भारत का क्षेत्रफल|अन्य नाम|विस्तार|अंतरराष्ट्रीय सीमा|दर्रे|अपवाह तंत्र

दोस्तों आज हम लोग इस लेख में भारत के संबंध में महत्वपूर्ण तथ्यो का अवलोकन करेंगे। जिसमें भारत का क्षेत्रफल, विस्तार, स्थित, अन्य नाम, अंतरराष्ट्रीय सीमाएं, प्रमुख पर्वत, नदियां, झीलें, भारतीय सीमा से गुजरने वाली विभिन्न रेखाओं आदि के बारे में भी चर्चा करेंगे।

भारत का क्षेत्रफल:-

भारत रूस, कनाडा, चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील व ऑस्ट्रेलिया के बाद सातवां सबसे विशाल देश है। इसका क्षेत्रफल 3287263 वर्ग किलोमीटर है, जो की संपूर्ण विश्व का 2.43 प्रतिशत है। भारत में विश्व की कुल आबादी का 17.5% निवास करती है। यह जनसंख्या की दृष्टि से चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। निकट भविष्य में लगातार जनसंख्या वृद्धि के कारण जल्द ही भारत चीन को पीछे छोड़कर प्रथम स्थान पर पहुंच जाएगा।

भारत का क्षेत्रफल

नामकरण:-

भारत एक विशाल देश है। इसी कारण से उपमहाद्वीप की संज्ञा दी गई है। समय-समय पर इसको विभिन्न नाम से पुकारा गया प्राचीन काल में इसका नाम आर्यावर्त था, जो की बाद में राजा भारत के नाम पर भारत वर्ष नाम से संबोधित किया जाने लगा।

पर्शिया (आधुनिक ईरान) से भारत आए लोगों में सर्वप्रथम भारत के सिंधु घाटी में प्रवेश किया। यह स्थान वैदिक आर्यों का निवास स्थान था। पर्शियन सिंधु नदी को हिंदू नदी कहते थे। क्योंकि यह लोग “स” अक्षर का उच्चारण “ह” अक्षर के समान करते थे। इस प्रकार यह लोग हिंदुस्तान कहने लगे इसी कारण यह लोग यहां के निवासियों को हिंदू कहने लगे। यहां जामुन के पेड़ों की अधिकता के कारण जैन पौराणिक कथाओं के अनुसार हिंदू और बौद्ध ग्रंथों में इसके लिए जम्बूद्वीप शब्द का प्रयोग किया गया है। यूनानियों द्वारा इसे इंडिया कहा गया भारत के संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा जिसे हाल ही में संविधान संशोधन के द्वारा इंडिया शब्द को हटा दिया गया।

भारत की स्थिति और विस्तार:-

भारत-दक्षिण एशिया में स्थित एक चतुष्कोणीय आकृति वाला देश है प्रायद्वीपीय भारत त्रिभुजाकार होने के कारण हिंद महासागर को अरब सागर वह बंगाल की खाड़ी नामक दो शाखाओं में विभाजित करता है। भारत के पूर्व में इंडो-चीन प्रायद्वीप तथा पश्चिम की ओर अरब प्रायद्वीप स्थित है। इसकी स्थिति अक्षीय दृष्टि से उत्तरी गोलार्द्ध में तथा देशांतरीय दृष्टि से पूर्वी गोलार्द्ध में है।
भारत की स्थिति पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में 8°4′ से 37° 6′ उत्तरी अक्षांश तथा 68°7′ से 97°25′ पूर्वी देशांतर के बीच में स्थित है।

भारत के मानक समय का निर्धारण:-

भारत का मानक समय 82.5 पूर्वी देशांतर से निर्धारित किया गया है। जो कि भारत के लगभग मध्य से होकर गुजरती है। तथा उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) के निकट नैनी से होकर निकलती है। इसी स्थान से भारत के मानक समय का निर्धारण किया गया है। 82.5 पूर्वी देशांतर भारत के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश से होकर गुजरती है।

भारत का अक्षांशीय और देशांतरीय विस्तार:-

भारत का अक्षांशीय विस्तार पूर्व से पश्चिम तक 2933 किलोमीटर है। जो की सुदूरस्त पश्चिमी बिंदु गौर मोता अथवा गुहार मोती (गुजरात) से सुदूरस्त पूर्वी बिंदु किबिथू (अरुणाचल प्रदेश) तक है।
भारत का देशांतरीय विस्तार उत्तर से दक्षिण 3214 किलोमीटर है। जो कि सुदूरस्त उत्तर बिंदु सियाचिन ग्लेशियर के निकट इंदिरा कॉल लद्दाख व सुदूरस्त दक्षिणी बिंदु इंदिरा पॉइंट, ग्रेट निकोबार (कन्याकुमारी, तमिलनाडु) में स्थित है।

कर्क रेखा:-

कर्क रेखा भारत के 8 राज्यों से गुजरती है। जो निम्नवत हैं:-
गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और मिजोरम।

भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा की लंबाई और संबद्ध राज्य:-

भारत की कुल अंतर्राष्ट्रीय सीमा 22716.5 किलोमीटर है। जिसमें 15200 किलोमीटर स्थलीय सीमा और 7516.5 किलोमीटर तटीय सीमा है।

भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा से संबद्ध देश:-

बांग्लादेश:-

4096.7 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा वाला देश है। जो भारत के साथ सबसे लंबी सीमा रेखा बनाता है। इससे भारत के राज्यों में पश्चिम बंगाल, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, असम की सीमाएं मिलती हैं।

चीन:-

भारत की चीन के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा की लंबाई 3488 किलोमीटर है ।जो भारत के लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश राज्यों से संबंध है। भारत चीन की सीमा रेखा को मैकमोहन रेखा कहते हैं।

पाकिस्तान:-

भारत के साथ पाकिस्तान की सीमा रेखा की लंबाई 3323 किलोमीटर है। जो गुजरात, राजस्थान, पंजाब, जम्मू कश्मीर तथा लद्दाख से संबंध है। इसकी सीमा रेडक्लिफ रेखा के नाम से जानी जाती है।

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विश्व की जनजातियां|बुशमैन|पिग्मी|मसाई|बोरो|सकाई|सेमांग|बद्दू|

 

विश्व की जनजातियां :-

प्यारे दोस्तों आज हम लोग इस लेख में विश्व की जनजातियों (विश्व की जनजातियां) के बारे में जानेंगे | जनजातियों से आशय है। कि लोगों का ऐसा समूह जो रूढ़िवादी परंपराओं के साथ और उत्पत्ति के समय से ही अपने आदिम स्वरूप में ही जीवन निर्वाह कर रहे रहा है। ऐसे लोगों के समूह को जनजातीय कहा जाता है। विश्व की प्रमुख जनजातियां निम्नलिखित हैं:-

01- बुशमैन (Bushman):-

इस जनजाति के लोगों की आंखें चौड़ी व त्वचा काली होती है। यह प्रायः नग्न अवस्था में रहते हैं। इनका निवास स्थान दक्षिण अफ्रीका के कालाहारी मरुस्थल व लेसोथो, नैटाल, वासूतोलैंड, दक्षिण रोडेशिया तक विस्तृत है। यह लोग हब्सी प्रजाति के हैं। यह बड़े ही परिश्रमी व उत्साही प्रवृत्ति के होते हैं। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय आखेट करना एवं जंगली वनस्पतियों को इकट्ठा करना। यह धूप ठंड एवं वर्षा से बचने के लिए लकड़ियों व पत्तों से निर्मित गुंबदाकर झोपड़ियों का निर्माण करते हैं। यह लोग सर्वभक्षी प्रवृत्ति के होते हैं। उत्सवों आदि में दीमक से बने भोजन को यह बड़े चाव से खाते हैं। इसलिए दीमक को “बुशमैन का चावल”(Bushman’s rise) की संज्ञा दी जाती है।

