कुतुब मीनार(1199)|उद्देश्य|निर्माणकर्ता|स्थान|सीढ़िया

कुतुब मीनार:-

कुतुब मीनार कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा कुतुब मीनार का निर्माण कराने का मकसद मुसलमानों को प्रार्थना हेतु इकट्ठा किया जा सके। लेकिन कालांतर में इसे चित्तौड़ और मांडू में बनी मीनारों के परिपेक्ष में देखा जाने लगा तथा इसे विजय की मीनार माना जाने लगा। कुतुबमीनार का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 ईस्वी में कुव्वत-उल- इस्लाम मस्जिद के प्रांगण में इसका निर्माण कार्य प्रारंभ कराया। प्रारंभ में इसके निर्माण हेतु जो खाका तैयार किया गया था उसमें इसकी ऊंचाई 225 फीट तथा चार मंजिल होना तय किया गया था।

कुतुब मीनार

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कुतुबुद्दीन कुतुबमीनार की केवल एक मंजिल का निर्माण कर सका शेष कार्य इल्तुतमिश द्वारा किया गया। कुतुबमीनार का निर्माण सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में कराया गया था। फिरोज तुगलक के समय में कुतुब मीनार पर आकाशीय बिजली गिरने के कारण इसकी चौथी मंजिल क्षतिग्रस्त हो गयी |जिससे इस चौथी मंजिल को तोड़कर इसके स्थान पर दो मंजिलो का निर्माण कराया गया | जिससे कुतुबमीनार की उचाई 234 फिट हो गयी थी | समय समय पर कुतुबमीनार की मरम्मत का कार्य फिरोजशाह तुगलक ,सिकंदर लोदी व् मेजर आर. स्मिथ द्वारा कराया गया |   

कुतुब मीनार के आंतरिक भाग में कुछ छोटे-छोटे देवनागरी अभिलेख खुदे हैं। इन्हीं अभिलेखों के आधार पर इसे शुरू में हिंदू मीनार होने से जोड़ा जाने का प्रयास किया गया और कहा गया कि मुसलमानों ने इसकी बाहरी दीवारों पर कटाई करके मीनार का स्वरूप प्रदान किया।

उक्त विचारधारा का सिरे से खण्डन जान मार्शल जैसे इतिहासकारों ने किया है। और कुतुब मीनार को इस्लामी मीनार ही माना जाना सर्व उचित है। इस मीनार के निकले छज्जों को छत्तेदार डिजाइन से अलंकृत पत्थरों के ब्रैकेट द्वारा सहारा दिया गया है।

प्रश्न:- कुतुब मीनार कहां है।
उत्तर:- कुतुब मीनार दिल्ली की कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के परिसर में स्थित है।

प्रश्न :- कुतुब मीनार क्यों बनाया गया था।
उत्तर:- कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा मुसलमानों को एक जगह एकत्रित करके प्रार्थना सभाओं का आयोजन करना था।

प्रश्न:- कुतुबमीनार का निर्माण कब हुआ।
उत्तर:- कुतुब मीनार का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा 1199 ईस्वी में दिल्ली की कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के परिसर में कराया गया।

प्रश्न:- कुतुब मीनार में कितनी सीढ़ियां हैं।
उत्तर:- कुतुब मीनार में 379 सीढ़ियां हैं।

अलीगढ़ आंदोलन (1876)|सर सैयद अहमद खां|अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय|तहजीब-उल-अखलाक

सर सैयद अहमद ख़ां:-

अलीगढ़ आंदोलन (1876), सर सैयद अहमद खां, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, तहजीब-उल-अखलाक

सर सैयद अहमद के नेतृत्व में अलीगढ़ आंदोलन 1876 में प्रारंभ हुआ। सर सैयद अहमद का जन्म 1817 ईस्वी में दिल्ली में हुआ। यह अंग्रेजी शिक्षा एवं ब्रिटिश सत्ता के सहयोग के पक्षधर थे। क्योंकि सर सैयद अहमद ख़ां का मानना था कि मुसलमानों में शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है इसलिए वह शिक्षा का प्रचार-प्रसार करके उनके बौद्धिक स्तर में वृद्धि तथा रोजगार प्राप्त करने में सक्षम हो सके। जिससे मुस्लिम समाज की दशा में सुधार हो सके।

अलीगढ़ आंदोलन

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अलीगढ़ आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था, कि मुस्लिम समुदाय का उत्थान कैसे किया जाए भारत में ज्यो-ज्यो पुनर्जागरण बड़ा और शिक्षा का विकास हुआ तो मुस्लिम समाज का एक प्रबुद्ध वर्ग शिक्षा की महत्ता को समझने लगा। इसी वर्ग का नेतृत्व सर सैयद अहमद ने अपने हाथों में संभाला और मुसलमानों में शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाना तथा मुस्लिम समाज का उत्थान सुनिश्चित करना। लेकिन उनके इस कार्य का उलेमाओं तथा कट्टरपंथी मुसलमानों ने खुला विरोध किया। लेकिन सर सैयद अहमद अपने इस कार्य में निडरता से करने में डटे रहे।

1857 की महान क्रांति के पश्चात अंग्रेजी सत्ता को लगने लगा कि इस क्रांति में मुख्य षड्यंत्र करता मुसलमान थे। इसकी पुष्टि कुछ समय पश्चात हुए बहावी आंदोलन ने कर दी। अंग्रेजी सरकार को यह एहसास हो गया था कि बढ़ते हुए राष्ट्रवाद के कारण हिंदू मुस्लिम एकता के कारण कालांतर में और अधिक विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए अंग्रेजी सरकार ने बड़ी चालाकी से मुसलमानों को अपने सहयोगी के रूप में इस्तेमाल करने का निश्चय किया।

अलीगढ़ आंदोलन के प्रणेता सर सैयद अहमद का मत था। कि मुस्लिम समुदाय अभी पिछड़ा है और यदि हिंदू मुस्लिम एकता बनी रहे तो इसमें मुसलमानों कोई लाभ न होकर नुकसान ही होगा। किसी समय सर सैयद अहमद हिंदू मुस्लिम एकता के समर्थक थे। कालांतर में हिंदू तथा कांग्रेस विरोधी होते गए। फल स्वरुप अलीगढ़ आंदोलन विरोधी होता चला गया। इसी का अवसर पाकर अंग्रेजी सरकार ने मुसलमानों को अपने को अपने पक्ष में करने में सफलता प्राप्त की। और अलीगढ़ आंदोलन अंग्रेजों की विश्वसनीयता हासिल करने में सफल रहा।

सर सैयद अहमद ने अपने जीवन के दो मुख्य लक्ष्य बनाए। पहला अंग्रेजी सरकार और मुसलमानों के संबंधों को ठीक करना तथा दूसरा मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करना। सर सैयद अहमद खान मुस्लिम मदरसो में पढ़ाई जाने वाली पुरानी पद्धति की शिक्षा से खुश नहीं थे। और इन्होंने यह तर्क दिया कि कुरान में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है जो मुस्लिम समाज को पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आने वाला अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने से रोकता है। इनके द्वारा सन 1864 में साइंटिफिक सोसायटी की स्थापना तथा गाजीपुर में इसी वर्ष एक अंग्रेजी शिक्षा का स्कूल खोला गया। 1870 में फारसी भाषा में एक पत्रिका तहजीब-उल-अखलाक निकाली। यह सदैव अंग्रेजी सरकार के प्रति राजभक्त बने रहे। इसी क्रम में उनके द्वारा 1875 में अलीगढ़ में मुहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल स्कूल की स्थापना की गई। जो 1878 में कॉलेज बना तथा 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया।
अलीगढ़ आंदोलन में सर सैयद अहमद खान के समर्थकों में चिराग अली, नजीर अहमद, अल्ताफ हुसैन अली, मौलाना शिबली नोमाली आदि प्रमुख थे। 1887 कांग्रेस के अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयब जी बने तो इन्होंने इसका विरोध किया।

धरासना|बेबमिलर|दांडी|नौजवान सभा| विलियम हॉकिंस, राल्फ फिच, सर थॉमस रो,

उस विदेशी पत्रकार का नाम बताइए जिसने धरासना साल्ट वर्क्स पर सत्याग्रह के बारे में समाचार दिए।

सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत गांधी जी द्वारा नमक कानून तोड़ा गया इसी परिपेक्ष में मुंबई में इस आंदोलन का केंद्र बिंदु धरासना था जहां सरोजिनी नायडू, इमाम साहब, गांधी जी के पुत्र मणिलाल लगभग 2000 कार्यकर्ताओं के साथ धरासना नमक कारखाने की ओर बढ़े मुंबई के पास वडाला के नमक कारखाने पर लोगों ने धावा बोला और नमक लूट लिया 1930 में मुंबई के समुद्र पर अमेरिकी पत्रकार बेबमिलर ने सत्याग्रहियो पर अत्याचार का सजीव वर्णन किया।

धरासना

दांडी मार्च 12 मार्च 1930 से 6 अप्रैल 1930 ईस्वी तक

महात्मा गांधी 12 मार्च 1930 को 78 चुने अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम अहमदाबाद से दांडी नौसारी जिला गुजरात के लिए यात्रा प्रारंभ की।

गांधीजी 5 अप्रैल 1930 ईस्वी को 241 मील लंबी पैदल यात्रा के बाद दांडी पहुंचे उसके अगले दिन 6 अप्रैल 1930 को दांडी में नमक कानून तोड़ा।

सुभाष चंद्र बोस ने गांधी जी की दांडी मार्च की तुलना नेपोलियन के पेरिस मार्च और मुसोलिनी के रोम मार्च से की।

पश्चिमोत्तर प्रांत पेशावर में नमक आंदोलन का नेतृत्व खान अब्दुल गफ्फार खान ने किया इनका यह आंदोलन लाल कुर्ती आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अब्दुल गफ्फार खान को सीमांत गांधी फख्र-ए- अफगान, बादशाह खान आदि नामों से जाना जाता है।

पूर्वोत्तर क्षेत्र मणिपुर में सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व यदुनाथ के जिया रंग आंदोलन के नाम से जाना गया।

यदुनाथ पर हत्या का अभियोग लगाकर फांसी की सजा दी गई इसके बाद इनकी बहन गैडिनल्यू ने विद्रोह का संचालन किया इन्हें बाद में आजीवन कारावास की सजा हुई नेहरू जी ने इन्हें रानी की उपाधि प्रदान की।

मुंबई में इस आंदोलन का केंद्र बिंदु धारासना रहा 31 मार्च 1930 को सरोजनी नायडू इमाम साहब तथा गांधी जी के पुत्र मणिलाल लगभग 2000 कार्यकर्ताओं के साथ धारासना कारखाने की ओर बढ़े वहां पर लाठी चार्ज हुआ इस नृशंस अत्याचार का सजीव वर्णन अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने किया।

दक्षिण भारत में इस आंदोलन का नेतृत्व राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से बदओख्यम तक की यात्रा की। सैनिक कट्टा नामक कारखाने पर धावा बोला।

1926 में गठित नौजवान सभा के प्रारंभिक सदस्य कौन कौन थे।

1926 ईस्वी में पंजाब में गठित नौजवान सभा के प्रारंभिक/संस्थापक सदस्य भगत सिंह, छबीलदास और यशपाल थे।

