह कहा गया था। इसमे समुद्रगुप्त को धर्म प्रचार बन्धु की उपाधि प्रदान की गई है।

प्रश्न 2- समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन किसने कहा।

उत्तर- समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन विंसेंट स्मिथ द्वारा कहा गया।

प्रश्न 3-समुद्रगुप्त की मुद्राएं।

उत्तर- समुद्रगुप्त द्वारा 6 प्रकार की मुद्राएं चलाई 1- गरुड़ प्रकार 2-धनुर्धारी प्रकार 3-परभु प्रकार 4-अश्वमेघ प्रकार 5- व्याघ्र हनन प्रकार 6- वीणा वादन प्रकार

प्रश्न 4-समुद्रगुप्त की मृत्यु हुई।

उत्तर- समुद्रगुप्त की मृत्यु 375 ईसवी में हुई। इसका शासनकाल 355 से 375 ईसवी तक रहा।

प्रश्न 5- समुद्रगुप्त की पत्नी का नाम।

उत्तर- समुद्रगुप्त की पत्नी का नाम दत्ता देवी था।

प्रश्न 6-समुद्रगुप्त के पिता का नाम।

उत्तर- समुद्रगुप्त के पिता का नाम चंद्रगुप्त प्रथम था।

प्रश्न 7-समुद्रगुप्त का दरबारी कवि कौन था।

उत्तर- समुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण था।

सम्राट अशोक (Ashoka) (273 ई.पू.से 232 ई.पू.) Maurya emperor “Ashoka the great”

 सम्राट अशोक (273 ई.पू.से 232 ई.पू.)

पिता– बिंदुसार या अमित्रचेट्स/अमित्रघात
माता– धम्मा (महाबोधि वंश बौद्ध ग्रंथ में)
-पासादिका (दिव्यावदान ग्रंथ में)
-सुभ्रद्रांगी (अवदान माला ग्रंथ में) पत्नी- असंघमित्रा
-महादेवी
-पद्मावती
-तिष्पराक्षिता
-कारूवाकी (प्रयाग स्तंभ लेख द्वारा)
पुत्र   – कुणाल
-महेंद्र
पुत्रियां  – संघमित्रा
– चारुमति
अशोक के अन्य नाम:-
-देवानामप्रिय
-प्रियदर्शी (भाब्रू अभिलेख)
-बुद्ध शाक्य (मास्की अभिलेख)                                                               -अशोक (मस्की, गुर्जरा,नेत्तूर और उड़ेगोलम अभिलेखों में)
-अशोक (रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख में)
-अशोक वर्धन (पुराणों में)

 