विश्व की जनजातियां

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02- पिग्मी (Pigmy):-

पिग्मी जनजाति के लोगों के चेहरे की बनावट में नाक चपटी, ओठ मोटे बाहर की ओर उभरे तथा छल्लेदार गुच्छो के समान सिर पर बाल पाए जाते हैं। यह काले निग्रोटो प्रजाति के लोग हैं। इनका कद 01 से 15 मीटर तक होता है। जो कि विश्व की सभी जनजातियों में सबसे कम है। यह लोग गले में बांस की बनी सीटी लटकाए रहते हैं। जिससे पक्षियों की बोली की नकल करके उनका शिकार करते हैं। तथा साथियों से संपर्क बनाए रखने में इसका प्रयोग करते हैं।
पिग्मी जनजाति की कई उपजातियां हैं। जिन्हें सम्मिलित रूप से “आचुआ” नाम से जाना जाता है। इसकी म्बूती तथा बिंगा गोसेरा उपजातियां कांगो बेसिन के गैबोन, युगांडा, दक्षिण पूर्व एशिया व फिलिपींस के वनो, आमेटा और न्यूगिनी के वनों में पाई जाती हैं। निवास के लिए यह कोई स्थाई घर नहीं बनाते यह रहने के लिए मधुमक्खी के छत्ते की तरह इनकी झोपड़ियां होती हैं। जो 2 मीटर व्यास वह डेढ़ मीटर ऊंची होती हैं। इसका दरवाजा लगभग 50 सेंटीमीटर ऊंचा होता है। जिसमें यह घुटनों के बाल खिसक कर घुसते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय आखेट है। इस जनजाति के पुरुष जानवरों की खाल वह महिलाएं पत्तों से अपने कमर के निचले भाग को ढके रखती हैं। इस जनजाति के लोगों को “केला” खाना बहुत पसंद है।

विश्व की जनजातियां

03- मसाई (Masai):-

इस जनजाति के लोगों का बदन छरहरा, कद लंबा तथा त्वचा का रंग भूरा और गहरा कत्थई होता है। यह मुख्यतः चमड़े से बने हल्के वस्त्रो का प्रयोग करते हैं इनमें मेडिटरेनियन (भूमध्य सागरीय) और निग्रोइड जाति के मिश्रण की झलक दिखाई पड़ती है। यह टंगानिका, केन्या व पूर्वी युगांडा के पठारी क्षेत्र में घुमक्कड़ी पशु चारक के रूप में जीवन निर्वाह करते हैं। लेकिन कभी-कभी अस्थाई झोपड़ियों का निर्माण रहने के लिए करते हैं। जिसे “क्राॅल” कहा जाता है। यह लोग गाय को पवित्र मानते हैं,एवं कुत्तों को रखवाली के लिए पालते हैं मसाई लोगों का मुख्य भोजन रक्त है। यह गाय और बैल की गर्दन को रस्सी से बांधकर सुई द्वारा नसों से खून निकलते हैं। इसे ताजे दूध में मिलाकर पीते हैं। मसाई जनजाति के पुजारी/धार्मिक नेता को “लैबान” कहते हैं। जिसका सभी सम्मान करते हैं। यह जनजाति यूरोपीयों के संपर्क में आने से इसके रहन-सहन में काफी बदलाव देखा गया है।

विश्व की जनजातियां

04- बोरो (Boro):-

पश्चिमी अमेजन बेसिन, ब्राज़ील, पेरू और कोलंबिया के सीमांत क्षेत्रों में पाई जाने वाली यह जनजाति बहुत ही लड़ाकू निर्दय, क्रूर प्रवृत्ति की होती है। इस जनजाति के लोगों की त्वचा का रंग भूरा बाल सीधे तथा कद मध्यम होता है। इनका शारीरिक बनगठाव बोरो अमेरिका के रेड इंडियन के समान है। यह लोग अभी भी आदिम कृषक के रूप में जीवन यापन करते हैं। इन लोगों की निर्दयता की पराकाष्ठा इनके द्वारा मनाए जाने वाले उत्सवों में प्रतीत होती है, इनमें यह अपने को श्रेष्ठ दिखाने के लिए मानव हत्या करना, मांस लक्षण करना तथा विजय चिन्ह के रूप में मानव खोपड़ियों को अपने झोंपड़ियो में सजा कर रखते हैं।

विश्व की जनजातियां

05- सकाई(Sakai):-

सकाई जनजाति के लोगों का रंग साफ कद लंबा, सिर लंबा पतला, घुंघराले बाल और अधिकतर निर्वस्त्र रहते हैं। अपने शरीर के नीचे के भाग को घास व पत्तों से ढके रहते हैं। इनका निवास स्थान मलाया प्रायद्वीप, मलेशिया के वन घटिया हैं। यह प्रायः निर्दयी प्रवृत्ति के होते हैं। इनका प्रमुख व्यवसाय कृषि, बागानी कृषि, आखेट आदि होता है। आखेट हेतु यह बांस की नली निर्मित फूक नली का प्रयोग करते हैं। इस जनजाति की महिलाएं पूर्णता स्वतंत्र होती है। उन पर पारिवारिक शासक जैसा कोई दवाब नहीं होता है। बालक बालिकाओं स्वेच्छाचारी होते हैं। अर्थात उनमें संबंधों जैसा कोई प्रावधान नहीं होता है।

विश्व की जनजातियां

06- सेमांग(Semang):-

मुख्यत: मलाया प्रायद्वीप, मलेशिया के वन और कुछ मात्रा में अंडमान, फिलिपींस, मध्य अफ्रीका में सेमांग जनजाति निवास करती है। नीग्रिटो प्रजाति के,नाटा कद, ओठ चपटे मोटे, बाल घुंघराले काले होते हैं।यह अपने गुप्तांगों को ढकने के लिए पेड़ों की छाल को कूटकर उनसे प्राप्त रेशों से पतली- पतली पत्तियों से बुनकर कपड़ों का प्रयोग करते हैं। इनका जीवन वनों की उपज और आखेट पर निर्भर करता है। यह प्रायः पेड़ों पर झोपड़ियां बनाकर निवास करते हैं। इनका मुख्य भोजन रतालु (yam) है।

विश्व की जनजातियां

07- बद्दू (Badawins):-

अरब के उत्तरी भाग के हमद और नेफद मरुस्थल में पाई जाने वाली बद्दू जनजाति कबीले के रूप में चलवासी जीवन व्यतीत करती है। इनका संबंध नीग्रोटो प्रजाति से है। पशुपालन में यह ऊंट भेड़ बकरी घोड़े को पालते हैं। जो बद्दू ऊंटो का पालन करते हैं। उन्हें “रुवाला” कहा जाता है। यह लोग तंबू बनाकर रहते हैं। बद्दू लोगों का रंग हल्का कत्थई और गेहुआ, बाल घुंघराले और काले होते हैं। यह सिर पर स्कार्फ बांधते हैं। महिलाएं लंबे चोंगे व पाजामे के साथ-साथ सिर पर बुर्का पहनती हैं।

विश्व की जनजातियां

08- खिरगीज(Khirghiz):-

मंगोल प्रजाति की यह जनजाति मध्य एशिया में किर्गिस्तान गणराज्य में पामीर के पठार और थ्यानशान पर्वत माला में निवास करती है। इनका कद नाटा, पीला रंग, सुगठित शरीर, आंखें तिरछी व छोटी, बालों का रंग काला होता है। यह अपने पशुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ऋतु परिवर्तन के हिसाब से ले जाते हैं। अतः चलवासी प्रवृत्ति के होते हैं। खिरगीज त्योहारों पर घोड़े के मांस को खाना पसंद करते हैं। यह लोग दूध को सड़ाकर कर खट्टी शराब बनाते हैं। जिसे “कुसिम” कहते हैं। यह निवास के लिए अस्थाई गोलाकार तंबू का प्रयोग करते हैं। जिसे युर्त(Yurt) कहते हैं।यह लोग ऊन व खाल से निर्मित वस्त्रो का प्रयोग करते हैं। पुरुष लंबे कोट तथा पजामा तथा महिलाएं कोट के साथ ऊनी दोडू पहनती हैं।

विश्व की जनजातियां

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09- एस्किमो(Eskimo):-

मंगोलांयड प्रजाति के एस्किमो अमेरिका के उत्तर पूर्व में ध्रुव से सटे ग्रीनलैंड से पश्चिम में अलास्का तथा टुंड्रा प्रदेश में रहने वाली जनजाति है। एस्किमो का शाब्दिक अर्थ “कच्चा मांस खाने वाला” होता है। इन लोगों का रंग भूरा एवं पीला, चेहरा सपाट और चौड़ा तथा आंखें गहरी कत्थई होती है। गालों की हड्डियां ऊंची और सिर लंबा होता है।
एस्किमो लोगों का पालतू पशु रेंडियर है। यह रेडिंयर तथा कैरिबों की खाल से बने वस्त्रो का प्रयोग करते हैं। पांव में लंबे जूते सिर पर फर की टोपी हाथों में दस्ताने तथा दो कोट पहनते हैं। एस्किमो का मुख्य व्यवसाय शिकार करना है। यह वालरस, सील मछली, रेंडियर, श्वेत भालू, कैरीबो, आर्कटिक लोमड़ी आदि का शिकार करते हैं। यह “हारपून”(Harpoon) नामक हथियार तथा “उमियाक” नाव की सहायता से व्हेल का शिकार कर लेते हैं। सील मछली का शिकार करने के लिए प्रयोग की जाने वाली एक छिद्र वाली शैली को “माउपोक”(Maupok) तथा दो छिद्र वाली शैली को “इतुआरपोक”(Ituarpok) को कहते हैं। शिकार के लिए प्रयोग की जाने वाली नाव को कायक(Kayak) कहते हैं। यह लोग बर्फ पर बिना पहियों वाली गाड़ी “स्लेज” जो कि कुत्तों द्वारा खींची जाती है। परिवहन के लिए प्रयोग करते हैं यह लोग बर्फ के टुकड़ों से निर्मित घर जिन्हें “इग्लू”(igloo) कहते हैं, में निवास करते हैं।