साइमन कमीशन 20 अक्टूबर 1928 ईस्वी को जब लाहौर स्टेशन पर पहुंचा तो नौजवान सभा के सदस्यों ने इस कमीशन का बहिष्कार करने के लिए जुलूस का गठन किया जिसमें लाला लाजपत राय पर लाठियों की बौछार की गई कुछ दिनों बाद लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई इसका बदला लेने के लिए भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और जयपाल ने स्कॉट को मारने का दृढ़ निश्चय किया मगर गलती से दिसंबर 1928 ईस्वी को सांडर्स और उनके रीडर चरण सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई।

 विलियम हॉकिंस, राल्फ फिच, सर थॉमस रो, निकोलस डाउंटन विदेशी यात्रियों को उनके भारत आने के कालक्रमानुसार व्यवस्थित कीजिए।

राल्फ फिच भारत आने वाला पहला इंग्लिश यात्री था जो 1583 ई. में आगरा पहुंचा।

विलियम हॉकिंस इंग्लैंड का यात्री जो अगस्त 1608 में सूरत पहुंचता और अप्रैल 1609 में मुगल शासक जहांगीर के दरबार आगरा पहुंचा।

सर थॉमस रो एक ब्रिटिश यात्री था जो सितंबर 1615 ई. में जहांगीर के दरबार में पहुंचा।

निकोलस डाउंटन 1615 ई. में भारत आया।

तहकीक-ए-हिंद(Tahqiq-I-Hind)|ताज उल मासिर(Taj Ul Maasir)

 

तहकीक-ए-हिंद अलबरूनी द्वारा रचित यह अरबी भाषा का ग्रंथ, जिसका सबसे पहले 1888 में एडवर्ड सांची ने अंग्रेजी अनुवाद किया। बाद में इस अंग्रेजी भाषा के अनुवाद को हिंदी में रजनीकांत शर्मा द्वारा परिवर्तित किया गया और इस पुस्तक को “आदर्श हिंदी पुस्तकालय” इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया।

तहकीक-ए-हिंद

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मध्यकालीन भारतीय इतिहास के स्रोतों की जानकारी के लिए यह पुस्तक बहुत ही प्रमाणित मानी गई है अलबरूनी ने महमूद गजनवी के समय के भारत की आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक स्थिति, सामाजिक स्थिति के बारे में विस्तृत रूप से लिखा है। यह ग्रंथ जिसमें 80 अध्याय हैं जो की एक बहुत ही विस्तृत ग्रंथ माना जाता है।
अलबरूनी ने अपने इस ग्रंथ में भारत की प्राकृतिक दशाएं, जलवायु, रीति रिवाज, धार्मिक परंपराएं, कर्म सिद्धांत, जीव के आवागमन के सिद्धांत, मोक्ष प्राप्त करने का सिद्धांत, भोजन, वेशभूषा, मनोरंजन, धार्मिक उत्सवों आदि के बारे में विस्तृत वर्णन किया है। उसने अपने इस ग्रंथ में भगवद् गीता, वेद, उपनिषदों, पतंजलि के योग शास्त्र आदि के बारे में भी लिखा है।

राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो अलबरूनी ने इस ग्रंथ में उत्तरी भारत, गुजरात, मालवा, पाटलिपुत्र, कन्नौज, मुंगेर आदि के बारे में वर्णन किया है। लेकिन इस ग्रंथ में दक्षिण भारत के किसी भी राज्य के बारे में कुछ भी नहीं लिखा गया है, और इसने भारतीय शासको के आपसी एकता के अभाव को दर्शाया है। जिसके कारण विदेशी आक्रमण कर्ताओं के द्वारा भारत को समय-समय पर क्षति पहुंचाई गई, यहां की जातिगत व्यवस्था की कठोरता और उसके दुष्परिणाम और निम्न जाति के लोगों अर्थात अछूतों की स्थिति के बारे में लिखा है। वह यह स्पष्ट करते हैं कि यहां जाति प्रथा इतनी कठोर थी कि अगर किसी व्यक्ति को जाति ने वहिष्कृत कर दिया तो वह पुनः सम्मिलित नहीं हो पता था। सामाजिक कुरीतियां भी व्याप्त थी जिसमें मुख्यत अलबरूनी ने सती प्रथा के बारे में लिखा है 1 यहां के लोग अपनी भाषा संस्कृत देश आदि को सर्वश्रेष्ठ मानते थे इसके अलावा अलबरूनी ने हिंदू मंदिरों  मूर्तियां और बिहारों का विवरण किया है1 यहां का वैष्णो संप्रदाय सबसे लोकप्रिय संप्रदाय माना जाता था 1 भारतीय लोग प्राय मूर्ति पूजा फ्रेम यह देश आर्थिक दृश्य संपन्न देश था 1 मुद्रा व्यवस्था नापतोल आज के बारे में भी वर्णन किया गया है 1 अलबरूनी ने भारतीय राजाओं द्वारा अपनी प्रजा से कर लेने के अधिकार रूप में कृषकों के उत्पादन का 1/6 भाग लगान के रूप में लिया जाता था 1 उसके अनुसार भारत एक धनवान देश था 1 यह दीप यहां महमूद ने इसकी समृद्धि को लूटकर नष्ट किया

ताज उल मासिर :-

सदरूद्दीन मुहम्मद हसन निजामी द्वारा फारसी भाषा में लिखित यह ग्रंथ दिल्ली सल्तनत का प्रथम राजकीय इतिहास का वर्णन करता है। इस ग्रंथ में मुख्यतः कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल की घटनाओं और कहीं-कहीं पर मुहम्मद गौरी, सुल्तान इल्तुतमिश के समय में हुई घटनाओं को भी दर्शाया गया है।

ताज उल मासिर

इस ग्रंथ में हसन निजामी द्वारा युद्धों तथा उनके कारणों, परिणामों पर प्रकाश डाला है, तथा भारतीय शासन प्रणाली और सामाजिक स्थिति का भी विवरण दिया है। यहां होने वाले मेलो, उत्सवों और भारतीयों के मनोरंजन के साधनों को भी इस ग्रंथ में समाहित किया गया।यह एक छोटा ग्रंथ है। कुछ तत्वों के आधार पर इस ग्रंथ की प्रामाणिकता को प्रश्न चिन्ह लगता है। जैसे इसके अनुसार कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिरहम और दीनार नामक सिक्के चलवाए लेकिन अन्य इतिहासकारों के आधार पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने कोई सिक्का नहीं चलाया। लेकिन फिर भी इस ग्रंथ का ऐतिहासिक स्रोत होना उपयोगी माना गया है।

असहयोग आंदोलन (1920) कब | कहाँ | क्यों | किसके द्वारा | उद्देश्य |समापन

असहयोग आंदोलन

असहयोग आंदोलन का प्रारंभ कोई एक दिन की घटना का परिणाम न होकर, अंग्रेजी शासन द्वारा भारतीयों के प्रति उठाए गए कदमों का परिणाम था। असहयोग आंदोलन की मुख्यतः नींव वर्ष 1919 में पड़ी। क्योंकि इस वर्ष अंग्रेजी सत्ता द्वारा बनाई गई सरकारी नीतियां एवं गतिविधियों के कारण भारत के लगभग सभी सामाजिक वर्ग असंतुष्ट हो गए थे।

असहयोग आंदोलन

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असहयोग आंदोलन का मुख्य कारण :-

असहयोग आंदोलन के मुख्य कारण निम्नलिखित थे:-

 

प्रथम विश्व युद्ध के कारण जनता आर्थिक रूप से त्रस्त हो गई थी। महंगाई अपने चरम पर जिससे कस्बो, नगरों में रहने वाले मध्यम वर्गीय एवं निम्न वर्गीय लोग परेशान थे। खाद्यान्न की कमी, मुद्रास्फीति बढ़ने लगी औद्योगिक इकाइयों का उत्पादन कम हो गया। लोगों पर कर्ज बड़ा इसके साथ-साथ सुखे महामारी और फ्लैग जैसी आपदाओं ने तो आम जनमानस की कमर तोड़ के रख दी।

असहयोग आंदोलन के प्रारंभ होने का सबसे बड़ा कारण रोलेट एक्ट (संदेश मात्र से ही लोगों पर मुकदमा चला कर वर्षों की सजा सुनाया जाना) पंजाब में मार्शल लॉ लागू करना, जलियांवाला बाग हत्याकांड आदि घटनाओं ने अंग्रेजी सरकार के क्रूर और असभ्य रवैए को उजागर किया। हंटर कमीशन की सिफारिश से हाउस आफ लॉर्ड्स में जनरल डायर के कृत्यों को उचित ठहराया गया तथा मॉर्निंग पोस्ट ने डायर के लिए 30000 पौंड की धनराशि एकत्रित करना।
1919 में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार जिसका मुख्य उद्देश्य द्वैध शासन प्रणाली लागू करना था।

असहयोग आंदोलन कहां से शुरू हुआ:-

गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन 1 अगस्त 1920 से प्रारंभ किया गया। इसे पश्चिमी भारत, बंगाल, उत्तरी भारत में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई। इस दौरान मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू तथा राजेंद्र प्रसाद ने वकालत छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। गांधी जी ने एक वर्ष के भीतर स्वराज का नारा दिया।

सितंबर 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता के विशेष अधिवेशन में असहयोग आंदोलन को स्वीकारा गया। इसकी अध्यक्षता लाला लाजपत राय द्वारा की गई। इसका सी.आर. दास द्वारा विरोध किया गया। दिसंबर 1920 के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन प्रस्ताव को सी.आर. दास ने ही प्रस्तावित किया। जो की अंतिम रूप से पारित होने में सफल रहा।
असहयोग आंदोलन का विरोध सी.आर. दास, जिन्ना, एनीबेंसेंट और विपिन चंद्र पाल ने किया था।

असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम (प्रस्तावित प्रावधान):-

असहयोग आंदोलन के प्रस्तावित प्रावधान संबंधी प्रमुख बातें निम्नलिखित थी :-
– सरकारी उपाधि एवं अवैतनिक सरकारी पदों एवं अन्य पहलुओं का बहिष्कार।
-मद्य निषेध (ताड़ी, शराब जैसी अन्य नशीली चीज)|
-सरकार द्वारा आयोजित सरकारी एवं अर्द्ध सरकारी उत्सवों का बहिष्कार किया जाए। सरकारी शिक्षण संस्थानों तथा अस्पतालों, अदालतों का बहिष्कार।
-विदेशी सामानों, विदेशी नौकरियों का त्याग किया जाए।
-विभिन्न करो को देना बंद किया जाए।
-स्थानीय स्वशासन हेतु पंचायत का गठन किया जाए।
-हिंदू मुस्लिम एकता तथा छुआछूत को मिटाकर भाईचारे की भावना का विकास करना।
-राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन प्रदान किया जाए।

असहयोग आंदोलन के समर्थन में किए गए कार्य:-

ब्रिटिश सरकार द्वारा महात्मा गांधी को प्रदान की गई, कैसर-ए-हिंद की उपाधि गांधी जी द्वारा वापस साथ ही साथ जुलू-युद्ध- पदक बोअर युद्ध पदक भी लौटा दिए गए।