सम्राट अशोक
और पढ़े जनजातीय विद्रोह 
सर्वप्रथम टिफेन थेलर महोदय ने 1750 ई. में दिल्ली- मेरठ अभिलेख की खोज की थी। अशोक के दिल्ली टोपरा अभिलेख को जेम्स प्रिंसेप ने सन् 1837 ई. में सर्वप्रथम पढ़ने में सफलता प्राप्त की।
अशोक के अभिलेखों को शिलालेखों, स्तंभलेख व गुहा लेखों में वर्गीकृत किया गया है।
अशोक के सभी अभिलेखों की भाषा प्राकृत है तथा इनकी लिपि ब्राह्मी खरोष्टी आरमेइकयूनानी है।
अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा बौद्ध भिक्षु उपगुप्त ने दी थी।
सम्राट अशोक 273 ई.पू.में सिंहासन पर बैठा परंतु उसका राज्याभिषेक 4 साल बाद 269 ई.पू. में हुआ ।
अभिषेक के 8 वर्ष बाद 261 ई.पू. में कलिंग का युद्ध लड़ा। जिसका उल्लेख अशोक के 13वें शिलालेख में मिलता है।
कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार को देखकर सम्राट अशोक की अंतरात्मा को बहुत आघात पहुंचा और उसने दिग्विजय के स्थान पर धम्म विजय की नीति को अपनाया तथा सदा के लिए युद्ध की नीति को त्याग दिया।
अशोक द्वारा कश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में देवपत्तन नामक दो नगरों को बसाया ।
इसके कौशांबी अभिलेख को रानी का अभिलेख कहा जाता है। अशोक ने सहिष्णुता, उदारता, और करुणा के त्रिविध आधार पर राजधर्म की स्थापना की थी।
भारत का प्रथम अस्पताल व औषधि बाग का निर्माण अशोक द्वारा कराया गया था।
अपने बड़े भाई सुमन के पुत्र निग्रोथ से प्रेरित होकर उपगुप्त से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
सम्राट अशोक ने ईरान का शासक डेरियस जो हखमनी वंश का शासक था, उसी से प्रेरित होकर अभिलेख लिखवाना प्रारंभ किया।
अशोक ने भारत में ब्राह्मी लिपि, पाकिस्तान में खरोष्टी, अफगानिस्तान में अरमाइक तथा ग्रीक में ग्रीक (तुर्की/एशिया माइनर) भाषा में लिखवाये है।
अशोक अपने बड़े भाई के पुत्र निग्रोथ के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ तथा उसके प्रवचन सुनकर बौद्ध धर्म अपना लिया, लेकिन उपगुप्त द्वारा सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा प्राप्त हुई।
बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद अशोक द्वारा एक उपासक के रूप में उसने
बोधगया (10 वे वर्ष) निगालि सागर (12 वे वर्ष) तथा लुंबिनी (20 वे वर्ष) की यात्रा की।
अशोक द्वारा बराबर की पहाड़ियों में चार गुफाओं का निर्माण कराया गया कर्ज, चौपार, सुदामा तथा विश्व झोपड़ी था, जो कि आजीवको का निवास स्थान था।
आजीवको को नागार्जुन गुफा अशोक के पुत्र दशरथ द्वारा प्रदान की गई थी।
बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा| इनके अलावा निम्नवत धर्म प्रचारक भेजे गए-
महादेव (महिषमंडल मैसूर)
रक्षित (वनवासी कर्नाटक)
मज्झिम (हिमालय देश)
धर्म रक्षित (उपरांतक) मज्झान्तिक (कश्मीर तथा गांधार)
महारक्षित (यूनान देश)
महाधर्म रक्षित (महाराष्ट्र)
सोना तथा उत्तरा (सुवर्ण भूमि) आदि।
बौद्ध ग्रंथ दीपवंश तथा महावंश के अनुसार बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति सम्राट अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में हुई जिसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स बौद्ध भिक्षु द्वारा की गई थी।

अशोक के शिलालेख (rock edicts)                                                अशोक के शिलालेखों को प्रमुख दो भागों में बांटा जाता है
1. दीर्घ शिलालेख
2. लघु शिलालेख

1.दीर्घ शिलालेख :-
दीर्घ शिलालेखों की कुल संख्या 14 है जो 8 स्थानों से प्राप्त हुए हैं

1.शाहबाजगढ़ी- पेशावर (पाकिस्तान)
2.मानसेहरा- हजारा (पाकिस्तान)
3.कालसी- देहरादून (उत्तराखंड, भारत)
4.गिरनार- जूनागढ़ (काठियावाड़, गुजरात, भारत)                            5.धौली – पुरी (उड़ीसा, भारत)                                                     6.जौगढ़- गंजाम (उड़ीसा, भारत)
7.एर्रगुडि – कर्नूल (आंध्र प्रदेश, भारत)
8. सोपारा- थाना (महाराष्ट्र, भारत)

प्रथम लेख:-

इस लेख में पशुबलि की निंदा की गई। जीव हत्या पर निषेध के बारे में लिखा गया है:- यहां कोई भी जीव मारकर बलि न दिया जाए और न कोई ऐसा उत्सव मनाया जाए जिसमें पशुओं की हत्या की जाए।

दूसरा लेख:-

* चोल, पांण्ड़य, सातीयपुत्र, केरलपुत्र (चेर) और ताम्रपर्णी (श्रीलंका) की जानकारी प्राप्त होती है।
*मनुष्य एवं पशुओं की चिकित्सा का प्रबंध किया गया।
*औषधीय जड़ी बूटियों के लगाने की सूचना प्राप्त होती है।