विश्व की जनजातियां

भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं|जलोढ़,लैटराइट,लाल,काली,मरुस्थलीय मिट्टियां

भारतीय मृदा के प्रकार

हेलो दोस्तों आज हम लोग इस लेख में भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं (Indian soil types and characteristics) पढ़ेगे और विश्लेषण करेंगे| कृषि प्रधान हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों में मृदा एक बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन है। पौधों के विकास में सहायक महीन कण युक्त और ह्ममस वाले मेंटल के ऊपरी परत के भुरभुरे पदार्थ को मृदा कहते हैं।

मृदा शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द सोलन से हुई मानी जाती है। जिसका अर्थ फर्श होता है। प्राकृतिक रूप से मौजूद मृदा पर कई कारकों का प्रभाव होता है। जैसे मूल पदार्थ, धरातलीय दशा, वनस्पति प्राकृतिक जलवायु, समय, उच्चावच, आदि। समय-समय पर शोधकर्ताओं ने मिट्टी के प्रकारों का विभाजन किया है। लेकिन वर्तमान समय में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भारतीय मृदा को 10 रूपों में वर्गीकृत किया है।

भारतीय मृदा के प्रकार

भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं:-

जलोढ़ मृदा या कछार मिट्टी(Alluvial soil):-

भारतीय मृदा के प्रकार में जलोढ़ मृदा मुख्यतः गंगा सतलज ब्रह्मपुत्र के मैदाने में पाई जाती है इसका क्षेत्रफल लगभग 43.4% है। जो भारत में पाई जाने वाली अन्य मृदाओं में सबसे अधिक है। इसका विस्तार लगभग 142.50 मिलियन वर्ग किलोमीटर में है। यह नर्मदा तथा तापी नदी घाटियों पश्चिमी तथा पूर्वी घाटों तथा गिरीपाद मैदानो में पाई जाती है। इसका रंग हल्के भूरे रंग का होता है। यह बलुआ व से मिश्रित होती है। इसको दो प्रकार में बांटा जा सकता है।

भारतीय मृदा के प्रकार

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बांगर/ भांगर मृदा:-

इस प्रकार की मृदा का रंग काला या बुरा होता है। इसमें अशुद्ध कैल्शियम कार्बोनेट व कंकर होते हैं। इस मिट्टी का विस्तार नदियों के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में होता है। जिससे प्रत्येक वर्ष यहां की परत नई मिट्टी द्वारा निर्मित होती है। इस प्रकार की मृदा में ह्यूमस, चूना, फास्फोरिक अम्ल तथा जैविक पदार्थ की अधिकता होती है। लेकिन पोटाश कम मात्रा में उपलब्ध होता है। इस मृदा में गेहूं, चावल, मक्का, चारा, तिलहन सब्जियां आदि की पैदावार अच्छी होती है।

खादर:-

यह मृदा बांगर मृदा से लगभग 30 मीटर नीचे गहराई में मिलती है। वर्षा काल में नदियों में बाढ़ आने के कारण इसकी ऊपरी परत नई बन जा बनी रहती है जिससे बाहर द्वारा लाई गई मिट्टी से इसकी उर्वरा शक्ति बनी रहती है। इस मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण पाए जाने के कारण इसे स्थानीय भाषाओं में रेह( Reh) कल्लर(kallar) या धुर(thus) कहा जाता है।

लाल मृदा (Red soil):-

लाल मृदा बालू, चिकनी तथा दोमट मिट्टी का मिश्रण है। यह भारत के लगभग 18.6 % भाग (61 मिलियन हेक्टेयर) पर विस्तृत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारतीय मृदा के प्रकार में पाई जाने वाली मृदाओं में दूसरे स्थान पर है। यह मुख्यतः प्रायद्वीपीय क्षेत्र तमिलनाडु, बुंदेलखंड, राजस्थान, काठियावाड़, कच्छ (गुजरात) कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड, मिर्जापुर, सोनभद्र आदि स्थानों में पाई जाती है।

इस मृदा का रंग लाल होता है। जो फेरिक ऑक्साइड के कारण होता है। इस मृदा की ऊपरी परत लाल तथा इसकी निकली परत में पीले रंग का अवक्षेप होता है। यह मिट्टी अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है। इसमें कंकड़ और कार्बोनेट तथा कुछ मात्रा में लवण होते हैं। चूने, फास्फेट, मैग्नीशिया, नाइट्रोजन, ह्यूमस एवं पोटाश आदि अल्प मात्रा में पाए जाते हैं। परंतु निम्न मैदानी भागों में यह मृदा उर्वर, दोमट होती है। तथा इसका रंग गाढ़ा होता है। इस मृदा में मुख्यतः गेहूं, कपास, दलहनों, तंबाकू मिलेट, तिलहनों, आलू एवं फलों की खेती की जाती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

काली मृदा(Black soil):-

क्षेत्रफल की दृष्टि से यह मिट्टी भारत में तीसरे नंबर पर आती है। इसको रेंगुर मिट्टी, कपासी मिट्टी तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चेर्नोजेम आदि नाम से जाना जाता है। इस मृदा का विस्तार भारत में लगभग 50 मिलियन हेक्टेयर में है। जो सभी प्रकार की मृदाओं का लगभग 15% है। इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी लावा के अपरदन के द्वारा हुआ है। जो मुख्यत क्रिटेसस युगीन अपक्षयित लावा रहा होगा। मैग्नेटाइट, एल्युमिनियम सिलीकेट, लोहा, ह्यूमस आदि की उपस्थिति के कारण इसका रंग काला हो जाता है।

यह मृदा गीली होने पर चिपकने वाली हो जाती है। तथा सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसलिए इस मिट्टी को स्वतः कृष्य मिट्टी भी कहा जाता है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस और जैविक पदार्थों की कमी पाई जाती है। गीली होने पर इसमें जुताई करना अत्यधिक कठिन हो जाता है। यह मृदा काफी उर्वर होती है। जिसमें कपास, दलहनों, मिलेट, अलसी अरंडी, तंबाकू, गन्ना, सब्जियां, नींबू आदि की खेती के लिए उपयुक्त है। यह मिट्टी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में विस्तृत है।

भारतीय मृदा के प्रकार

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मरुस्थलीय मृदा(Desert soil):-

इस प्रकार की मृदा देश की मृदा का लगभग 4% है। जिसका क्षेत्रफल लगभग 15 मिलियन हेक्टेयर है। यह मृदा मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, दक्षिणी हरियाणा, अरावली पर्वत के निकटवर्ती क्षेत्र में पाई जाती है।

मरुस्थलीय मृदा में जैविक पदार्थ की कमी और नाइट्रोजन एवं कैल्शियम कार्बोनेट की विधि प्रतिशतता पाई जाती है। इस प्रकार की मिट्टी में आद्रता और नमी को धारण करने की क्षमता कम होती है। इस मिट्टी में घुलनशील लवणों की मात्रा अधिक होती है। इंदिरा नहर से प्राप्त जल द्वारा पश्चिमी राजस्थान की मिट्टियों का कायापलट हुआ है। इस प्रकार की मिट्टी में मुख्ता बाजरा, ग्वार, दलहनों, चारे आदि फसलों की खेती की जाती है। इन फसलों में पानी की न्यून आवश्यकता होती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

लैटराइट मिट्टी(Laterite soil):- 

लैटराइट मिट्टी का नामकरण लैटिन भाषा के शब्द लैटर से हुआ है। जिसका अर्थ ईट होता है। यह मिट्टी भीगी हुई स्थिति में काफी मुलायम होती है लेकिन सूखने पर यह इतनी कड़ी हो जाती है कि ईट के समान हो जाती है। इस प्रकार की मिट्टी मानसूनी जलवायु तथा मौसमी वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाती है। इन मृदाओं का निर्माण आर्द्र एवं शुष्क ऋतुओं की बारंबारता से सिलिकामय पदार्थों के निक्षालन के परिणाम स्वरुप हुआ है। इस प्रकार की मिट्टी में ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण इसका रंग लाल होता है। इस मिट्टी का विकास मुख्यतः पठार के उच्च भागों में हुआ है।