-सीआर दास, जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल,सी राज गोपालाचारी आदि नेताओं ने उपाधियों और नौकरियों को छोड़ दिया।

लोगों द्वारा स्कूल नौकरियों से बायकाट तथा विभिन्न स्थानों पर जनसभाओं को संबोधित किया गया।

1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स भारत भ्रमण पर आए उन्हें यहां की जनता ने काले झंडे दिखाकर उनका स्वागत किया।

इस आंदोलन में सर्वप्रथम गिरफ्तार होने वाले नेता मोहम्मद अली थे |इसी क्रम में सरकार की दमनकारी नीतियों के द्वारा सी. आर. दास तथा उनकी पत्नी बासंती देवी को गिरफ्तार कर लिया गया।

असहयोग आंदोलन में लगभग 30000 लोगों की गिरफ्तारी हुई लेकिन गांधी जी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका।

असहयोग आंदोलन चलाने के लिए 1921 ईस्वी में तिलक स्वराज फंड की स्थापना की गई इसमें 6 माह के अंदर एक करोड रुपए एकत्रित हो गया।

पंजाब में अकाली आंदोलन जो कि अहिंसक आंदोलन था प्रारंभ हुआ।
असम के चाय बागानों के मजदूरों द्वारा हड़ताल करना।

-मिदनापुर के किसानों द्वारा यूनियन बोर्ड को कर देने से मना कर दिया गया।
उपरोक्त सभी कार्यक्रमों के साथ-साथ गांधी जी ने अंग्रेजी सरकार को चेतावनी दी। कि अगर 7 दिनों के अंदर राजनीतिक बंदी रिहा नहीं हुए और प्रेस पर सरकार का नियंत्रण समाप्त नहीं किया गया। तो वह करो की अदायगी समेत सामूहिक रूप से बारदोली में एक सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करेंगे लेकिन इसी दौरान गोरखपुर में चौरी-चोरा कांड हो जाता है। जिससे क्षुब्ध होकर गांधी जी असहयोग आंदोलन वापस ले लेते हैं।

 

प्रश्न :-असहयोग आंदोलन कब हुआ ?

असहयोग आंदोलन 1 अगस्त 1920 को गांधी जी द्वारा प्रारंभ किया गया।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन कहां से शुरू हुआ ?

असहयोग आंदोलन सितंबर 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कोलकाता में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा गांधी के सहयोग से या प्रस्ताव पारित किया गया।

प्रश्न:- सहयोग आंदोलन का मुख्य कारण था।

असहयोग आंदोलन के मुख्य कारण निम्नलिखित थे रॉलेट एक्ट प्रथम विश्व युद्ध के कारण महंगाई, मुद्रा स्फीति ,औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, लोगों पर कर्ज, सूखा, महामारी, फ्लैग पंजाब में मार्शल लॉ आदि।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन कब समाप्त हुआ।

4 फरवरी 1922 को गोरखपुर में चौरी- चोरा कांड के कारण क्षुब्ध होकर महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का निर्णय लिया है। तथा 12 फरवरी 1922 को बारदोली में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में आंदोलन स्थगित करने की घोषणा की।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन क्या है।

अंग्रेजी सरकार द्वारा मानवीय कृत्यों एवं नए-नए समाज विरोधी नियमों को पारित करने पर भारतीय नेताओं एवं जनता द्वारा अंग्रेजी सरकार के सभी कार्यों में सहयोग न करके असहयोग करने का निर्णय लिया गया।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन कब और क्यों वापस लिया गया।

12 फरवरी 1922 को महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन स्थगित करने की घोषणा की। क्योंकि गांधीजी 4 फरवरी 1922 को हुए चौरी- चौरा (गोरखपुर) कांड से बहुत आहत हुए थे।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के किस अधिवेशन में पारित हुआ।

सितंबर 1920 के कोलकाता अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन के उद्देश्य।

जिन कार्यों से खिलाफत आंदोलन प्रारंभ किया गया। उनका उचित समाधान तथा जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रतिकार एवं स्वराज स्थापित।

 लॉर्ड कर्ज़न (1899-1905) जीवन परिचय|नीतियां|सुधार|मृत्यु|बंगाल विभाजन

 

भारतीय इतिहास में लॉर्ड कर्ज़न सबसे अलोकप्रिय वायसराय माना गया है। इसे इसके कार्यों के कारण दूसरा औरंगजेब गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा कहना उचित समझा गया है। हालांकि लॉर्ड कर्जन एक परिश्रमी, जिम्मेदार योग्य गवर्नर था। जिसने अनेक सुधार भी किये जैसे शिक्षा में सुधार, आर्थिक सुधार, पुलिस सुधार, कृषि सुधार आदि। इसका सबसे घृणित कार्य बंगाल विभाजन था।

लॉर्ड कर्ज़न

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लॉर्ड कर्जन का जीवन परिचय

लॉर्ड कर्ज़न का पूरा नाम जार्ज नैथूनियल कर्जन था। यह केडलस्टन डर्बीशायर के रेक्टर व चौथे बैरन स्कार्सडेल के सबसे बड़े पुत्र थे। यह अपने समकालीन लोगों में भारत के विषय में सबसे अधिक जानकारी रखते थे। यह परिश्रमी, जिम्मेदार तथा योग्यतम् गवर्नर था। विद्यालयी शिक्षा के प्रारंभिक स्कूल मास्टर जो शारीरिक दंड में विश्वास रखते थे, उनसे यह काफी प्रभावित था। 1874 में एक दुर्घटना के कारण इसकी पीठ में भयानक दर्द हुआ था। डॉक्टरों ने इसे आराम करने की सलाह दी लेकिन इसने सलाह न मानकर चमड़े का हार्नेस जीवन पर्यंत पहना जिसके कारण इसे नींद नहीं आती थी और यह ड्रग्स लेने लगा जिससे यह और क्रूर प्रवृत्ति का हो गया।

कर्जन जब ईटन में स्नातक कर रहा था। तभी इसने भारत का गवर्नर जनरल बनने की इच्छा प्रकट की थी। इसकी यह इच्छा 1899 में पूर्ण हुई। यह भारतीयों से हमेशा द्वेष भावना रखता था। यह अपने को एक श्रेष्ठ शासन की दृष्टि से देखता। कर्जन की मृत्यु मार्च 1925 में एक आंतरिक ऑपरेशन कराने के कारण हुई।

लॉर्ड कर्जन की नीतियां/ लाॅर्ड कर्जन के सुधार

लॉर्ड कर्ज़न के शिक्षा में सुधार

लॉर्ड कर्ज़न भारतीय विश्वविद्यालय और शिक्षा निकायों को उग्रवादियों और विद्रोहियों का अड्डा मानता। जिसे रोकने के लिए उसने 1901 में शिमला में शिक्षाविदों का सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में एक भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया। सम्मेलन के बाद एक विश्वविद्यालय आयोग टाॅमस रैले की अध्यक्षता 1902 में गठित किया गया। इस आयोग में दो भारतीय सदस्य सैयद हुसैन बिलग्रामी तथा गुरूदास बैनर्जी को सम्मिलित किया गया। इसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय कानून बनाया गया। इस कानून के द्वारा विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ गया। जिससे सरकार विश्वविद्यालयों के लिए नियम बना सकती तथा इनका निरीक्षण भी कर सकती थी। इस नियंत्रण को आगे और कठोरता पूर्वक लागू किया गया। इसलिए इस कानून का जोरदार विरोध किया गया। इस कानून के परिपेक्ष में कर्जन की छवि भारतीय शिक्षाविदों में एक खलनायक के रूप में बनी। कर्जन का भारतीय शिक्षा के बारे में मानना था। कि” पूर्व एक ऐसा विद्यालय है, जहां विद्यार्थियों को कभी प्रमाण पत्र नहीं मिलता।”

लॉर्ड कर्ज़न के आर्थिक सुधार

1899 में भारतीय टंकण तथा मुद्रण अधिनियम के आधार पर भारतीय मुद्रा को परिवर्तीय मुद्रा बना दिया तथा अंग्रेजी पाउंड भारत में विधिग्रह् बन गया तथा यह 1 पाउंड 15 रुपए के बराबर था। इस व्यवस्था के लागू होने पर जिन व्यक्तियों की वार्षिक आय ₹ 1000 थी उन्हें कर देना नहीं पड़ता था तथा नमक कर को भी घटकर 2.5 रुपए प्रतिमन से 1.5 रुपए प्रतिमन कर दिया गया।

कृषि सुधार

लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल में एक कृषि अनुसंधान केंद्र की स्थापना की जिससे वैज्ञानिक ढंग से कृषि की जा सके। पंजाब के कृषकों की स्थिति को मजबूत करने के लिए 1900 में दि पंजाब लैंड एलिनेशन एक्ट लाया गया जो कि किसी भी साहूकार द्वारा बिना सरकार की अनुमति के किसानों की भूमि पर अधिकार नहीं कर सकता था। इसी क्रम में कर्जन द्वारा 1904 में दि कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटीज एक्ट लाया गया। जिसके द्वारा किसानों को कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई तथा फसल नष्ट होने या खराब होने की दशा में लगान माफ करने का आदेश जारी किया।

सिंचाई आयोग का गठन

कर्जन द्वारा 1901 में कालिन स्काट के नेतृत्व में सिंचाई आयोग का गठन किया। इस आयोग ने सिंचाई के महत्व को समझा और अगले 20 वर्षों में इस पर 44 करोड रुपए खर्च करने की सिफारिश की जिसे सरकार द्वारा मान लिया गया।

लॉर्ड कर्ज़न के पुलिस सुधार

लॉर्ड कर्ज़न को पुलिस के क्रियाकलापों मे सुधार की आवश्कता महसूस हुई।इसलिए इसके द्वारा 1902 में पुलिस सुधार हेतु र्फेजर आयोग का गठन किया गया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया कि पुलिस विभाग पूरी तरीके से भ्रष्ट हो चुका है। और आयोग सुझाव दिया कि सिपाहियों और अधिकारियों के लिए विशेष प्रशिक्षण स्कूल खोले जाएं तथा उच्च अधिकारियों की भर्ती प्रत्यक्ष की जाएं इनके वेतन में वृद्धि तथा गुप्तचर विभाग बनाया जाए। आयोग ने स्पष्ट किया कि जनता को संदेह मात्र पर गिरफ्तार न किया जाए। आयोग के उपर्युक्त सभी सुझावों को सरकार ने मान लिया तथा प्रांतीय स्तर पर एक गुप्तचर विभाग (CBI) की स्थापना की गई।

मैक्डोनाल्ड आयोग (1900)

भारत में लार्ड एल्गिन द्वितीय के समय से ही कुछ प्रांतों को छोड़कर लगभग संपूर्ण भारत में अकाल की स्थिति का सामना करना पड़ता था। अतः इस स्थिति से निपटने के लिए लॉर्ड कर्ज़न ने मैक्डोनाल्ड की अध्यक्षता में एक अकाल आयोग का गठन किया। इस आयोग ने एक अकाल आयुक्त बनाने की सिफारिश की और कहा की सरकार को अकाल की स्थिति उत्पन्न होते ही तुरंत सहायता देना प्रारंभ कर देना चाहिए तथा यह भी सुझाव दिया कि इस विषम परिस्थिति में सरकार को गैर सरकारी संगठन से भी सहायता लेनी चाहिए।