तीसरा लेख:-

अशोक के इस शिलालेख में प्रशासन के तीन महत्वपूर्ण अधिकारियों के नाम मिलते हैं –
1.युक्त- इसका कार्य जिला स्तर पर राजस्व बसूलना था।
2. रज्जुक- यह एक भूमि की पैमाइश करने वाला अधिकारी होता था, जो वर्तमान के “बंदोबस्त अधिकारी” की तरह कार्य करता था।
3. प्रादेशिक- यह मंडल स्तर का प्रमुख अधिकारी होता था, जो न्याय के कार्य का निर्वहन करता था।
उपरोक्त तीनों अधिकारियों के बारे में अशोक अपने इस अभिलेख में कहता है:-
कि मैंने अपने राज्यभिषेक के 12वें वर्ष बाद यह आज्ञा जारी की कि मेरे साम्राज्य में सभी जगह युक्त, रज्जुक तथा प्रादेशिक प्रत्येक पांचवें वर्ष राज्य का दौरा करें जिससे वे प्रजा को धर्म की और अन्य कार्यों की शिक्षा दे सकें।
माता पिता की आज्ञा मानना, मित्रों, संबंधियों, ब्राह्मणों एवं श्रमणों के प्रति उदार भाव रखना। जीवो पर हिंसा न करना, अल्प व्यय और अल्प संचय अच्छी बात है।

चौथा लेख:-

प्रियदर्शी के धर्म आचरण से इसमें भेरीघोष की जगह धम्म घोस की घोषणा की गई है।
जीवित प्राणियों के बध और हिंसा का त्याग, ब्राह्मणों, संबंधियों और श्रवणों का आदर, माता-पिता का आज्ञा पालन इतना बढ़ गया है, जितना पहले कई सौ वर्षों तक नहीं हो पाया था।

पांचवा लेख:-

इसमें अशोक के अभिषेक के 14वें वर्ष में धर्म महामात्रो की नियुक्ति की जानकारी मिलती है।
इसमें अशोक कहता है “उपकार करना कठिन है और जो भला करता है वह एक कठिन कार्य करता है।”
धम्महामात्र जनता के बीच में उनके कल्याण तथा उनके सुख के लिए और उनके कष्ट दूर करने के लिए प्रयास कर रहे हैं।

छठा लेख:-

इस लेख में आत्म नियंत्रण की शिक्षा दी गई है। इस लेख में सम्राट अशोक कहता है “कि मुझे हर समय प्रजा के बारे में जानकारी उपलब्ध कराई जाए चाहे मैं भोजन पर, अंत:पुर में या में शयनकक्ष में क्यों ना हो।”

सातवां लेख:-

इस लेख में अशोक सभी संप्रदाय के लोगों के निवास की बात करता है, कि वह सभी जगह निवास करें।

आठवां लेख:-

इसमें अशोक के अभिषेक के 10वें वर्ष बोधगया से प्रारंभ की गई धम्मयात्रा की जानकारी प्राप्त होती है।

नवां लेख:-

इसमें अशोक विभिन्न मंगलाचार अर्थात शिष्टाचार की बात करता है जिसमें गुरुजनों, ब्राह्मणों, दासों, सेवकों आदि के साथ शिष्ट व्यवहार करना चाहिए।

दसवां लेख:-

इस लेख में अशोक द्वारा आदेशित किया गया है कि “राजा तथा उच्च अधिकारी सभी प्रजा के हितों के बारे में सोचें।”
इसमें सम्राट अशोक द्वारा यश और कीर्ति की जगह धम्म का पालन करने पर जोर दिया है।

ग्यारहवां लेख:-

इस लेख में धम्म की व्याख्या की गई है।
“धम्म जैसा कोई दान नहीं, धम्म जैसी कोई प्रशंसा नहीं, धम्म जैसा कोई बंटवारा नहीं और धम्म जैसी कोई मित्रता नहीं।”

बारहवां लेख:-

इसमें अशोक ने सभी महामात्रों की नियुक्ति तथा सभी के विचारों का सम्मान करने की बात कही है।
सभी संप्रदायों की वृद्धि हो क्योंकि सबका मूल संयम है लोग अपने संप्रदाय की प्रशंसा तथा दूसरों के संप्रदाय की निंदा न करें।