इस मिट्टी का विस्तार भारत में लगभग 12.2 मिलियन हेक्टेयर है। यह भारत की समस्त मृदाओं की 3.7 प्रतिशत है। इस प्रकार की मृदा मुख्यतः पश्चिमी घाट की पहाड़ियों, राजमहल की पहाड़ियों, पूर्वी घाट, सतपुड़ा, विंध्य, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम की उत्तरी पहाड़ियों, मेघालय की गारो पहाड़ियों में पाई जाती है। इस मृदा में लोहे और एल्युमिनियम की प्रचुरता होती है, वहीं इसमें नाइट्रोजन, पोटेशियम, पोटाश, चूना और जैविक पदार्थों की न्यूनता होती है। हालांकि उनकी उर्वरकता निम्न होती है। इनमें चावल, रागी गन्ने और काजू की खेती होती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

पर्वतीय मृदा(Mauntein soil):-

इस प्रकार की मृदा हिमालय की घाटियों में ढलानों पर लगभग 2700 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर पाई जाती है। भारत के लगभग 18.2 मिलियन हेक्टर क्षेत्रफल में फैली है। समस्त मृदा में इसका लगभग 5.5% भाग है यह मिट्टी अप्रौढ़ है तथा इनका क्रमबद्ध अध्ययन अभी बाकी है। इस प्रकार की मृदा का रंग भूरा होता है।

यह मिट्टी दार्जिलिंग, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, लद्दाख आदि क्षेत्रों में पाई जाती है। यहां देवदार, नीले चीड़ के वृक्ष अधिकता में पाए जाते हैं। इस मिट्टी का चरित्र अम्लीय होता है इसमें ह्यूमस की निम्नता पाई जाती है। इन मृदाओं में चावल, मक्का, फलों एवं चारे की खेती की जाती है। वनाच्छादन के कारण ढाल एवं वर्षा की मात्रा के आधार पर उच्च स्थानीय मृदाओं को भूरी एवं लाल मृदा कहा जाता है।

भारतीय मृदा के प्रकार

उपरोक्त भारतीय मृदा के प्रकार में जलोढ़, लैटराइट, काली, लाल, मरुस्थलीय, पर्वतीय मिट्टी आदि का अध्ययन में प्रकार और विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्त की गई।

ज्वालामुखी किसे कहते है |प्रकार |सक्रिय,शांत,मृत,शील्ड ज्वालमुखी|ज्वालामुखी के अंग

ज्वालामुखी किसे कहते है

 

दोस्तों आज हम लोग इस लेख में ज्वालामुखी के बारे में अध्ययन करेंगे जिसमें ज्वालामुखी किसे कहते हैं। ज्वालामुखी की परिभाषा, ज्वालामुखी के प्रकार, ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ, लावा मैग्मा में अंतर, शांत, सक्रिय, मृत, शील्ड ज्वालामुखी। ज्वालामुखी कैसे फटता है, ज्वालामुखी के अंग, ज्वालामुखी का विश्व वितरण, विश्व के प्रमुख ज्वालामुखी, भारत के प्रमुख ज्वालामुखी, ज्वालामुखी शंकु की आकृति के बारे में विस्तृत अध्ययन करेंगे।

      ज्वालामुखी किसे कहते है      

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ज्वालामुखी(VALCANO)

ज्वालामुखी पृथ्वी पर एक विवर या छिद्र (opening)अथवा दरार (Repture) है जिसका संबंध पृथ्वी के आंतरिक भाग से पिघला पदार्थ लावा ,राख, गैस व जलवाष्प का उद्गार होता है। ज्वालामुखी क्रिया में पृथ्वी के अंदर से निकले मैग्मा जो कि पृथ्वी के अंदर विभिन्न रूपों में ठंडा हो जाता है। तथा कभी-कभी धरातल पर भी आ जाता है, और ठंडा होकर यह एक रूप धारण कर लेता है।

ज्वालामुखी क्रिया दो रूपों में संपन्न होती है 1

भूगर्भ में /धरातल के नीचे:-

जब ज्वालामुखी का मैग्मा पृथ्वी से बाहर नहीं निकल पाता है। तो वह पृथ्वी के आंतरिक भाग में ही ठंडा होकर जम जाता है इसके फलस्वरुप पृथ्वी के आंतरिक भाग में विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। जो निम्नलिखित है:-

बैथोलिथ(Batholith):-

चट्टानों में जब मैग्मा गुंबदनुमा आकार में जम जाता है। जो कि ठंडा होने की मंदगति होने के कारण बड़े-बड़े रवों के आकार में प्रदर्शित होता है। इस प्रकार से निर्मित चट्टानें ग्रेनाइट प्रकार की होती हैं। इस प्रकार की चट्टानें अपेक्षाकृत अधिक गहराई में निर्मित होती हैं। जब यही मैग्मा अवसादी चट्टानों में अपेक्षाकृत कम गहराई में ठंडा होता है, तो इससे कई प्रकार की स्थलाकृतियां का निर्माण होता है:-

लैकोलिथ(Laccolith):-

जब मैग्मा पृथ्वी के अंदर उत्तल ढ़ाल के आकार में जम जाता है जिसके फल स्वरुप जो आकृति बनती है। उसे लैकोलिथ कहा जाता

लैपोलिथ(Lapolith):-

जब लावा का जमाव अवतल बेसिन के आकार में होता है जिसके फल स्वरुप जो आकृति का निर्माण होता है। उसे लोपोलिथ कहा जाता है।

फैकोलिथ(Phacolith):-

जब लावा का जमाव मोड़दार पर्वतों के अभिनतियो व अपनतियों में अभ्यांतरिक होता है। जिसके कारण बनने वाली आकृति को फैकोलिथ कहा जाता है।

सिल(Sill):-

जब लावा का जमाव क्षैतिज रूप में होता है। तो जो आकृति बनती है उसे सील कहते हैं इसी सिल की पतली परत को शीट कहा जाता है।

डायक(Dayke):-

जब लावा का जमाव लंबवत रूप में होता है। तो जो आकृति बनती है उसे डायक कहते हैं। और डायक के छोटे-छोटे रूप को स्टॉक कहा जाता है।

धरातल के ऊपर:-

इसके अंतर्गत ज्वालामुखी धरातलीय प्रवाह, गर्म जल के स्रोत, गेंसर, धुआंरे आदि आते है।
जब ज्वालामुखी में विस्फोट होता है। और लावा धरातल के ऊपर निकलता है। जिसके फलस्वरुप विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। और इन्हीं आकृतियों के बाहरी भाग पर शंकु का निर्माण होता है। इन्हीं शंकु में ऊपर क्रेटर और काल्डेरा आकृतियों का निर्माण होता है। ज्वालामुखी से निकलने वाले लावा की घटती तीव्रता के आधार पर ज्वालामुखी शंकुओ को निम्नलिखित प्रकारों में बांटा जाता है:-
पीलियन तुल्य
वल्कैनो तुल्य
स्ट्रांबोली तुल्य
हवाईयन तुल्य

पिलियन तुल्य:-

पिलियन तुल्य ज्वालामुखी सबसे विनाशकारी होते हैं। क्योंकि मैग्मा में सिलिका की अधिक मात्रा होने के कारण मैग्मा अत्यधिक अम्लीय और चिपचिपा हो जाता है। जो कि विस्फोट के बाद शंकु पर कठोरता से जम जाता है। इसी कारण अगला विस्फोट इसी जमे लावा को तोड़ते हुए बाहर निकालने के कारण विनाशकारी विस्फोट में तब्दील हो जाता है। जैसे-
पीली (PELEE)ज्वालामुखी………मार्टीनिक द्वीप
क्राकाटाओ -……………………जावा सुमात्रा
माउंट ताल-……………………..फिलिपींस

वल्केनो तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी अपेक्षाकृत कम विनाशकारी होते हैं। क्योंकि इसमें अम्लीय क्षारीय दोनों प्रकार का मैग्मा निकलता है। इसके साथ-साथ अत्यधिक मात्रा में गैस का उद्धार होता है। जिससे दूर-दूर तक ज्वालामुखी मेंघो का निर्माण होता है। इसकी संरचना फूल गोभी के आकार में प्रदर्शित होती है।