रेलवे सुधार (1901)

भारतीय इतिहास में रेलवे के निर्माण को एक नए युग की तरह देखा गया। रेलवे के निर्माण की प्रगति लॉर्ड कर्ज़न के पूर्व ही प्रारंभ हो गई थी। लेकिन अंग्रेजी भारत के इतिहास में सबसे अधिक रेलवे लाइन का विस्तार कर्जन के कार्यकाल में ही संपन्न हुआ। कर्जन ने 1901 में रॉबर्टसन की अध्यक्षता में रेल व्यवस्था के सुधार के लिए एक रेलवे आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग ने सुझाव दिया कि रेलवे का प्रबंधन व्यावहारिक आधार पर होना चाहिए। अतः कर्जन ने रेलवे विभाग खत्म करके रेलवे बोर्ड की स्थापना की।

लॉर्ड कर्ज़न एक पुरातत्वविद् था। उसने 1904 में प्राचीन स्मारक सुरक्षा कानून बनाया। जिसके द्वारा पुरातत्व विभाग की स्थापना की गई। और इसके रखरखाव एवं सुरक्षा के लिए 50000 पाउंड की धनराशि इस विभाग को उपलब्ध कराई गई।

कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन (1905)

लॉर्ड कर्ज़न द्वारा भारत में सबसे घृणित कार्य बंगाल विभाजन था। कर्जन द्वारा यह तत्व प्रस्तुत किया गया। कि बंगाल प्रांत बड़ा होने के कारण प्रशासनिक असुविधा होती है। लेकिन इस विभाजन से देश की जनता में आक्रोश व्याप्त हो गया। कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियों की भारतीय युवाओं में प्रतिक्रिया हुई। नए बंगाल प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एंण्ड्रयू फ्रेजर ने सांप्रदायिक आधार पर कहा था।” मेरी दो पत्नियां है जिसमें मुसलमान पत्नी मुझे अधिक प्रिय है।” लॉर्ड कर्ज़न द्वारा किए गए कुछ प्रतिक्रियावादी कार्य जैसे कोलकाता कॉरपोरेशन अधिनियम एवं विश्वविद्यालय अधिनियम आदि भारत ने उग्रवादी कार्यों को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कर्जन के 7 वर्षों के शासनकाल को शिष्टमंडलों भूलों तथा आयोगों का काल कहा जाता है। हालांकि 1911 में बंगाल विभाजन को रद्द कर दिया गया। परंतु लॉर्ड कर्जन अंतत अपने सांप्रदायिक उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल रहा।

 प्रश्न01-बंगाल विभाजन कब हुआ?

बंगाल विभाजन की घोषणा लॉर्ड कर्जन ने 20 जुलाई 1905 को की तथा इसके बाद बंगाल विभाजन लागू 16 अक्टूबर 1905 को कर दिया गया।

प्रश्न02- बंगाल का एकीकरण कब किया गया?

बंगाल विभाजन लॉर्ड हार्डिंग द्वितीय के समय में 1911 में समाप्त किया गया। जिसमें जॉर्ज पंचम, क्वीन मेरी, भारत सचिव जार्ज मार्ले के संयुक्त हस्ताक्षर के द्वारा इसकी समाप्ति की घोषणा की गई

 प्रश्न03- बंगाल विभाजन का कारण क्या था?

बंगाल विभाजन का मुख्य कारण बंगाल की एकजुट शक्ति को तोड़ना था। जिसमें हिंदू तथा मुसलमान सभी शामिल थे। ब्रिटिश भारतीय राष्ट्रीय चेतना को फूट डालो राज करो के सिद्धांत के द्वारा नष्ट करना चाहती थी। उसने धार्मिक आधार पर बंगाल विभाजन करना उचित समझा।

 प्रश्न04- बंगाल विभाजन रद्द कब हुआ?

बंगाल विभाजन 1911 में दिल्ली दरबार के अवसर पर जॉर्ज पंचम तथा क्वीन मेरी के द्वारा रद्द करने की घोषणा की गई।

 प्रश्न05- लार्ड कर्जन की मृत्यु कैसे हुई?

लॉर्ड कर्जन की मृत्यु उसके मूत्राशय में गंभीर रक्तस्राव होने के कारण ऑपरेशन किया गया। जिसके फलस्वरूप 1925 में इसकी मृत्यु हो गई।

विजयनगर साम्राज्य(1336-1652)|संगम वंश|स्थापना|यात्री|मंदिर|अमर नायक प्रणाली

विजयनगर साम्राज्य

भारत के प्रांतीय राज्यों के शासनकाल में विजयनगर साम्राज्य का भारतीय मध्यकालीन इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। भारत के दक्षिणी पश्चिमी तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर एवं बुक्का नामक दो भाइयों ने सन 1336 ईस्वी में की थी। जो वर्तमान में हम्पी (कर्नाटक राज्य) नाम से जाना जाता है।

विजयनगर साम्राज्य

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विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर एवं बुक्का कंपिली राज्य में मंत्री के पद पर कार्यरत थे। 1325 ईस्वी में मुहम्मद बिन तुगलक के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शस्प ने कर्नाटक के सागर स्थान पर विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का दमन करने हेतु मुहम्मद बिन तुगलक स्वयं सागर गया। बहाउद्दीन ने भाग कर कंपिली के राजा के यहां शरण ली। मुहम्मद बिन तुगलक ने कंपिलो को जीत कर दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बना लिया । इसी दौरान हरिहर और बुक्का को कैद कर लिया गया तथा इनका धर्मांतरण कर मुसलमान बनाया गया।

सन 1327-28 में नायको द्वारा आंध्र के तटीय प्रदेशों में विद्रोह कर दिया। फल स्वरुप बीदर, गुलबर्गा, दौलताबाद मदुरा में भी विद्रोह प्रारंभ हो गया। इसी दौरान कंपिली में जनता ने सोमदेव राज के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। इसी विद्रोह का दमन करने के लिए मुहम्मद बिन तुगलक ने हरिहर और बुक्का को कंपिली भेजा। यह दोनों भाई विद्रोह का दमन कर पाने में असफल रहे इसी समय इनकी मुलाकात संत विद्यारण्य से हुई, जिन्होंने अपने गुरु श्रृंगेरी के मठाधीश विद्यातीर्थ की अनुमति से इनको पुनः हिंदू धर्म की दीक्षा प्रदान की।

सन 1336 में हरिहर ने हंपी हस्तिनावती राज्य की नींव डाली। इसी वर्ष तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित अनेगोण्डी के सामने विजयनगर (विद्यानगर) शहर की स्थापना की। यही राज्य बाद में विशाल विजयनगर राज्य बना तथा इसकी राजधानी विजयनगर को बनाया गया। विजयनगर साम्राज्य के स्थापना की साहसिक प्रेरणा उसके गुरु विद्यारण्य तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्कार सायण से मिली।

विजयनगर साम्राज्य से संबंधित कुल चार राजवंशों ने शासन किया:-

संगम वंश:- (संस्थापक हरिहर व बुक्का)
सालुव वंश:- (संस्थापक नरसिंह सालुव)
तुलुब वंश:- (संस्थापक वीर नरसिंह)
अरवीडु वंश:- (संस्थापक तिरुमाल या तिरुमल्ल)

संगम वंश (1336-1485 ई.):-

विजयनगर साम्राज्य के चार राजवंशों में संगम वंश पहला वंश था। जिसकी स्थापना हरिहर व बुक्का ने अपने पिता संगम के नाम पर इस वंश का नाम संगम वंश रखा।

विजयनगर साम्राज्य

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संगम वंश के शासक:-

हरिहर प्रथम (1336-1356ई.):-

संगम वंश का प्रथम शासक हरिहर प्रथम था। जिसने दो राजधानियां बनाई,इसकी प्रथम राजधानी तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित अनेगोंण्डी थी। बाद में सुरक्षा कारणों से राजधानी परिवर्तन कर विजयनगर को बनाया गया। हरिहर तथा बुक्का दोनों भाइयों ने मिलकर विजयनगर साम्राज्य का विस्तार उत्तर में कृष्णा नदी से दक्षिण में स्थित कावेरी नदी तक किया। इसके साम्राज्य में बदामी, उदयगिरि, गुट्टी के दुर्ग पर कब्जा किया। तथा होयसल तथा कादम्ब प्रदेश को इसमें शामिल कर लिया।

हरिहर प्रथम के शासन काल में बहमनी तथा विजयनगर राज्यों के मध्य संघर्ष प्रारंभ हुआ। यह संघर्ष लगभग 200 वर्षों तक जारी रहा। हरिहर प्रथम ने अपने राज्य को देश स्थल तथा नांड्डुओ में बांटा। इसकी मृत्यु 1336 ईस्वी में हो गई।

बुक्का प्रथम (1356-77 ई.) तक:-

हरिहर प्रथम की मृत्यु के बाद बुक्का प्रथम सिंहासन पर बैठा। वेद मार्ग प्रतिष्ठापक की उपाधि धारण की और हिंदू धर्म की सुरक्षा का दावा किया। यह एक महान योद्धा, विद्या प्रेमी व राजनीतिक होने के साथ-साथ शासन का केंद्रीयकरण किया। तमिलनाडु के साथ-साथ उसने कृष्णा तुंगभद्रा के दोआब की मांग की जिससे बहमनी और विजयनगर राज्यों में संघर्ष प्रारंभ हो गया। अंततः कृष्णा नदी को बहमनी व विजयनगर की सीमा मान लिया गया।

“मदुरा विजयम” ग्रंथ की रचना “गंगा देवी” ने की गंगा देवी बुक्का प्रथम के पुत्र कंपन की पत्नी थी। इस ग्रंथ में मदुरा विजय का वर्णन किया गया है। इसके शासनकाल में सभी धर्मो को स्वतंत्रता प्राप्त थी। बुक्का प्रथम के काल में वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार,सायणाचार्य दरबार की शोभा में चार चांद लगाते थे। अभिलेखों में बुक्का को “पूर्वी पश्चिमी व दक्षिणी सागरों का स्वामी” कहा गया है। 1377 में इसकी बुक्का प्रथम की मृत्यु हो गई।

हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.):-

बुक्का प्रथम की मृत्यु के बाद हरिहर द्वितीय सिंहासन पर बैठा। इसने राजाधिराज, राजव्यास या राज बाल्मिकी, राज परमेश्वर आदि उपाधियां धारण की। इसने कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची प्रदेश, दभोल का तटीय क्षेत्र मुस्लिम शासको से गोवा जीतकर विजयनगर की सीमा का विस्तार किया। इतिहासकारों का मानना है कि इसने श्रीलंका विजय कर वहां के शासक से कर वसूल किया।

हरिहर द्वितीय विरुपाक्ष का उपासक होने के साथ इसने शैव, वैष्णव व जैनियों को संरक्षण प्रदान किया। सायणायाचार्य एक प्रसिद्ध वेदों के टिकाकार इसके दरबार में मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्त थे। तथा जैन धर्म का अनुयाई ईरूगापा नानार्थ रत्नमाला का लेखक इसका सेनापति था। 1404 में हरिहर द्वितीय की मृत्यु के बाद इसके पुत्रों में संघर्ष हुआ तथा विरुपाक्ष प्रथम और बुक्का द्वितीय ने क्रमशः शासक बने अंततः 1906 में देव राय प्रथम शासक बना।