तेरहवां लेख:-

अशोक के इस लेख में कलिंग युद्ध तथा उसके हृदय परिवर्तन की बात कही गई है।
अशोक अपने राज्य की जंगली जनजातियों को संतुष्ट रखता है और यह कहता है “कि उसका हृदय परिवर्तन हुआ न कि शक्ति क्षीण हुई है।”
इसमें 5 यवन राजाओं के नामों का वर्णन है जहां धर्म प्रचारक भेजे गए-
अन्तियोक (यमन)
तुलामाया (मिस्र)
अंतेकिन (मकदूनिया)
मक (साइरीन का मैगास)                                                            आलिक्य सुंदर या आलिक्य शुदल(एपिरस का अलेक्जेण्ड़र)।
दक्षिण भारत के चोल, पांण्ड्य, सातियपुत्र, केरलपुत्र (चेर) और ताम्रपर्णी पर विजय तथा सभी धर्म का पालन करते हैं।

चौदहवां लेख:-

इस लेख में अशोक ने जनता को धार्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता है।

mahatma gandhi ka jivan parichay|पुस्तकें|संस्थाये|आन्दोलन |राजनितिक गुरु |वंशज|महत्वपूर्ण घटनाएँ

mahatma gandhi ka jivan parichay
सत्य, अहिंसा के पुजारी Mahatma Gandhi ka jivan Parichay जानना ही हमारे जीवन के क्या उद्देश्य होने चाहिए इसकी अनुभूति कराते हैं। शान-शौकत का जीवन छोड़कर अर्ध्द नंगे फकीर की भांति जीवन जीने वाले Mahatma Gandhi ka jivan Parichay कौन नहीं जानना चाहेगा। उस महापुरुष ने बिना किसी हथियार के प्रयोग से उस कालखंड की महाशक्ति से भारत को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आज भी संपूर्ण विश्व गांधी जी के आदर्शों का लोहा मानता है। दोस्तों आज हम लोग इस लेख में शांति के दूत Mahatma Gandhi ka jivan Parichay, उनके द्वारा स्थापित संस्थाएं, पुस्तकें,आंदोलन, महत्वपूर्ण घटनाएं, वंशज, जन्म, मृत्यु, आदि के बारे में चर्चा करेंगे।
महात्मा गांधी:-
• मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के काठियावाड़ के पोरबंदर स्थान पर हुआ था।
•महात्मा गांधी Mahatma Gandhi जी के पिता करमचंद गांधी एक कट्टर हिंदू थे जो कि दीवान थे।                                                                         
 • इनका विवाह कस्तूर बाई (कस्तूरबा) के साथ हुआ, उस समय उनकी उम्र मात्र 13 वर्ष थी।
• 18 वर्ष की उम्र में गांधीजी को पुत्र प्राप्ति हुई।

•महात्मा गांधी जी के प्रथम पुत्र का स्वर्गवास हो जाने के बाद उन्हें चार पुत्रों की प्राप्ति हुई:-

-हरीलाल गांधी (1888)                                                                  -मणिलाल गांधी (1292)
-रामदास गांधी (1897)
-देव दास गांधी (1900)

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• महात्मा गांधी Mahatma Gandhi ने बैरिस्टरी की पढ़ाई इन्होंने इंग्लैंड से प्राप्त की।       

• 1893 में एक व्यापारी दादा अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका गए इसी दौरान उन्हें प्रजातिय उत्पीड़न, भेदभाव गोरो द्वारा काले लोगों से रंगभेद आदि के बारे में कटु व्यवहार का अनुभव हुआ।

• रेलवे के प्रथम श्रेणी डिब्बे में डरबन से प्रिटोरिया की यात्रा करते समय इन्हें एक गोरे ने पुलिस की सहायता से मेरित्सबर्ग स्टेशन पर धक्का देकर नीचे उतार दिया। इस घटना ने गांधी जी के जीवन में नया मोड़ ला दिया।

• दक्षिण अफ्रीका में भारतीय तीन वर्गों में संगठित थे:-
-दक्षिण भारत से आए मजदूर
–  गन्ने के खेत में काम करने वाले मजदूर
-मेमन मुसलमान मजदूर
•”एशियाटिक रजिस्ट्रेशन एक्ट” के तहत प्रत्येक भारतीय को दक्षिण अफ्रीका में पंजीकरण प्रमाण पत्र हमेशा पास रखना पड़ता था तथा कर अदा करना होता था।
• पहली सफलता गांधीजी को 1906 में एशियाटिक रजिस्ट्रेशन एक्ट को समाप्त करवाने में प्राप्त हुई ।
1894 में गांधीजी ने अफ्रीका में “नटाल इंडियन” कांग्रेस की स्थापना की तथा कई बार जेल गए।
• 1910 में गांधी जी ने “टाल्सटाय फार्म” की स्थापना अपने एक जर्मन शिल्पकार मित्र “कालेन बाख” की मदद से की।
• दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा “इंडियन ओपिनियन” नामक अखबार का प्रकाशन प्रारंभ किया।