स्ट्राम्बोली तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी के लावा में अम्ल की मात्रा कम होती है। जिससे लावा में कठोरता या चिपचिपापन नहीं होता है। यदि इससे उत्सर्जित गैसों के मार्ग में कोई रुकावट ना हो तो इसमें विस्फोट की संभावना न के बराबर होती है।

हवाई तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी का मैग्मा क्षारीय व तरल होता है। तरल होने के कारण मैग्मा दूर-दूर तक फैल जाता है। जिससे शंकु की ऊंचाई कम रहती है। और शंकु की चौड़ाई अधिक होती है। फलस्वरुप इस प्रकार के ज्वालामुखी का उद्गार अत्यंत शांत होता है।

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ज्वालामुखी के प्रकार:-

ज्वालामुखियों को निम्नलिखित आधारों पर बनता जा सकता है।

सक्रियता के आधार पर:-
1- सक्रिय ज्वालामुखी(Active Valcano):-

इस प्रकार के ज्वालामुखी से सदैव लावा, धूल, धुआं, वाष्प, राख व गैसों का उद्धार होता रहता है। वर्तमान में संपूर्ण पृथ्वी पर इस प्रकार के ज्वालामुखियों की संख्या 500 से अधिक है। भारत का एकमात्र ज्वालामुखी जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह के बैरन द्वीप में स्थित है। सक्रिय ज्वालामुखी की श्रेणी में आता है।

ज्वालामुखी किसे कहते है
विश्व के प्रमुख सक्रिय ज्वालामुखी:-

स्ट्रांबोली (भूमध्य सागर का प्रकाश स्तंभ)-…………………लिपारी द्वीप सिसली।
एटना-……………………………………. …………इटली
कोटोपैक्सी (विश्व का सबसे ऊंचा सक्रिय ज्वालामुखी)… ………इक्वाडोर
माउंट एर्बुश (अंटार्कटिका का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी)- …….अंटार्कटिक
बैरन द्वीप (भारत का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी)- ……………अंडमान निकोबार भारत
कियालू -……………………………………………….हवाई द्वीप (USA)
लांगिला एवं बागाना – ……………………पापुआ न्यू गिनी समेरू- जावा इंडोनेशिया
मेरापी (सर्वाधिक सक्रिय)- ………………..इंडोनेशिया दुकोनो- इंडोनेशिया
यासुर -…………………………………तान्ना द्वीप (वनुआतू)
मौनोलोवा -……………………………..हवाई द्वीप (USA)
ओजल डेल सालाडो- ……………………..अर्जेंटीना 

2- प्रसुप्त ज्वालामुखी (Dormant valcano)

जिन ज्वालामुखियों में वर्षों से विस्फोट या लावा उद्गार नहीं हुआ है। परंतु इस प्रकार की ज्वालामुखी में भविष्य में कभी भी उद्गार होने की संभावना बनी है। प्रसुप्त ज्वालामुखी कहते हैं। जैसे:-
विसुवियस-………………………………. इटली
फ्यूजीयामा- ……………………………….जापान
क्राकाटाओ-………………………………..इंडोनेशिया
नारकोंडम द्वीप में- …………………………..अंडमान निकोबार (भारत)

ज्वालामुखी किसे कहते है
3-शांत ज्वालामुखी(Extinet Volcano):-

इस प्रकार के ज्वालामुखी में अतीत में कभी उद्गार नहीं हुआ है। और न भविष्य में उद्गार होने की संभावना है।
कोह सुल्तान -……………. ईरान
देवबंद – ………………….ईरान
किलिमंजारो- ……………..तांजानिया
पोपा-…………………… म्यांमार
एकांक गुआ -……………. इंडीज पर्वत श्रेणी
चिंम्बराजो- ……………….इक्वाडोर
केनिया – …………………अफ्रीका

ज्वालामुखी किसे कहते है
उद्गार के आधार पर:-

उद्गार के आधार पर ज्वालामुखियों को दो भागों में बांटा जा सकता है।

केंद्रीय उद्भेदन:-

इस प्रकार का उद्भेदन विनाशात्मक प्लेटों के किनारो के सहारे होता है। और एक केंद्रीय मुख के द्वारा भयंकर विस्फोट के साथ लावा का उद्भेदन होता है।
पीली ज्वालामुखी-…………………….. पश्चिमी द्वीप
क्राकाटोवा ज्वालामुखी -………………….सुण्डा (जावा सुमात्रा )
माउंट ताल- ……………………………फिलीपाइन

दरारी उद्भेदन:-

इस प्रकार का उद्भेदन रचनात्मक प्लेटों के किनारों से होता है। भूगार्भिक हलचलों के कारण भूपर्पटी की शैलों में दरारें बन जाती हैं। इन्हीं दरारों से लावा प्रवाहित होकर धरातल पर प्रवाहित होकर निकलता है। इसी निकले लावा के कारण पठारों का निर्माण हुआ है।

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 ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ:-

ज्वालामुखी से उद्गमित होने वाले पदार्थों को तीन भागों में बांटा जा सकता है:-

गैस तथा जलवाष्प:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय सबसे पहले गैसे और जलवाष्प बाहर आता है। निकलने वाले पदार्थ में सबसे अधिक जलवाष्प लगभग 60 से 90% होती है। इसके साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड नाइट्रोजन तथा सल्फर डाइऑक्साइड निकलने वाली प्रमुख गैसें हैं।

विखंडित पदार्थ:-

टफ:-

यह मूलतः धूल और राख से निर्मित चट्टानों के टुकड़े होते हैं।

प्यूमिस:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले छोटे-छोटे चट्टानी टुकड़े जिनका घनत्व बहुत कम होता है। इसलिए यह पानी पर तैरते रहते हैं प्यूमिस कहलाते हैं।

लैपिली:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले मटर /अखरोट के समान आकार वाले टुकड़ों को लैपिली कहते हैं।

बाम्ब:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ में छोटे-बड़े चट्टानी टुकड़ों को बाम्म कहते हैं। जिनका व्यास कुछ सेंटीमीटर से लेकर फीट तक होता है।

ब्रेसिया:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले नुकीले अपेक्षाकृत बड़े आकार के चट्टानी टुकड़ों को ब्रेसिया कहा जाता है।

लावा:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय निकालने वाला चिपचिपा द्रव पदार्थ लव कहलाता है।
अम्ल की अधिकता के कारण लावा का रंग पीला हल्का गाढ़ा होता है।
क्षार की अधिकता के कारण लावा का रंग गहरा काला, भारी तथा द्रव के समान होता है।

पायरोक्लास्ट:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय सर्वप्रथम भूपटल पर चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़े बाहर निकलते हैं। इन्हीं टुकड़ों को पायरोक्लास्ट कहते हैं। इनके पहले निकलने के कारण ज्वालामुखी पर्वतों की निचली परत में पायरोक्लास्ट पाए जाते हैं।

लावा तथा मैग्मा में अंतर:-

ज्वालामुखी विस्फोट के समय निकलने वाला द्रव पदार्थ जब तक पृथ्वी के आंतरिक भाग अर्थात भूगर्भ में रहता है। तब तक उसे मैग्मा कहा जाता है। जब यही मैग्मा पृथ्वी की सतह पर आ जाता है। तो इसे लावा कहा जाता है।

ज्वालामुखी के अंग:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाला लावा विस्फोटित स्थान के आसपास जमा होने लगता है। जिसके परिणाम स्वरुप एक शंकु नुमा आकृति का निर्माण होता है। उसे ज्वालामुखी शंकु कहते हैं। ज्वालामुखी शंकु के आसपास लावा अधिक मात्रा में एकत्रित होने पर पर्वत का रूप धारण कर लेता है। तब इसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। इन पर्वतों के ऊपर बीचो-बीच में गर्तनुमा आकृति का निर्माण होता है। उसे ज्वालामुखी छिद्र कहते हैं। इस ज्वालामुखी छिद्र से नली के रूप में भूगर्भ से संपर्क होने वाली आकृति को ज्वालामुखी नली कहते हैं।

ज्वालामुखी किसे कहते है
                        क्रेटर:-

ज्वालामुखी शंकु के ऊपर कीपनुमा रचना को क्रेटर कहते हैं। जब इस क्रेटर में पानी भर जाता है। तो इसे क्रेटर झील कहा जाता है। लोनार झील जो महाराष्ट्र (भारत) में स्थित है। क्रेटर झील का उदाहरण है।
जब ज्वालामुखी में पूर्व में हुए उद्गार से अगला उद्गार कम तीव्रता का होता है। तो मुख्य क्रेटर के ऊपर छोटे-छोटे क्रिएटरों का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार की रचना को घोषलाकार क्रेटर कहते हैं। माउंट ताल फिलिपींस इसका उदाहरण है।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना|सियाल(SiAl)|सीमा(SiMa)|निफे(NiFe)|