देव राय प्रथम (1406-22) तक

देव राय प्रथम के शासन संभालते ही बहमनी शासक फिरोजशाह ने विजयनगर पर आक्रमण किया। जिसमें देवराय को पराजय का सामना करना पड़ा और एक संधि के फलस्वरुप देव राय प्रथम को अपनी पुत्री का विवाह फिरोजशाह के साथ तथा बांकापुर दहेज में भेंट करना पड़ा। यह संधि बहुत दिनों तक न टिक सकी तथा 1417 में फिरोजशाह ने देव राय प्रथम पर आक्रमण कर पनागल (नालगोंडा) दुर्ग की लगभग 2 वर्षों तक घेराबंदी की फिरोजशाह की सेना में महामारी फैलने के कारण वापस जाना पड़ा। एक बार फिर 1419 में दोनों में युद्ध हुआ जिसमें फिरोज शाह की पराजय हुई।

देवराय प्रथम के शासनकाल को देखा जाए तो वह एक महान सैनिक, राजनीतिज्ञ तथा निर्माता था। उसने अनेक सिंचाई योजनाएं तथा तुंगभद्रा तथा हरिहर नदी पर बांधों का निर्माण कराया। इसके शासनकाल में इतालवी यात्री निकोलोकान्टी (1420) ने विजयनगर की यात्रा की। इसने अपने यात्रा वृतांत में दीपावली, नवरात्र, बहुविवाह, सतीप्रथा आदि का उल्लेख किया। देवराय के दरबार में हरीविलास ग्रंथ के रचनाकार प्रसिद्ध तेलुगू कवि श्रीनाथ को संरक्षण प्रदान किया। 1422 में देव राय प्रथम की मृत्यु हो गई।

देवराय द्वितीय (1422-46)ई. तक

देवराय प्रथम की मृत्यु के बाद क्रमशः रामचंद्र, विजयप्रथम ने लगभग 6,6 माह शासन किया इसके उपरांत देवराय द्वितीय सिंहासन पर आसीन हुआ। इसने गजवेटकर (हाथियों का शिकारी) इम्मादि, देवराय या प्रौढ़ देवराय आदि उपाधियां धारण की। यह संगम वंश का महानतम शासक माना जाता है। यह एक धर्म सहिष्णु शासक था। सिंहासन पर आसीन होने पर इसने कुरान की प्रति अपने समक्ष रखी तथा मुस्लिम सैनिकों की भर्ती की अपनी सैनिक शक्ति विस्तार करने के लिए इसने 2000 तुर्की धनुर्धरों को अपनी सेवा में भर्ती किया। आंध्रा में कोड़ाबिंदु, वेलम का शासक तथा केरल को अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया तथा अपना साम्राज्य श्रीलंका (सीलोन)तक विस्तृत किया।

इसके शासनकाल में फारस (ईरान) के राजदूत अब्दुल रजाक ने विजयनगर की यात्रा की। जो कि ईरान के शासक मिर्जा शाहरुख का दूत था। लिंगायत धर्म को मानने वाले मंत्री लक्कना या लख्मख को “दक्षिणी सागर का स्वामी” नियुक्त किया। देवराय द्वितीय द्वारा संस्कृत ग्रंथों महानाटक, सुधा नीति एवं वादरायण के ब्रह्मसूत्र पर एक टीका की रचना की। दिनदिमा इसका दरबारी कवि था। इसके संरक्षण में 34 कवि फले-फूले। 1446 में देव राय द्वितीय की मृत्यु हो गई। इसके बाद विजय द्वितीय 1446 ईस्वी में लगभग 1 वर्ष शासन किया तथा बाद में अपने भतीजे मल्लिकार्जुन के लिए सिंहासन का त्याग कर दिया।

मल्लिकार्जुन (1446- 65) ई. तक

मल्लिकार्जुन ने इम्मादि देवराय, प्रौढ़ देवराय तथा गजबेटकर उपाधियां धारण की। गजबेटकर उपाधि इसके पिता देवराय द्वितीय ने भी धारण की थी। अल्पायु में ही इसका राज्यारोहण हुआ उड़ीसा के गजपतियों द्वारा इसके दो किले कोंडवीर, उदयगिरि को छीन लिया गया। इसके शासनकाल में माहुयान नामक चीनी यात्री विजयनगर आया। इसकी मृत्यु सन् 1465 में हुई इसका उत्तराधिकारी विरुपाक्ष द्वितीय बना।

विरुपाक्ष द्वितीय (1465-85)ई. तक

विरुपाक्ष द्वितीय विजयनगर साम्राज्य के संगम वंश का अंतिम शासक था। इसकी हत्या इसके पुत्र प्रौढ़ देवराय ने कर दी। इस घटना को इतिहास में प्रथम बलापहार कहा जाता है। इसके साम्राज्य में अराजकता फैल गई इसी अवसर को देखकर चंद्रगिरि के गवर्नर सालुक नरसिंह ने शासन पर अधिकार कर लिया और सालुव वंश की स्थापना की।

प्रश्न 01- विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कब हुई?

-विजयनगर साम्राज्य की स्थापना सन 1336 ईस्वी में की गई।

प्रश्न 02- विजयनगर साम्राज्य की स्थापना किसने की?

-विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर एवं बुक्का नामक दो भाइयों ने की थी।

प्रश्न 03- विजय नगर की यात्रा करने वाला पहला विदेशी कौन था?

-विजयनगर की यात्रा करने वाला पहला विदेशी यात्री इतालवी यात्री निकोलो कान्टी था। जो देवराय प्रथम के शासनकाल में सन् 1440 ईस्वी में आया था।

प्रश्न 04- विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी?

-विजयनगर की राजधानी विजयनगर (विद्यानगर) थी। समय-समय पर विजयनगर की राजधानी परिवर्तित होती रही यह क्रमशः अनेगोण्डी, विजयनगर, पेनुकोण्डा तथा चंद्रगिरि, हम्पी (हस्तिनावती) विजयनगर की पुरानी राजधानी का प्रतिनिधित्व करता था। विजयनगर का वर्तमान नाम हंपी (हस्तिनावती) है।

प्रश्न 05- विजयनगर का अंतिम शासक कौन था?

-विजयनगर साम्राज्य का अंतिम शासक श्रीरंग तृतीय (अरविडु वंश) था।

प्रश्न 06- विजयनगर किस नदी के किनारे है?

-विजयनगर तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित है।

प्रश्न 07- विजयनगर साम्राज्य से संबंधित वंश हैं?

-संगम वंश (1336-1485 ई.)
-सालुव वंश (1485-1505 ई.)
-तुलुव वंश (1505-1565 ई.)
-अरविडु वंश (1570-1652ई.)

प्रश्न 08- विजयनगर के दो प्रसिद्ध मंदिर कौन से थे?

-विजयनगर के दो प्रसिद्ध मंदिर हजारा राम मंदिर तथा विट्ठल स्वामी मंदिर था।

प्रश्न 09- विजयनगर साम्राज्य की अमर नायक प्रणाली?

-विजयनगर साम्राज्य में सैनिक और असैनिक अधिकारियों को उनकी सेवाओं के बदले जो भूमि प्रदान की जाती थी। उसे अमरम् कहा जाता था। तथा इस अमरम् को प्राप्त करने वालों को अमरनायक कहा जाता था

लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति (1848-1856) Doctrine of Lapse in Hindi / हड़प नीति/व्यपगत का सिद्धान्त

भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के लिए लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति बहुत बड़ी कूटनीतिक चाल थी। गवर्नर लॉर्ड डलहौजी एक बहुत ही कूटनीतिक एवं कार्य कुशलता के लिए प्रसिद्ध गवर्नर जनरल था। वह मात्र 30 वर्ष की आयु में गवर्नर जनरल पद पर नियुक्त किया गया। स्कॉटलैंड के वह एक अमीर पिता का पुत्र था । लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति के कारण इसे इतिहास के महान गवर्नरों में शुमार किया जाता है क्योंकि उसने अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया उसने किसी भी अवसर को छोड़ा नहीं जिससे कि अंग्रेजी साम्राज्य में वृद्धि हुई इसके स्थान पर यदि अन्य कोई शायद गवर्नर जनरल होता तो वह कुछ परिस्थितियों मैं राज्यों को हड़पने का कार्य नहीं करते लेकिन इस गवर्नर जनरल ने कुछ भी बहाना मिला उससे उसने अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार किया उसने युद्ध में पंजाब और पीगू (बर्मा) को जीता और अपनी हड़प नीति के द्वारा शांति का प्रयोग करते हुए उसने अवध, सातारा, जैतपुर, झांसी और नागपुर को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाया और उसने आधुनिक भारत के भवन की आधारशिला रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति

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लॉर्ड डलहौजी द्वारा जीतकर विलय किए गए राज्य :-

द्वितीय आंग्ल सिख युद्ध और पंजाब का विलय 1849 :-

इस युद्ध की शुरुआत तो अंग्रेज अधिकारी वान्स इग्न्यू और लेफ्टिनेंट एंडरसन की मुल्तान में सिपाहियों द्वारा हत्या कर दिया जाना था। यह संकट मुल्तान के गवर्नर मूलराज के विद्रोह द्वारा उत्पन्न हुआ था। हजारा के सिख गवर्नर ने भी इस समय विद्रोह किया और अपना झंडा फहराया। सिखों ने पेशावर, अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मोहम्मद को सौंप दिया और उससे दोस्ती कर ली। बहुत से पंजाबी मूलराज के समर्थन में आ गए इस प्रकार यह एक राष्ट्रीय युद्ध का रूप ले चुका था। लॉर्ड डलहौजी के अनुसार” बिना पूर्व चेतावनी के कारण ही सिखों ने युद्ध की घोषणा कर दी है अतः यह युद्ध करना स्वाभाविक हो गया था और उसने सौगंध ली और कहा कि यह युद्ध प्रतिशोध के रूप में किया जाएगा।”

लार्ड गाॅफ की अधीनता में अंग्रेज सैनिकों ने 16 नवंबर 1848 को सीमा पार की और रामनगर, चिलियांवाला और गुजरात में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में सिखों की हार हुई इस अवसर को डलहौजी ने पंजाब के विलय के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह कहा गया कि जब तक लोगों के पास युद्ध करने के साधन तथा अवसर है पंजाब में शांति नहीं होगी और उस समय तक भारत में शांति की कोई प्रत्याभूति नहीं होगी। जब तक हम सिखों को पूर्णतया अधीन नहीं कर लेते और इनके राज्य का पूर्णतया अंत नहीं कर देते। इसी के साथ 29 मार्च 1849 को पंजाब के विलय की घोषणा की गई और वहां के महाराजा दिलीप सिंह को पेंशनर बना दिया गया और अंग्रेजों ने शासन संभाल लिया। अंग्रेजों के लिए यह विलय राजनीतिक रूप से उचित और लाभदायक था क्योंकि इससे जो भारत के उत्तरी पश्चिमी सीमा पर दर्रे थे जो उस समय रास्ते के रूप में प्रयोग किए जा रहे थे उन पर अंग्रेजों का अधिकार सुनिश्चित हो गया था। हालांकि डलहौजी के पास इस विलय का कोई वैधानिक और नैतिक अधिकार नहीं था। इस लिए इवैन्ज बैल ने इसे “संगीन विश्वासघात” की संज्ञा दी।