• महात्मा गांधी Mahatma Gandhi जी को दक्षिण अफ्रीका में 1914 में अधिकांश काले कानूनों को रद्द कराने में प्रयोग किए गए अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन के द्वारा पहली महान सफलता प्राप्त हुई।

* दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा 1904 में “फिनिक्स आश्रम” की स्थापना की गई।

• सत्य और अहिंसा का प्रयोग 1906 में करके गांधी जी द्वारा अवज्ञा आंदोलन जिसे “सत्याग्रह” नाम दिया गया प्रारंभ किया।

• गांधी जी द्वारा स्वराज की व्याख्या अपनी पुस्तक “हिंद स्वराज” (1909) में की गई।

•दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों का इकरारनामा समाप्त होने पर उन पर 3 पाउंड का कर लगा दिया जाता था। जिसे रद्द कराने में गांधीजी की अहम भूमिका रही।

•अफ्रीकी सुप्रीम कोर्ट द्वारा विवाह पंजीकरण प्रमाण पत्र आवश्यक कर दिया। जो केवल ईसाई पद्धति से संपन्न शादियों को प्रदान किया जाता था, अन्य पद्धति से संपन्न शादियां अवैध घोषित मानी गई, जो कि भारतीयों ने अपनी महिलाओं और बच्चों का अपमान समझा को समाप्त कराने में गांधीजी का योगदान रहा।

इन्हें भी पढ़े  राजाराम मोहन राय 

•जनवरी 1915 में गांधीजी अफ्रीका से भारत वापस आ गए और “गोपाल कृष्ण गोखले” को अपना राजनीतिक गुरु बनाया।

•प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में गांधी जी द्वारा लोगों को सेना में भर्ती हेतु इस आशय से प्रेरित किया गया कि युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार स्वराज प्रदान करेंगी इसी कारण गांधी जी को “भर्ती करने वाला सार्जेंट” भी कहा गया।

• गांधी जी द्वारा 1916 में साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) की स्थापना की गई।

• गांधीवादी तरीके (सत्याग्रह) को आजमाने का अवसर गांधी जी को अपने चंपारण आंदोलन (1917) अहमदाबाद मजदूर आंदोलन (1918) तथा खेड़ा आंदोलन (1918) में प्राप्त हुआ।      •महात्मा गांधी की हत्या नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर 30 जनवरी 1948 को उस समय कर दी गई, जब वह बिरला भवन (बिरला हाउस) में शाम को टहल रहे थे।

चंपारण सत्याग्रह (1917):-

महात्मा गांधी Mahatma Gandhi जी द्वारा भारत में सत्याग्रह का प्रथम प्रयोग बिहार के चंपारण (1917) में किया गया। •इस आंदोलन का प्रमुख कारण तिनकठिया पद्धति था जिसमें किसानों को अपनी भूमि के कम से कम 3/20 भाग पर नील की खेती करना तथा मालिकों द्वारा निर्धारित दामों पर बेचने का अनुबंध करा लिया गया था।

•जर्मनी में रासायनिक रंग (डाई) का विकास हो गया था। जिसके कारण बागान मालिकों ने नील की खेती बंद कर दी तथा किसान भी इससे छुटकारा चाहते थे। इसी का फायदा उठाकर मालिकों ने इसकी फसल न करने पर किसानों पर लगान व अन्य करो की दरों में वृद्धि कर दी।

• 1917 में चंपारण के किसान “राजकुमार शुक्ला” लखनऊ में गांधी जी से मिले तथा चंपारण आने का आग्रह किया।

• चंपारण मामले की जांच करने में महात्मा गांधी Mahatma Gandhi जी के सहयोगी राजेन्द्र प्रसाद, बृज किशोर, मजहर-उल- हक, नरहरि पारिख, महादेव देसाई, जेबी कृपलानी थे।