 

दोस्तों आज हम लोग इस आर्टिकल में सौरमंडल का अकेला ग्रह जिस पर जीवन है। अर्थात आज हम लोग पृथ्वी की आंतरिक संरचना को अप्राकृतिक साधन घनत्व, दबाव ,तापमान तथा पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांतों के साथ और प्राकृतिक साधनों में ज्वालामुखी क्रिया, भूकंप विज्ञान के साथ और पृथ्वी की विभिन्न परतो के संगठन के आधार पर सियाल(SiAl), सीमा(SiMa), निफे(NiFe) के बारे में विस्तृत चर्चा करके पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में जानने की कोशिश करेंगे।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना

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पृथ्वी की आंतरिक संरचना/नीला ग्रह (जल की अधिकता के कारण )

A-अप्राकृतिक साधन (artificial sources):-
1-घनत्व:-

घनत्व के आधार पर यदि पृथ्वी की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया जाए। तो सबसे आंतरिक भाग का घनत्व लगभग 11 से 13.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है तथा मध्य परत का घनत्व लगभग 5.0 और बाहरी परत अर्थात भू-पर्पटी का घनत्व लगभग 3.0 है। उपरोक्त के क्रम में यदि पृथ्वी का औसत घनत्व देखा जाए तो 5.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है अर्थात पृथ्वी की आंतरिक संरचना में घनत्व के आधार पर कई परते निर्मित है। इन परतों में आंतरिक परत अर्थात क्रोड का घनत्व सबसे अधिक है ।

2-दबाव:-

पृथ्वी के आंतरिक भाग अर्थात क्रोड के अधिक घनत्व के बारे में चट्टानों के दबाव व भार के संदर्भ में समझा जा सकता है। कि दबाव बढ़ने से घनत्व बढ़ता है। लेकिन प्रत्येक चट्टान की अपनी एक सीमा होती है। जिससे अधिक उसका घनत्व नहीं हो सकता है। चाहे दवाब कितना ही क्यों न डाल दिया जाए। यद्यपि प्रयोगों से सिद्ध होता है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग के दबाव के कारण न होकर वहां पाये जाने वाले पदार्थों के अधिक घनत्व के कारण है।

3-तापमान:-

पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी उसके तापमान से भी लगाई जा सकती है सामान्य रूप से यदि पृथ्वी के अंदर 8 किलोमीटर तक गहराई में जाने पर पृथ्वी के तापमान में प्रति 32 मीटर में 1 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ जाता है। लेकिन इससे और अधिक गहराई में जाने पर तापमान में वृद्धि दर कम हो जाती है। और यह पहले 100 किलोमीटर की गहराई तक प्रत्येक किलोमीटर पर 12 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि होती है। इस गहराई के उपरांत लगभग 300 किलोमीटर की गहराई तक जाने पर 1 किलोमीटर पर 2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि होती है और इस गहराई के बाद में प्रत्येक किलोमीटर की गहराई में 1 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि होती है। पृथ्वी के आंतरिक भाग से ऊष्मा का प्रवाह बाहर की ओर होता है। जो तापीय संवहन तरंगों के रूप में प्रकट होता है। यह तरंगे रेडियो सक्रिय पदार्थ तथा गुरुत्व बल के तापीय ऊर्जा में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती हैं। प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के आने के बाद यह और भी स्पष्ट हो गया है कि तापीय संवहन तरंगों के रूप में होता है।

पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांतों के द्वारा आंतरिक संरचना का अध्ययन

टी.सी. चैंम्बरलिन के द्वारा दिए गए ग्रहाणु संकल्पना अनुसार पृथ्वी का निर्माण ठोस अणुओ के एकत्रीकरण से हुआ है। इसके कारण इसका मध्य भाग ठोस होना चाहिए।
ज्वारीय संकल्पना जो कि जेम्स जीन द्वारा दी गई है इसके द्वारा पृथ्वी का जन्म सूर्य द्वारा उत्पादित ज्वारीय पदार्थ के ठोस होने से हुई है। अतः इनका मानना है कि पृथ्वी का केंद्र द्रव अवस्था में होना चाहिए। लाप्लास के निहारिका सिद्धांत के द्वारा पृथ्वी की आंतरिक संरचना गैसीय अवस्था में होनी चाहिए। अतः उक्त विचारधाराओं के अध्ययन से पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं बन सकी है।

B-प्राकृतिक साधन(Natural sourses):-

A-ज्वालामुखी क्रिया:-

ज्वालामुखी में विस्फोट होता है। तो उसमें से जो तरल मैग्मा निकलता है। उसके आधार पर स्पष्ट होता है। कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में कोई न कोई ऐसी परत उपस्थित है। जिसकी अवस्था तरल या अर्ध्दतरल है। किंतु यह भी स्पष्ट है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में अत्यधिक दबाव चट्टानों को पिघली अवस्था में नहीं रहने देगा । इन तत्वों के आधार पर भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि पृथ्वी की आंतरिक बनावट क्या है ।

B-भूकंप विज्ञान के साक्ष्य:-

भूकंप विज्ञान में भूकंप के समय उत्पन्न होने वाली भूकंपीय लहरों का अंकन सिस्मोग्राफ (sesmograph) नामक यंत्र पर किया जाता है । इसके अध्ययन से पृथ्वी के अंदर लहरों के विचलन के आधार पर इसका अध्ययन करना संभव हो सका है । सिस्मोग्राफ एक प्रत्यक्ष साधन है जिसके द्वारा पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध हो सकी है ।

पृथ्वी का रासायनिक संगठन एवं विभिन्न परतें:-

International union of geodesy and geophysics (IUGG) के द्वारा किए गए शोध के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है जो निम्न लिखित है-

1-भू-पर्पटी (Crust):-

भूपर्पटी पृथ्वी का सबसे ऊपरी भाग होता है तथा इसकी मोटाई महाद्वीपों और महासागरों में अलग-अलग होती है। I.U.G.G. के अनुसार – महासागरों के नीचे इसकी जो औसत मोटाई लगभग 5 किलोमीटर होती है। जबकि महाद्वीपों के नीचे या लगभग 30 किलोमीटर तक होती है।
I.U.G.G. के अनुसार पी लहरों की गति और क्रस्ट के औसत घनत्व के आधार पर भू-पर्पटी को ऊपरी क्रस्ट तथा निचली क्रस्ट में बांटा जा सकता है।

ऊपरी क्रस्ट

ऊपरी क्रस्ट में “P” लहरों की गति 6.1 किमी प्रति सेकंड तथा इसका औसत घनत्व 2.8 है।

निकली क्रस्ट

निकली क्रस्ट में “P” लहरों की गति 6.9 किलोमीटर प्रति सेकंड तथा इसका घनत्व 3.0 है।

ऊपरी क्रस्ट व निकली क्रस्ट में जो घनत्व का अंतर है वह यहां उपस्थित दबाव के कारण है अतः ऊपरी एवं निकली क्रस्ट के बीच घनत्व संबंधी एक असंबद्धता का निर्माण होता है। जिसकी खोज कोरनाड ने की थी। इसलिए यह असंबद्धता कोनराड असंबद्धता कहलाती है। इस क्रस्ट का निर्माण सिलिका (Silica-Si )और एल्यूमीनियम (Aluminum -Al) से हुआ है इसलिए इसे “सियाल परत” भी कहते हैं ।
सियाल परत का निर्माण ग्रेनाइट चट्टानों द्वारा हुआ है जो कि परतदार शैलों के नीचे पाई जाती है ।

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2- मैंटल (Mantle):-

भू पर्पटी के बाद जब भूकंपीय लहरें मैंटल में पहुंचती हैं। तो इसमें प्रवेश करने से पहले भूकंपीय लहरों की गति में अचानक वृद्धि हो जाती है। और ये लहरें 7.9 किलोमीटर प्रति सेकंड से बढ़कर 8.1 किलोमीटर प्रति सेकंड तक हो जाती है। इस तरह निचली क्रस्ट तथा ऊपरी मेंटल के बीच में एक असंबद्धता का निर्माण होता है। जो कि चट्टानों के घनत्व में परिवर्तन को दर्शाती है। इस इस असंबद्धता की खोज ए.मोहोरोविकिक द्वारा की गई थी । इसलिए इस असंबद्धता को मोहो असंबद्धता कहते हैं। मोहो असंबद्धता से लगभग 2900 किलोमीटर की गहराई तक मेंटल का विस्तार है। और इस मेंटल का आयतन पृथ्वी के कुल आयतन का लगभग 83% और द्रव्यमान लगभग 68% है। मेंटल का निर्माण प्रमुखतः सिलिका(Silica-Si और मैग्नीशियम magnisium-Ma) से हुआ है। अतः से हम SiMa (सीमा)परत भी कहा जाता है। आई. यू. जी. जी.(IUGG) ने मेंटल को भूकंपीय लहरों की गति के आधार पर तीन भागों में बांटा है।