लोअर बर्मा अथवा पीगू का राज्य में विलय (1852) :-

यन्दाबू की संधि (1826) के बाद कुछ अंग्रेज व्यापारी बर्मा के दक्षिणी तट और रंगून में बस गए थे। यह यहां के निवासी रंगून के गवर्नर पर दुर्व्यवहार की शिकायत करते थे। शैम्पर्ड और लुईस नाम के दो अंग्रेज कप्तानों पर बर्मा सरकार ने छोटे से अपराध के लिए भारी जुर्माने लगा दिए थे। अंग्रेजी कप्तानों ने डलहौजी को पत्र लिखा यह पत्र डलहौजी को बहाना बनाने के लिए पर्याप्त था डलहौजी ने ब्रिटिश गौरव और प्रतिष्ठा की रक्षा का दृढ़ संकल्प लिया था। उसके अनुसार उसका मानना था कि “यदि कोई व्यक्ति गंगा नदी के मुहाने पर अंग्रेजी झंडे का अपमान करता है। तो वह वैसा ही है जैसा कि कोई टेम्स नदी के मुहाने पर अपमान करता है।” इस बहाने को अमली जामा पहनाते हुए लॉर्ड डलहौजी ने फॉक्स नाम के युद्धपोत के अफसर काॅमेडोर लैंबर्ट को रंगून भेजा और उससे ब्रिटिश कप्तानों की क्षतिपूर्ति के लिए बातचीत करने और उनसे हर्जाना मांगने को कहा। छोटे से झगड़े को सुलझाने के लिए युद्ध पोतों का भेजना यह प्रदर्शित करता है कि यदि उसकी इच्छा के अनुसार समाधान नहीं किया गया तो युद्ध सुनिश्चित होगा लैंबर्ट ने बर्मा के महाराजा के युद्ध पोतों को पकड़ लिया और भयंकर युद्ध हुआ बर्मा सरकार हार गई। अब लोअर बर्मा को अपने साम्राज्य में विलय करने की घोषणा 20 दिसंबर 1852 को कर दी गई। अंग्रेजी साम्राज्य को इससे अमेरिका और फ्रांस की बढ़ती हुई समुद्रों में शक्ति पर नियंत्रण पाने का रास्ता साफ हो गया था। द्वितीय बर्मा युद्ध के विषय में अर्नाल्ड ने कहा “द्वितीय बर्मा युद्ध ना तो मूलतः और ना ही व्यवहारिक दृष्टि से न्याय पूर्ण था।” उदारवादी नेता कांब्डन और ब्राइट ने इसे एक बहुत “गंभीर पाप” की संज्ञा दी।

सिक्किम का विलय (1850) :-

सिक्किम एक छोटा सा राज्य था। जो नेपाल और भूटान देशों के बीच में स्थित था। वहां के राजा पर या दोष लगाया गया कि उसने दो अंग्रेज डॉक्टरों से दुर्व्यवहार किया है। इसलिए लॉर्ड डलहौजी को अपनी हड़प नीति के तहत बहाना मिल गया और उसने 1850 में सिक्किम के कुछ दूरवर्ती प्रदेश जिनमें दार्जिलिंग भी सम्मिलित था भारत में मिला लिए गए अर्थात अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित हो गए।

लार्ड डलहौजी द्वारा शांतिपूर्ण विलय- व्यपगत का सिद्धांत :-

डलहौजी के साम्राज्य विस्तार के कार्य में व्यापक के सिद्धांत की चर्चा न की जाए तो यह अधूरा माना जाएगा इस सिद्धांत के द्वारा डलहौजी ने महत्वपूर्ण रियासतों को अपने साम्राज्य में मिलाया और उसने झूठें रजवाड़ों और कृत्रिम मध्यस्थ शक्तियों द्वारा जो प्रजा की मुसीबतों को बढ़ाने का कार्य कर रहे थे। इस बात का बहाना करके परोक्ष रूप में वह मुगल शक्ति के साम्राज्य को हड़प करना चाहता था और भारतीय राज्य राजवाड़े जो मुगलों के उत्तराधिकारी का दावा कर सकते थे। उस संभवाना को समाप्त करने का कार्य किया उसके अनुसार भारत में तीन प्रकार की रियासतें थी:-

1-ऐसी रियासतें जो पूर्णता स्वतंत्र थी उनमें किसी भी प्रकार का दखल नहीं किया जाएगा।

2-वे रियासतें जो अंग्रेजी शासन के अधीन भी वह बिना गवर्नर जनरल के आदेश से गोद नहीं ली जा सकती थी।

3-वे रियासतें जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई या उन पर अंग्रेजों का पूर्ण नियंत्रण था उन्हें गोद लेने की आज्ञा नहीं दी जाएगी।

लॉर्ड डलहौजी ने अपनी नीति का 1854 में पुनरावलोकन करते हुए कहा की प्रथम श्रेणी की रियासतों के गोद लेने के मामलों में हमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है।

दूसरी श्रेणी के गोद लेने के लिए रियासतों को हमारी अनुमति अति आवश्यक है। उसने यह भी कहा कि इस प्रकार की रियासतों को हम अनुमति दे सकते हैं और उनको नहीं भी अनुमति देने का अधिकार रखते हैं।

परंतु तीसरी श्रेणी की रियासतों में हमारा विश्वास है कि उत्तराधिकार में गोद लेने की आज्ञा दिया जाना बिल्कुल ही गलत है अतः हम इसकी आज्ञा कभी नहीं देंगे।

लार्ड डलहौजी के द्वारा व्यपगत सिद्धांत के द्वारा विलय किए गए राज्य निम्नवत थे:- सतारा (1848), जैतपुर और संभलपुर (1849), बघाट (1850), उदेपुर (1852), झांसी (1853) और नागपुर (1854) ।

सतारा (1848):-

लॉर्ड डलहौजी के व्यपगत सिद्धांत के अनुसार हड़प किया जाने वाला यह प्रथम राज्य था। यहां के शासक अप्पा साहिब के कोई पुत्र नहीं था। उन्होंने अपनी मृत्यु के पहले कंपनी के अनुमति के बिना एक दत्तक पुत्र बना लिया था। इसी अवसर का लाभ उठाकर डलहौजी ने इस राज्य को आश्रित राज्य घोषित कर इसका विलय अंग्रेजी शासन में कर लिया। इस विलय का समर्थन डायरेक्टरों द्वारा भी किया गया। और उन्होंने इस विलय के बारे में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि हम पूर्णता सहमत हैं और उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारतीय सामान्य कानून और प्रथा के अनुसार सातारा जैसे अधीनस्थ राज्यों को कंपनी की स्वीकृति के बिना दत्तक पुत्र लेने का अधिकार नहीं है। इस विलय के विरोध में जोसेफ ह्यूम ने कामन्स सभा में इसकी तुलना “जिसकी लाठी, उसकी भैंस” के रूप में की।

संभलपुर (1849):-

उड़ीसा में स्थित इस राज्य का शासक नारायण सिंह था।नारायण सिंह का कोई पुत्र नहीं था और वह कोई दत्तक पुत्र भी नहीं बना सके। इस अवसर का लाभ उठाकर 1849 संभल का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में कर लिया गया।

जैतपुर (1849):-

जैतपुर मध्य प्रदेश में स्थित एक रियासत थी जिसका सतारा रियासत की तरह कोई दत्तक उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सका। इस आधार पर जैतपुर का भी विलय कर लिया गया।

बघाट (1850):-

यह रियासत पंजाब में स्थित थी। जिसका विलय 1850 में अंग्रेजी शासन द्वारा कर लिया गया । लेकिन बाद में 1857 की क्रांति में यहां के राजा ने अंग्रेजी सत्ता का समर्थन किया और उनका सहयोग किया। इस कारण कैनिंग ने यहां के राजा की राज भक्ति देख कर इसे पुनः वापस कर दिया था |

उदेपुर (1852):-

यह रियासत मध्य प्रदेश में स्थित थी। इसका विलय हड़प नीति के द्वारा 1852 में कर लिया गया परंतु बाद में कैनिंग द्वारा बघाट रियासत की तर्ज पर इसे वहां के शासक को वापस कर दिया गया।

झांसी (1853):-

इस रियासत के राजा गंगाधर राव को उत्तराधिकार के आधार पर कंपनी ने शासक स्वीकार कर लिया लेकिन नवंबर 1853 में गंगाधर राव बिना पुत्र के स्वर्ग सिधार गए। उनकी विधवा लक्ष्मीबाई को डलहौजी ने पुत्र गोद लेने की अनुमति नहीं दी।
उत्तराधिकारी न होने के आधार पर झांसी रियासत का विलय कर लिया गया।

नागपुर (1854):-

1817 में लॉर्ड हेस्टिंग्ज द्वारा नागपुर रियासत का उत्तराधिकारी भोंसले परिवार के एक बच्चे राघू जी तृतीय को स्वीकार कर लिया गया था। 1853 में राजा का बिना दत्तक पुत्र को गोद लिए ही निधन हो गया। लेकिन उसने रानी को पुत्र गोद लेने को कह दिया था । जब रानी ने पुत्र गोद लेने का प्रस्ताव किया तो कंपनी में अस्वीकार कर दिया और राज्य का विलय कर लिया गया। इस विलय का अवसर उठाकर कंपनी ने रानियों के आभूषण और राजमहल के सामान को बेचकर लगभग 2 लाख पौंड की धनराशि प्राप्त की ।

अवध का विलय (1856):-

अवध के विलय का मुख्य कारण केवल वहां का कुशासन माना गया लेकिन इस कुशासन को देखा जाए तो मुख्य कारण अंग्रेज स्वयं ही थे। लॉर्ड डलहौजी ने इस रियासत के विलय की योजना बहुत ही कूटनीतिक तरीके से बनाई ,उसने अपने ही अधिकारियों को अवध में जांच करने के लिए भेजा और उन अधिकारियों द्वारा अवध में कुशासन के विषय को वरीयता पूर्वक बढ़ा चढ़ा कर लंदन भेज दिया गया। और वहां की गृह सरकार से अवध के विलय की अनुमति प्राप्त कर ली गृह सरकार और ब्रिटिश जनमत तैयार करने के बाद डलहौजी ने बड़ी आसानी से यह कार्य कर दिया। अवध को लॉर्ड डलहौजी ने “दुधारू गाय” की संज्ञा दी थी । इसी कारण बहुत ही सुनियोजित तरीके से लंदन से जांच कमेटी बनवा कर 1854 मे आउट्रम को स्लीमैन के स्थान पर भेजा गया। इसकी रिपोर्ट के आधार पर नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटाकर अवध का विलय कर लिया गया।