• अनुग्रह नारायण सिन्हा, शंभू शरण वर्मा और रामनवमी प्रसाद इस सत्याग्रह से संबंधित अन्य लोकप्रिय नेता थे।

• चंपारण किसानों को हर्जाना दिया जाए तथा गोरे बागान मालिकों द्वारा अवैध वसूली का 25% हिस्सा किसानों को लौटाने पर सहमति बनी।

• गांधी जी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रथम आंदोलन सफलतापूर्वक जीत लिया गया।

“एनजी रंगा” ने महात्मा गांधी के चंपारण आंदोलन का विरोध किया था।
रविंद्र नाथ टैगोर द्वारा गांधी जी को चंपारण सत्याग्रह के दौरान “महात्मा” की उपाधि प्रदान की गई।

गांधी जी के वंशज
देखा जाए तो महात्मा गांधी जी के वंशज आज भी विश्व के विभिन्न देशों में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत हैं गांधीजी के 4 बेटे व 13 पोते पोतियां थी। जिनके पीढ़ी दर पीढ़ी लगभग 154 सदस्य दुनिया के विभिन्न देशों में निवास कर रहे हैं।

 राजा राममोहन राय (1774-1833) RAJA RAMMOHAN ROY (A GREAT INDIAN SOCIAL REFORMMER)

 राजा राममोहन राय (1774-1833)
राजा राममोहन राय का जन्म सन 1774 ईस्वी में राधानगर बंगाल में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था|
बंगाल में प्रारंभ हुए सुधार आंदोलन का नेतृत्व इनके द्वारा किए जाने के कारण इन्हें भारतीय पुनर्जागरण का जनक, आधुनिक भारत का निर्माता, नवजागरण का अग्रदूत, भारतीय राष्ट्रवाद का पैगंबर, अतीत और भविष्य के मध्य सेतु, प्रथम आधुनिक पुरुष तथा युग दूत, नवप्रभात का तारा, सुधार आंदोलनों का प्रवर्तक, भारतीय जागृति का जनक, भारतीय पत्रकारिता के अग्रदूत, कहा जाता है।
 राजा राममोहन राय
  • राजा राममोहन राय (1774-1833)
राजा राममोहन राय बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। 15 वर्ष की अवस्था में इनका एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उनके द्वारा मूर्ति पूजा का विरोध किया गया था।
विद्रोही स्वभाव होने के कारण मूर्ति पूजा का विरोध करने पर इनका पिता से मतभेद हो गया तथा यह नेपाल चले गए। जहां इन्हें बौद्ध दर्शन का ज्ञान प्राप्त हुआ तथा हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और इस्लाम धर्म के सिद्धांतों का परिचय प्राप्त हुआ।
एक सुधारवादी होने के कारण मानवीय के आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं सामाजिक समानता के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। एकेश्वरवाद को सब धर्मों का मूल बताया। जिसे अपने पहले फारसी भाषा लिखे ग्रंथ तोहफत-उल-मुहदीन (एकेश्वरवादियों को उपहार) 1809 में प्रकाशित हुआ।
राजा राममोहन राय द्वारा प्रारंभ किए गए भारतीय पुनर्जागरण पर टिप्पणी करते हुए प्रोफ़ेसर जी. एन. सरकार ने कहा “यह एक गौरवमयी ऊषा का आरंभ था ऐसी ऊषा जैसी संसार में कहीं और देखने को नहीं मिली, एक वास्तविक पुनर्जागरण, जो यूरोपीय पुनर्जागरण जो कुस्तुनतुनिया के पतन के पश्चात आया उससे कहीं अधिक विस्तृत था, अधिक गहरा था, और अधिक क्रांतिकारी था।
1803 ईस्वी में पिता की मृत्यु के बाद राममोहन राय कंपनी की सेवा में नियुक्त किए गए और दिग्बी ने इन्हें अपना दीवान नियुक्त किया। इस पद पर इन्होंने 1814 ई. तक कार्य किया दिग्बी ने अंग्रेजी भाषा सिखाई और उनका परिचय उदारवादी और युक्तियुक्त विचारधारा से करवाया। इनके द्वारा विकसित की गई लेखन शैली की प्रशंसा में बेन्थम ने कहा था “इस शैली के साथ एक हिंदू का नाम न जुड़ा होता तो हम यह समझते कि यह एक बहुत ही उच्च शिक्षित अंग्रेजी कलम से निकली है।”
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राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित संस्थाएं:-
आत्मीय सभा (1814)
वेदांत सोसाइटी (1816) कोलकाता यूनिटेरियन कमेटी (1821)
ब्रह्म सभा/ब्रह्म समाज (20 अगस्त 1828)
कोलकाता में हिंदू कॉलेज (1817)
वेदांत कॉलेज (1825)
राजा राममोहन राय द्वारा लिखित पुस्तकें, लेख, पत्रिकाएं:-
तोहफत- उल-मुहदीन (एकेश्वर वादियों को उपहार) (1809) प्रिसेप्टस ऑफ जीसस (1820) संवाद कौमुदी पत्रिका (1821) मीरात-उल-अखबार (1822) ब्रह्मनिकल मैगज़ीन (अंग्रेजी में) बंगाल हरकारू
राजा राममोहन राय के सामाजिक विचारों का वर्णन:-
राजा राममोहन राय विरोधी थे:-                                                              जाति प्रथा की कठोरता
अर्थहीन रीति-रिवाजों
समाज में व्याप्त बुराइयों
बहुदेववाद तथा मूर्ति पूजा का विरोध
बाल विवाह का विरोध
बहुपत्नी प्रथा व सती प्रथा का विरोध
धार्मिक पुस्तकों, पुरुषों एवं वस्तुओं की सर्वोच्चता में अविश्वास
छुआछूत, अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव का विरोध                                               
राजा राममोहन राय समर्थक थे:-                                                               एकेश्वरवाद
स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार                                                               स्त्रियों की शिक्षा
विधवा विवाह
आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा
उच्च सेवाओं के भारतीयकरण तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका से पृथक   होना। अंतरराष्ट्रीय, स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय।
 