1- मोहो असंबद्धता से 200 किलोमीटर की गहराई तक का भाग।
2- 200 से 700 किलोमीटर ।
3- 700 से 2900 किलोमीटर ।

मेंटल की ऊपरी परत लगभग 100 से 200 किलोमीटर की गहराई तक भूकंपीय लहरों की गति धीमी पड़ जाती है। यह लगभग 7.8 किलोमीटर प्रति सेकंड रह जाती है इस भाग को निम्न गति का मंडल भी कहते हैं ऊपरी मैंटल और निचली मैंटल के बीच घनत्व संबंधी इस असंबद्धता को रेपिटी असंबद्धता कहते हैं।

3-क्रोड़(core):-

पृथ्वी की इस परत का विस्तार 2900 किलोमीटर से 6371 किलोमीटर तक है। अर्थात इसका पृथ्वी के केंद्र तक विस्तारित है। निचले मैंटल के आधार पर P तरंगो की गति में जो अचानक वृद्धि होती है। और यह लगभग 13.6 किलोमीटर प्रति सेकंड हो जाती है। P तरंगो की गति में अचानक से जो वृद्धि होती है, वह चट्टानों के घनत्व में परिवर्तन को दर्शाती है जिससे यहां पर एक असंबद्धता उत्पन्न होती है। इसे गुटेनबर्ग- विशार्ट असंबद्धता कहते हैं। गुटेनबर्ग असंबद्धता से लेकर पृथ्वी के केंद्र तक के भाग को दो भागों में विभाजित किया गया है:-

1-बाह्य क्रोड़़ (outer core) (2900-5150 कि.मी.)
2-आंतरिक क्रोड़ (inner core) (5150-6371 कि.मी.)

बाह्य क्रोड़ का विस्तार 2900 किलोमीटर से 5150 किलोमीटर की गहराई तक विस्तारित है इस मंडल में भूकंपीय S लहरें प्रवेश नहीं कर पाती है। आंतरिक भाग में जहां घनत्व सर्वाधिक है तुलना की दृष्टि से अधिक तरल होने के कारण P तरंगों की गति 11.23 किलोमीटर प्रति सेकंड रह जाती है। हालांकि अत्यधिक तापमान के कारण क्रोड़ को पिघली हुई अवस्था में होना चाहिए किंतु अत्यधिक दबाव के कारण यह अर्ध्दतरल या प्लास्टिक अवस्था में रहता है। क्रोड़ का आयतन पूरी पृथ्वी का मात्र 16% है। लेकिन इसका द्रव्यमान पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 32% है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह मंडल तरल अवस्था में होना प्रदर्शित करता है। 5150 से 6371 किलोमीटर की गहराई तक का भाग आंतरिक क्रोड़ के अंतर्गत आता है। जो ठोस या प्लास्टिक अवस्था में है एवं इसका घनत्व 13.6 है यहां P लहरों की गति 11.33 किलोमीटर प्रति सेकंड हो जाती है।

बाय क्रोड़ और आंतरिक क्रोड़ के बीच में पायी जाने वाली घनत्व से संबंधित असंबद्धता को लैहमेन असंबद्धता कहा जाता है इस क्रोड़ का आयतन पूरी पृथ्वी का लगभग 16% है। लेकिन इसका द्रव्यमान पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 32% है क्रोड़ के आंतरिक भागों का निर्माण निकेल और लोहा से हुआ है। इसलिए इसे निफे (NiFe) परत कहा जाता है। हालांकि इसमें सिलिकन की भी कुछ मात्रा रहती है।
नीफे (NiFe)
सीमा परत के नीचे पृथ्वी की तीसरी एवं अंतिम परत पाई जाती है इसे नीफे परत कहते हैं। क्योंकि इसकी रचना निकेल (Nickel)तथा फेरियम (Ferrium) से मिलकर हुई है। इस प्रकार यह परत कठोर धातुओं की बनी है जिस कारण इसका घनत्व अधिक है।

भारत के पडोसी देश (8) Bharat Ke Padosi Desh-Pakistan,Nepal,Afghanistan,Bhutan,Bangladesh,Sri lanka,Myanmar,China

भारत के पड़ोसी देश निम्नवत है :-

पाकिस्तान (Pakistan):-

•पाकिस्तान शब्द “चौधरी रहमत अली” की देन है।
• पाकिस्तान 14 अगस्त 1947 को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया।
• यह भारत, अफगानिस्तान, ईरान से सीमा साझा करता है।
•भारत के पडोसी देश पाकिस्तान को “नहरों का देश” कहा जाता है।

• अंगूर, सेब, अखरोट, बादाम, अंजीर, नारंगी और खजूर प्रमुख फलों का उत्पादन होता है।

•पाकिस्तान का संवैधानिक नाम “इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़” पाकिस्तान है।
“इस्लामाबाद” पाकिस्तान की राजधानी है।
• पाकिस्तान के उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमशः हिंदूकुश, सुलेमान व किरथर पर्वत श्रेणियां हैं।
• हिंदूकुश श्रेणी की तिरिचमीर चोटी पाकिस्तान की सर्वोच्च चोटी है।
खैबर, गोलम, तोची, बोलन यहां के प्रमुख प्राकृतिक दर्रे हैं।

• पोतवार का पठार, बलूचिस्तान का पठार पाकिस्तान तक विस्तृत है।

• पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत (NWFP) में स्वात घाटी अवस्थित है जिसे “पाकिस्तान का स्वर्ग” कहा जाता है तथा “जियारत घाटी” बलूचिस्तान प्रांत में है।
• वज़ीरिस्तान तथा स्वात घाटी में तालिबानियों के सक्रिय होने के कारण “अशांत क्षेत्र” है।
•इसके पूर्व में अवस्थित “जैकोबाबाद” विश्व का सबसे अधिक गर्म प्रदेश है।

•साल्ट रेंज सेंधा नमक जिप्सम चूना पत्थर के उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है।

सुई,मियाल क्षेत्र प्राकृतिक गैस, क्वेटा कोयले के लिए, सियालकोट खेल का सामान, कराची, लाहौर, मुल्तान सूती वस्त्र के लिए, मर्दान चीनी के लिए, नौशेरा कागज उद्योग के लिए प्रसिद्ध है।
काहुटा, खुशाब परमाणु रिएक्टर हैं।

•चगाई पहाड़ियों में पाकिस्तान का परमाणु परीक्षण केंद्र है।

• आबादी के मामले में पाकिस्तान दुनिया में पांचवा स्थान रखता है।

भारत के पडोसी देश

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नेपाल (Nepal):-

• उत्तर में चीनी सीमा तथा तीनों और बिहार, उत्तर प्रदेश(भारत के राज्यों) की सीमा साझा करता है।

• यहां हिमालय की तीनों श्रेणियां वृहद हिमालय, मध्य हिमालय (इसको नेपाल में महाभारत श्रेणी कहते हैं)। शिवालिक हिमालय मिलती है इसलिए इसे प्रायः हिमालयी राज्य कहा जाता है।

• यहां की लगभग 81% आबादी हिंदू धर्म मानने वाली है।

• विश्व की सबसे ऊंची 14 पर्वत चोटियों में से 8 नेपाल में स्थित है।

•विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट (सागरमाथा ऊंचाई 8848 मीटर) धौलागिरी, कंचनजंगा, मकालू, अन्नपूर्णा, गौरीशंकर, ल्होत्से, चो-ओयू, मांसूल नेपाल में अवस्थित है।
काठमांडू घाटी तथा पोखरा घाटी नेपाल के मध्यवर्ती भाग में है।
•नेपाल में कोसी, बागमती, गंडक, काली, करनाली, अरुण सदानीरा नदियां हैं तथा सेती, भेरी,, त्रिशूली, तमूर अन्य नदियां हैं।

भारत के पडोसी देश

 अफगानिस्तान(Afghanistan):-

अन्य नाम- एरियाना (प्राचीन काल)