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हड़प्पा कालीन प्रमुख नगर

हड़प्पा कालीन प्रमुख नगर
हड़प्पा संस्कृति का विस्तार उत्तर में माण्डा चिनाव नदी के तट पर जम्मू कश्मीर, दक्षिण में दैमाबाद गोदावरी नदी के तट पर, पश्चिम में सुत्कागेण्डोर दाश्क नदी के तट पर, पूर्व में आलमगीरपुर हिण्डन नदी के किनारे मेरठ उत्तर प्रदेश तक होने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
हड़प्पा कालीन प्रमुख नगरों में केवल 7 नगरों को ही नगर माना गया है वैसे देखा जाए तो लगभग 1500 स्थलों की खोज की जा चुकी है। सात नगर निम्नवत् हैं:-

हड़प्पा

पंजाब प्रांत (पाकिस्तान) के मांण्टगोमरी जिले में रावी नदी के बाएं तट पर स्थित है। •इसकी खोज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक जान मार्शल के निर्देश पर 1921 ईस्वी में दयाराम साहनी द्वारा की गई।
•यह स्थल सिंधु घाटी सभ्यता का क्षेत्रफल की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा स्थल है यहां AB और F नाम के दो टीले हैं AB टीले पर दुर्ग बना है तथा दुर्ग के बाहरी टीले को F नाम दिया गया।
•F नाम के टीले पर अन्नागार, श्रमिक आवास और अनाज कूटने के लिए गोलाकार चबूतरो के साक्ष्य मिले हैं अर्थात इनसे यह स्पष्ट होता है कि यह जनसाधारण के निवास की जगह थी AB टीले पर दुर्ग होने से स्पष्ट होता है कि यहां प्रशासक वर्ग के व्यक्तियों का निवास स्थल था।
• हड़प्पा नगर क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान मिला जिसे समाधि r37 नाम दिया गया।
•1934 ईस्वी में प्राप्त समाधि का नाम समाधि H रखा गया।
यहां से पत्थर से बनी लिंग योनि की संकेतात्मक मूर्ति, विशाल अन्नागार, मातृ देवी चित्र, सोने की मोहर, सवाधान पेटिका, गेहूं जौ के दाने, मृदभाण्ड उद्योग के साक्ष्य, 16 भठ्ठियां, धातु बनाने की एक मूषा मिली है जिससे ताम्रकार होने के साक्ष्य।

मोहनजोदड़ो

•यह स्थल लरकाना जिला सिंध प्रांत पाकिस्तान में सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित था।
•यह स्थल हड़प्पा सभ्यता की राजधानी माना जाता है।
•यह क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा नगर था।
•मोहनजोदड़ो का अर्थ- प्रेतों का टीला तथा इसे सिन्धु बाग भी कहा जाता है।
•इस स्थल की खोज राखलदास बनर्जी ने 1922 में की थी।
•यहां सबसे महत्वपूर्ण वस्तु विशाल स्नानागार है जो 11.88 मीटर लंबा 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा था। फर्श पक्की ईंटों से निर्मित दोनों सिरों पर सीढ़ियां थी इसमें पानी भरने व निकालने का उचित प्रबंध किया गया था।
•विशाल स्नानागार का उपयोग धर्म अनुष्ठानों संबंधी स्नान के लिए होता था। इसको मार्शल द्वारा तत्कालीन विश्व का आश्चर्यजनक निर्माण बताया गया है।
•स्नानागार के अतिरिक्त निम्न वस्तुओं की प्राप्ति हुई:-
अन्नागार:
अन्नागार या अन्नकोठार इसकी लंबाई 45.71 मीटर तथा 15.23 मीटर चौड़ाई थी। व्हीलर के अनुसार मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी इमारत थी।
सभा भवन:
27×27 मीटर वर्गाकार दुर्ग के दक्षिण में अवस्थित भवन था।
पुरोहित आवास:
इसकी लंबाई 70× 23.77 मीटर स्नानागार के उत्तर पूर्व में स्थित भवन था। उक्त के अलावा खोचेदार नालियां, नर्तकी की मूर्ति (कांस्य) पशुपति मुहर, मकानों में खिड़कियां, मेसोपोटामिया की मोहर आदि।
•यहां के पूर्वी किले के HR क्षेत्र से कांसे की नर्तकी की मूर्ति तथा 21 मानव कंकाल प्राप्त हुए।
•पिग्गट महोदय द्वारा हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो को सिंधु सभ्यता की जुड़वा राजधानी कहा गया है।

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चन्हूदडो

•सिंधु नदी के बाएं तट पर स्थित इस नगर की खोज एन.जी. मजूमदार द्वारा 1931 ईस्वी में की गई।
•यहां झूंकर संस्कृति तथा झांगर संस्कृति का विकास हुआ।
•मनके बनाने का कारखाना यहीं से प्राप्त हुआ जिसकी खोज मैके द्वारा की गई।
•तीन घड़ियाल तथा दो मछलियों की बनी आकृति वाली मुद्रा यहीं से प्राप्त हुई।
•यहां वक्राकार ईटों का प्रयोग किया गया।
•कुत्ते द्वारा बिल्ली का पीछा करते पंजों के निशान ईटों पर प्राप्त हुए।
•लिपस्टिक, काजल, उस्तरा, कंघा आदि यहां से वस्तुएं प्राप्त हुई।

लोथल

•इस स्थल की खोज 1954 में एस. आर. राव द्वारा की गई जिसे लघु हड़प्पा या लघु मोहनजोदड़ो कहा जाता है।
•यह स्थल भोगवा नदी के किनारे अहमदाबाद (गुजरात) में स्थित था।
•लोथल से एक गोदीवाड़ा (पत्तन) का साक्ष्य प्राप्त हुआ।
•यहां से प्राप्त तीन युग्मित समाधियो से सती प्रथा का अनुमान लगाया जाता है।
•यहां से अग्निकुंड, मनके बनाने का कारखाना तथा 126 मीटर× 30 मीटर भवन प्राप्त हुआ। जिसे प्रशासनिक भवन की संज्ञा दी गई।

 कालीबंगा

•कालीबंगा राजस्थान के गंगानगर जिले में घग्गर नदी के तट पर स्थित है।
•कालीबंगा का अर्थ- काली रंग की चूड़ियां।
•यह हड़प्पा सभ्यता का एकमात्र ऐसा नगर है जहां ऊपरी और निचले दोनों स्थान दुर्गीकृत हैं।
•इस नगर की खोज अमलानंद घोष द्वारा 1951 में की गई थी।
•यह नगर सरस्वती (आधुनिक नाम घग्घर) दृष्द्वती नदी के मध्य स्थित है।
•कालीबंगा में चूड़ी निर्माण उद्योग, शल्य चिकित्सा, गोलाकार कब्र, कांस्य उद्योग के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
•यहां हल से जूते खेत का साक्ष्य सबसे महत्वपूर्ण है।
•यहां अंत्येष्टि संस्कार पूर्ण समाधिकरण, दाह संस्कार एवं आंशिक समाधिकरण द्वारा किए जाने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
•एक युगल समाधान प्राप्त तथा बच्चे की खोपड़ी में 6 छिद्र होना शल्य चिकित्सा होने का प्राचीनतम साक्ष्य माना गया है।
•यहां से आबादी के बड़े स्तर पर पलायन होने तथा भूकंप के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए।

 बनवाली

•बनवाली भारत के हरियाणा के फतेहाबाद जिले में सरस्वती नदी के किनारे स्थित था।
इसकी खोज आर.एस. विष्ट द्वारा 1974 में की गई।
•यहां से बैलगाड़ी के पहिए, जौ का उपयोग, अग्नि वेदिका, मिट्टी के हल की प्रतिकृति तथा सीधी सड़क होने के साक्ष्य प्राप्त हुए।
•यहां अग्निवेदियों के साथ अर्द्ध वृत्ताकार ढांचे प्राप्त होने से कुछ विद्वान इन्हें मंदिर होने का प्रमाण की संभावना व्यक्त करते हैं।

धौलावीरा

•यह नगर गुजरात के कच्छ जिले के भचाऊ तालुका में लूनी- जोजरी लाइन के मध्य खादिर नामक द्वीप पर स्थित है।
•इसकी खोज श्री जे.पी. जोशी द्वारा सन 1967-68 में की गई।
•यहां से विशाल बांध उच्च जल प्रबंधन, मनहर -मनसर तालाब, दीवार पर लिखा सबसे बड़ा लेख आदि साक्ष्य प्राप्त हुए।
•यह भारत में स्थित सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा नगर था।
•सिंधु सभ्यता का एकमात्र क्रीडागार (स्टेडियम) तथा नेवले की पत्थर की मूर्ति यहां से प्राप्त हुई।
•यहां से पॉलीशदार श्वेत पाषाण के टुकड़े बड़ी मात्रा में मिले।

कर्नाटक युद्ध (लगभग 20 वर्ष तक )

 प्रथम कर्नाटक युद्ध (1740 से 1748 ई.तक)

•कर्नाटक युद्ध यूरोप में गठित घटनाक्रम के तहत ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकारी युद्ध का मात्र एक विस्तार था।

•1740 ईस्वी में फ्रांसीसी तथा अंग्रेज मेरिया थरेसा के उत्तराधिकार को लेकर आपस में झगड़ रहे थे।

•फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले ने भारत में शांति बनाने रखने की बहुत कोशिश की लेकिन युद्ध की पहल अंग्रेजों की तरफ से की गई।

•यह युद्ध प्रत्यक्ष रूप से कर्नाटक के नवाब पद के उत्तराधिकार का संघर्ष दिख रहा था लेकिन अप्रत्यक्ष रूप में इसमें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी लड़ रही थी।

•इस समय पांडिचेरी का फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले था तथा मद्रास का अंग्रेज गवर्नर मोर्स था।

•युद्ध की पहल बारनैट के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जलपोत पकड़कर की।

•फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन से अपने जहाजों की सुरक्षा के लिए निवेदन किया लेकिन अंग्रेजों ने नवाब की बात को भी नजरअंदाज कर दिया।

•फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले युद्ध के पक्ष में नहीं था इसलिए उसने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा अंग्रेज गवर्नर मोर्स दोनों से युद्ध ना होने देने का प्रस्ताव रखा।

• डुप्ले ने कूटनीतिक सहारा लिया और मॉरीशस के फ्रांसीसी गवर्नर ला बूर्डोने से सहायता मांगी जो अपने 3000 सैनिकों के साथ आकर मद्रास पर अधिकार कर लिया।

•इस दौरान डुप्ले और ला बूर्डोने दोनों के बीच मतभेद हो गया तो ला बूर्डोने ने 4 लाख पौंड की रिश्वत अंग्रेजों से लेकर मद्रास उन्हें सौंप दिया।

•ला बोर्डोने के मॉरीशस जाने के बाद डुप्ले ने मद्रास पर फिर अधिकार कर लिया।

•फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले ने यह कहकर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन को अपने पक्ष में कर लिया था कि मद्रास को जीतने के बाद उसे सौंप देंगे लेकिन डुप्ले ने ऐसा नहीं किया। फलस्वरूप युद्ध अवश्यंभावी हो गया था।

•1748 ईसवी में कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन के पुत्र महफूज खां एक विशाल सेना लगभग 10 हजार सैनिक लेकर अडयार के समीप डुप्ले की कूटनीतिक चाल से ओतप्रोत कैप्टन पैराडाइज के अधीन एक छोटी सी फ्रांसीसी सेना जिसमें लगभग 230 फ्रांसीसी सैनिक और लगभग 700 भारतीय सैनिक थे महफूज खां की सेना को पराजित किया।