प्रश्न 1 :- राजा राममोहन राय के बचपन का नाम?
राम मोहन राय

प्रश्न 2:- राजा राममोहन राय का जन्म?
सन् 1774 राधानगर (बंगाल) ब्राह्मण परिवार में

प्रश्न 3:- राजा राममोहन राय की पुस्तकें?
तोहफत-उल-मुहदीन (एकेश्वरवाद यों को उपहार) (1809)
प्रीसेट्स ऑफ जीसस (1820) संवाद कौमुदी पत्रिका (1821) मीरात-उल-अखबार (1822) ब्रह्मनिकल मैगजीन (अंग्रेजी भाषा में)
बंगाल हरकारू

प्रश्न 4:- राजा राममोहन राय को कहा जाता था?
भारतीय पुनर्जागरण का जनक आधुनिक भारत का निर्माता नवजागरण का अग्रदूत
भारतीय राष्ट्रवाद का पैगंबर अतीत और भविष्य के मध्य सेतु प्रथम आधुनिक पुरुष तथा युगदूत
नवप्रभात का तारा
सुधार आंदोलन का प्रवर्तक भारतीय जागृति का जनक भारतीय पत्रकारिता के अग्रदूत

 प्रश्न 5:-राजा राममोहन राय ने किस समाज की स्थापना की?                               आत्मीय सभा (1814)
वेदांत सोसाइटी (1816) कोलकाता यूनिटी (1821)
ब्रह्म सभा बाद में ब्रह्म समाज (20 अगस्त 1828)

प्रश्न 6:- राजा राममोहन राय ने किस पत्रिका को प्रारंभ किया?                                 संवाद कौमुदी (1821)

प्रश्न 7:- राजा राममोहन राय की पुण्यतिथि/ मृत्यु?
1833 में ब्रिस्टल (इंग्लैंड) नामक स्थान पर।

प्रश्न 8:- राजा राममोहन राय ने किस का अंत किया?
सती प्रथा (1829 में) लॉर्ड विलियम बेंटिक ने एक कानून बनाकर सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया।
प्रश्न 9:- राजा राम मोहन राय को राजा की उपाधि कब दी गई?

1830 ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर द्वितीय ने राजा की उपाधि प्रदान की।समुद्री मार्ग से इंग्लैंड जाने वाले प्रथम व्यक्ति थे इनको मुगल दरबार द्वारा इंग्लैंड भेजा गया था।