खुरासान- (मध्यकाल)

सर्वोच्च सभा- लोया जिरगा राजधानी – काबुल

सरकारी भाषा- पश्तो

प्रमुख पर्वतीय क्षेत्र- हिंदूकुश, कोहबाबा व चकाई पहाड़ियां।

प्रमुख नदियां- काबुल, कुर्रम, हेल्मंद, मोरघाव, खश ।

प्रमुख जनजातियां- पख्तून ताजिक व हजारा।

प्रमुख कृषि उत्पाद- अफीम, फल, सूखा मेवा, मूंगफली ऊन आदि।

प्रमुख शहर- कंधार, बामियान, गजनी,हेरात, मजार-ए-शरीफ।

• अफगानिस्तान में सुन्नी संप्रदाय को मानने वाली आबादी है।

• यहां का प्रमुख बंदरगाह चहाबहार बंदरगाह है।
• यह एक स्थल अवरुद्ध देश है, जो पाकिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, और चीन से सीमा साझा करता है।

भारत के पडोसी देश

 भूटान(Bhutan):-

राजधानी- थिंपू

अन्य नाम- लैंड ऑफ़ थंडरबोल्ट

सबसे ऊंचा पर्वत- कुलाकांगड़ी

प्रमुख नदियां- संकोशु, तोंगसायू, मानस।

सीमा- भारत, तिब्बत (चीन)

भारत के पडोसी देश

 बांग्लादेश(Bangladesh):-

राजधानी- ढाका

औद्योगिक नगर- चटगांव, नारायणगंज, मेमन सिंह, रंगपुर, ढाका,खुलना आदि।

• बांग्लादेश विश्व के सबसे बड़े डेल्टा गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा पर स्थित है ।

“कॉक्स बाजार” विश्व की सबसे बड़ी बलुई पुलिन यही स्थित है।
• बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र को “जमुना” कहा जाता है। गंगा में मिलने के बाद संयुक्त धारा को “पदमा” कहा जाता है।
• बांग्लादेश में नदियों और वितरिकाओ का जाल बिछा होने के कारण इसे “नदियों का देश” कहा जाता है।
• इसे धान व जूट के अधिक उत्पादन के कारण इसे “सोनार बांग्ला” कहा जाता है।
•यहां का सबसे बड़ा पतन “चटगांव” है।

भारत के पडोसी देश

 श्रीलंका(Sri lanka):-

– रत्नदीप

-पूर्व का मोती

-सिलोन (1972 तक)

-लंका (1972 से)

-श्रीलंका (1978 से राजधानी)

-कोलंबो (आर्थिक राजधानी)

-श्री जयवर्धनेपुर कोट्टे (राजधानी)

पाक जलसंधि श्रीलंका को भारत से अलग करती है।
आदम का पुल:- यह एक समुद्र में डूबी प्रवाल द्वीप की रेखा जो भारत में रामेश्वरम के पास धनुष्कोड़ी और श्रीलंका में तलैया मन्नार तक विस्तृत है।
पिथुराथालागला– श्रीलंका की सबसे ऊंची चोटी।
आदम शिखर– यह एक पवित्र पर्वत यहां माना जाता है।
महाबली गंगा– श्रीलंका की सबसे लंबी नदी।
अन्य नदियां – यान और अरूबी केलानी नदी।

• प्रमुख फसलें- चावल, रबड़, नारियल, मसाले।

• श्रीलंका की राष्ट्रीय आय का प्रमुख साधन चाय का निर्यात होना।

• पत्तन- कोलंबो, जाफना, हंबनटोटा।

बुद्ध के दांत:- श्रीलंका के बौद्ध मंदिरों का बुद्ध के दांत के कारण अत्यधिक महत्व है।

भारत के पडोसी देश

 म्यांमार(Myanmar):-

• जनवरी 1948 को स्वतंत्र हुआ।

• इसे पूर्व में बर्मा (Burma) या ब्रह्म देश कहा जाता था।
• इसकी राजधानी पूर्व में रंगून (यांगून) वर्तमान में नैपीडाओ (Naypyidaw) है ।
•अक्टूबर 1991 आन-सू-की को शांति का नोबेल पुरस्कार मिला।
ऐयारवाडी म्यांमार की सबसे लंबी नदी है, जो 2170 किलोमीटर लंबी है।
• इसे स्वर्ण पैगोड़ो का देश कहा जाता है।

•बांग्लादेश, भारत, चीन, लाओस, और थाईलैंड से इसकी सीमा मिलती है।

अराकानयोमा यहां की प्रमुख पर्वत श्रेणी है।
हकाकाबोराजी म्यांमार की सबसे ऊंची चोटी है।

•अराकानयोमा, चिन, नागा, पटकोई पर्वत श्रेणियां जो दक्षिण से उत्तर इसी क्रम में स्थित है।

• यहां के शान पठार व कायिन्नी पठार खनिजों से भरपूर है यहां के सागवान टीक वन संसार में सर्वश्रेष्ठ है।

•इरावती, सितांग और सालवीन प्रमुख नदियां हैं। इरावदी नदी को “म्यांमार की जीवनधारा” कहते हैं
•यहां स्थित सालवी व इरावती नदी का दोआब सुदूर पूर्व का “चावल का कटोरा” कहा जाता है।

•सालवीन नदी के पूर्व में “स्वर्ण त्रिभुज” गोल्डन है, जो “अफीम” की खेती के लिए प्रसिद्ध है।

“स्वर्ण त्रिभुज” (Golden triangle)वर्मा, थाईलैंड ,लाओस वियतनाम देश आते हैं ।
दुर्लभ माणिक्य रत्न के लिए म्यांमार विश्व प्रसिद्ध है

भारत के पडोसी देश

 चीन(China):-

• चीन की राजधानी बीजिंग है।

• क्षेत्रफल की दृष्टि से चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है।

• जनसंख्या की दृष्टि से यह विश्व का पहला देश है।

• चीन की सीमा 14 देशों से मिलती है-
– कजाखस्तान
– किर्गिस्तान
-ताजिकिस्तान
– अफगानिस्तान
-पाकिस्तान
-भारत
-नेपाल
-भूटान
-म्यांमार
-लाओस
-वियतनाम
-उत्तरी कोरिया
-रूस
-मंगोलिया

•दुनिया का सबसे बड़ा पठार तिब्बत का पठार इसके अधिकार क्षेत्र में है, जहां से सिंधु, ब्रह्मापुत्र, सतलज, मेंकांग, साल्वीन आदि नदियों का उद्गम होता है।

तकला मकान पठार चीन का ठंडा तथा निर्जन पठार है।

•चीन के उत्तरी भाग में गोबी का मरुस्थल स्थित है।

जूंगेरियन घाटी चीन और मध्य एशिया के बीच प्रवेश द्वार है।
क्यूनलुन, तिएनसान और नानसान प्रमुख पर्वत श्रेणियां हैं।
यांग्त्सीक्यांग, सिक्यांग और ह्वागहो यहां की प्रमुख नदियां हैं।
•ह्वांगहो नदी का पानी पीली मिट्टी होने के कारण पीला दिखता है। इसलिए इसे पीली नदी भी कहते हैं।
• गेहूं, चावल, कपास, सूती वस्त्र व रेशमी वस्त्रों के उत्पादन में चीन विश्व में प्रथम स्थान रखता है।
कैंटन, शंघाई, बीजिंग सूती वस्त्र उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।
• शंघाई को चीन का मैनचेस्टर कहा जाता है।

• शंघाई चीन का सबसे बड़ा पतन है।

• अन्शान, मुकदेन को चीन का पिट्सबर्ग कहते हैं, क्योंकि यहां लौह इस्पात उत्पादन का प्रमुख केंद्र है।
पर्ल नदी डेल्टा विश्व का सबसे बड़ा शहरी क्षेत्र बन गया है।
जेचवान क्षेत्र चावल उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।
हुन्नान और शान्सी प्रांत गेहूं उत्पादन के लिए जाने जाते हैं।
यांग्त्जी घाटी व ह्वांगहो घाटी कपास उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।
• दक्षिण मंचूरिया, तापेह व शांतुंग लोहा व एंटीमनी के उत्पादन क्षेत्र हैं।
•शांन्सी, शेन्सी, हैबेर्ड कोयला उत्पादक क्षेत्र है।
•क्यांग सी, क्वांगतुंग, यून्नान टीन व टंगस्टन उत्पादन के प्रमुख केंद्र है।
•जेचवान, कांसू और सिक्यांग पेट्रोलियम उत्पाद के लिए प्रसिद्ध है।

भारत के पडोसी देश