•इस युद्ध को सेंटथोमे का युद्ध भी कहा जाता है।

•इस जीत से यह स्पष्ट हो गया कि घुड़सवार सेना की अपेक्षा तोपखाना श्रेष्ठ है तथा अनुशासनहीन बड़ी सेना पर अनुशासित छोटी सेना भारी पड़ी।

•नवाब की सेना और मद्रास को परास्त करने के बाद फ्रांसीसियों में नई ऊर्जा का उद्भव हुआ और उन्होंने पांडिचेरी के दक्षिण में स्थित अंग्रेजों की एक बस्ती फोर्ट सेंट डेविड पर अधिकार करने का प्रयास किया किंतु लगभग डेढ़ सालों के घेरे के बाद भी असफल रहे।

•कुछ समय पश्चात इंग्लैंड से भारत में अंग्रेजों की सहायता के लिए सेना पहुंच गई सहायता मिलने की बाद अंग्रेजों ने पांडिचेरी का घेरा डाला परंतु वह उस पर अधिकार करने में असफल रहे और पुनः फोर्ट सेंट डेविड मे वापस आ गए।

•1748 ई. में यूरोप में अंग्रेज और फ्रांसीसियो के बीच एक्स-ला-शापेल की संधि हुई जिसके तहत यूरोप में युद्ध समाप्त हो गया इस संधि से मद्रास अंग्रेजों को तथा अमेरिका में लुईसबर्ग फ्रांसीसियों को वापस मिल गए इस तरह युद्ध के प्रथम दौर में दोनों दल बराबर रहे ।

•पहले कर्नाटक युद्ध का कोई तात्कालिक राजनीतिक प्रभाव भारत में नहीं पड़ा न तो इस युद्ध से फ्रांसीसी को कोई लाभ हुआ और ना ही अंग्रेजों को।

•इस युद्ध में भारतीय राजाओं की कमजोरियों को उजागर किया, और जल सेना का महत्व बड़ा अर्थात यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि भारतीय सेना यूरोपीय सेना से स्पष्ट रूप से कमजोर हो गई थी।

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द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-54)

•डुप्ले की राजनैतिक चाहत और चरम पर पहुंच गई क्यों कर्नाटक के प्रथम युद्ध मे उसने अपने राजनैतिक, कूटनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में कुछ सीमा तक सफल रहा।

•उसके द्वारा भारतीय राजवंशों के परस्पर झगड़ों में भाग लेकर अपने राजनीतिक प्रभाव को और प्रसारित करने के उद्देश्य से वहां कूटनीतिक रूप से अग्रसर हुआ।

•यह एक अच्छा अवसर था यूरोपीय शक्तियों के लिए क्योंकि भारतीय राजवंशों में उत्तराधिकार के लिए विवाद उत्पन्न हो रहे थे। इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए यूरोपीय शक्तियां तैयार थी।

•यूरोपियों को यह अवसर हैदराबाद तथा कर्नाटक के सिंहासनों के विवादास्पद उत्तराधिकार के कारण जल्द ही प्राप्त हुआ।

आसफजाह का 21 मई 1748 को स्वर्गवास हो गया उसका पुत्र नासिर जंग उत्तराधिकारी बना। परंतु उसके भतीजे (आसफजाह के पौत्र) मुजफ्फर जंग ने इसका विरोध किया।

•दूसरी तरफ कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन और उसके बहनोई चंदा साहिब के बीच मतभेद था। यह दोनों विवाद एक बड़े विवाद में परिवर्तित हो गए।

•अवसर का फायदा उठाने हेतु डुप्ले ने मुजफ्फर जंग को दक्कन की सुबेदारी तथा चंदा साहिब को कर्नाटक की सुबेदारी सौपने का समर्थन करने की बात की किन्ही कारणों से अंग्रेजों को नासिरजंग तथा अनवरुद्दीन का साथ देना पड़ा।

•अगस्त 1749 को बिल्लौर के समीप अंबूर के स्थान पर मुजफ्फरजंग, चंदा साहिब तथा फ्रेंच सेनाओं ने अनवरुद्दीन को हराकर मार दिया।

•डुप्ले को यह कूटनीतिक अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई।

•दिसंबर 1750 में नासिर जंग एक युद्ध में मारा गया मुजफ्फर जंग दक्कन का सूबेदार बना और उसके द्वारा फ्रांसीसियों को बहुत से उपहार भेंट किए गए डुप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण भाग में मुगल प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त कर दिया।

•मुजफ्फर जंग के आग्रह पर एक फ्रांसीसी सेना की टुकड़ी बुस्सी की अध्यक्षता में हैदराबाद में तैनात कर दी गई।

•डुप्ले की इच्छा अनुसार 1751 में चंदा साहिब कर्नाटक के नवाब बनाए गए। डुप्ले का यह समय राजनैतिक शक्ति की चरम स्थिति थी।

•फ्रांसीसियो का विरोध होना स्वाभाविक था स्वर्गीय अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली त्रिचनापल्ली में शरण लिए था फ्रांसीसी तथा चंदा साहेब दोनों मिलकर भी त्रिचनापल्ली के दुर्ग को जीतने में असफल रहे अंग्रेजों की स्थिति इस फ्रांसीसी विजय से कमजोर हो गई थी।

•त्रिचनापल्ली के फ्रांसीसी घेरे को तोड़ने में असफल रहा। क्लाइव त्रिचनापल्ली पर दबाव कम करने के लिए कर्नाटक की राजधानी अर्काट को 210 सैनिकों की सहायता से जीत लिया।

•अर्काट को पुनः जीतने के लिए चंदा साहिब में 4000 सैनिक भेजें जो अर्काट को पुनः प्राप्त नहीं कर सके।क्लाइव ने 53 दिन तक इस सेना का सामना किया।

•फ्रांसीसियो पर इस हार का गहरा प्रभाव पड़ा 1752 में स्टैंगर लारेंस के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना ने त्रिचनापल्ली को बचा लिया तथा जून 1752 में डेरा डालने वाली फ्रांसीसी सेना ने अंग्रेजों के आगे हथियार डाल दिए। चंदा साहिब की भी धोखे से तंजौर के राजा ने हत्या कर दी।

•त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसियों की हार से डुप्ले का पतन होना प्रारंभ हो गया फ्रांसीसी कंपनी के डायरेक्टरों ने इस युद्ध की पराजय से हुई धन हानि के लिए डुप्ले को वापस बुला लिया।

•डुप्ले के स्थान पर 1754 में गोडेहू को भारत में फ्रांसीसी प्रदेशों का गवर्नर जनरल बनाया गया तथा डुप्ले को उसका उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया ।

1755 में पांडिचेरी की संधि फ्रांसीसी कंपनी एवं अंग्रेजी कंपनियों के बीच एक अस्थाई संधि हुई।

•अंग्रेजों की सहायता से मुहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बनाया गया परंतु हैदराबाद में अभी भी फ्रांसीसी डटे हुए थे तथा उन्होंने सूबेदार सालारजंग से और अधिक जागीर प्राप्त कर ली।

•कर्नाटक के द्वितीय युद्ध में फ्रांसीसियो को कुछ स्तर तक हानि पहुंची तथा अंग्रेजों की स्थिति में मजबूत हुई।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756-63 ई. तक)

•यह युद्ध भी यूरोपीय संघर्ष का ही भाग था।

•पांडिचेरी की संधि (1755) अस्थाई थी क्योंकि इस संधि का समर्थन दोनों देशों की सरकारों द्वारा किया जाना था परंतु 1756 ईस्वी में यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध प्रारंभ हो गया इसी कारण अंग्रेज और फ्रांसीसी एक दूसरे के विरोध में आ गए।

•फ्रांसीसी सरकार में अप्रैल 1757 में काउंट डी लाली को भारत भेजा। अप्रैल 1758 में भारत पहुंचा।

•इसी दौरान अंग्रेजों द्वारा सिराजुद्दौला को हराकर पश्चिम बंगाल पर अधिकार स्थापित कर चुके थे जिससे अंग्रेजों को अपार धन मिला। इसी धन का उपयोग करके अंग्रेजों द्वारा फ्रांसीसी यों को दक्कन में पराजित करने में सफलता प्राप्त हुई।

•काउंट डी लाली के भारत आने के उपरांत वास्तविक युद्ध आरंभ हुआ जिसके द्वारा फ्रांसीसी प्रदेशों को सैनिक हथियारों से युक्त अधिकारी नियुक्त किया तथा लाली ने 1758 ईस्वी में फोर्ट सेंट डेविड जीत लिया।

•फोर्ट सेंट डेविड की जीत से उत्साहित काउंट डी लाली द्वारा तंजौर पर आक्रमण किया गया क्योंकि उस पर 56 लाख रुपए बकाया था। परंतु यह अभियान असफल रहा इसके कारण फ्रांसीसियों की ख्याति को काफी नुकसान हुआ।

•इसी दौरान लाली द्वारा बुस्सी को हैदराबाद से वापस बुलाना उसकी सबसे बड़ी भूल थी इसके कारण फ्रांसीसियों की स्थिति और कमजोर हो गई।

•इसी समय पोकांक के नेतृत्व में अंग्रेजी बेड़े ने डआश के नेतृत्व वाली फ्रांसीसी सेना को तीन बार पराजित किया और उसे भारतीय सागर से वापस जाने पर मजबूर कर दिया।

1760 में वाण्डियावाश के स्थान पर अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच निर्णायक लड़ाई लड़ी गई अंग्रेज सेना का नेतृत्व आयरकुट तथा फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व काउंट लाली द्वारा किया जा रहा था इसमें काउंट लाली बुरी तरह पराजित हुआ। यह युद्ध वाण्डियावाश का युद्ध (22 जनवरी 1760 ई.) के नाम से जाना जाता है।
फ्रांसीसी बुस्सी को अंग्रेजों द्वारा युद्ध बंदी बना लिया गया।

•फ्रांसीसियो की जनवरी 1761 की पराजय ने इनको पांडिचेरी लौटने पर मजबूर कर दिया अंग्रेजों द्वारा पांडिचेरी को भी जीत। लिया गया तथा फ्रांसीसियों ने इसे भी अंग्रेजों को सौंप दिया इसी दौरान शीघ्र ही माही और जिंजी भी उनके हाथ से निकल गए अर्थात अब फ्रांसीसी पूरी तरह से पराजित हो चुके थे।

•1763 में अंग्रेजों और फ्रांसीसियो के बीच पेरिस की संधि पर हस्ताक्षर होते हैं जिसके फलस्वरूप सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त हो जाता है।

•अंग्रेजों द्वारा फ्रांसीसियों को उनके सारे कारखाने वापस कर दिए गए लेकिन उनको किलेबंदी तथा सैनिक रखने का अधिकार नहीं दिया गया अब वह सिर्फ व्यापार कर सकते थे।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध अंततः निर्णायक सिद्ध हुआ जिसके फलस्वरूप भारत में फ्रांसीसियो का साम्राज्य पूरी तरह से नष्ट हो गया था।

फ्रांसीसी भारत में अब केवल व्यापारी बन के रह गए थे।