प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ| गोदावरी| कृष्णा| कावेरी|महानदी

प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ मुख्य रूप से दक्कन के पठार और प्रायद्वीपीय क्षेत्र से निकलती हैं और अपनी उत्पत्ति, प्रवाह और विशेषताओं के आधार पर दो श्रेणियों में बाँटी जा सकती हैं:-

1- पूर्व की ओर बहने वाली नदियाँ
2- पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ।
ये नदियाँ प्रायद्वीपीय भारत के भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। नीचे प्रमुख नदियों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है :-

1- पूर्व की ओर बहने वाली नदियाँ :-

ये नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। ये सामान्यतः लंबी होती हैं और बड़े डेल्टा का निर्माण करती हैं। प्रमुख नदियाँ हैं:-

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* गोदावरी नदी :-

उत्पत्ति – त्र्यंबकेश्वर, महाराष्ट्र (पश्चिमी घाट)।
लंबाई लगभग 1,465 किमी (भारत की दूसरी सबसे लंबी नदी)।
प्रवाह– महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा से होकर बंगाल की खाड़ी में।
विशेषता– यह दक्कन की सबसे बड़ी नदी है और इसका विशाल डेल्टा आंध्र प्रदेश में कृषि के लिए महत्वपूर्ण है।
प्रमुख सहायक नदियाँ – प्राणहिता, मंजीरा, इंद्रावती, सबरी।

* कृष्णा नदी :-

उत्पत्ति– महाबलेश्वर, महाराष्ट्र (पश्चिमी घाट)।
लंबाई– लगभग 1,400 किमी।
प्रवाह– महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से होकर बंगाल की खाड़ी में।
विशेषता– इसका डेल्टा उपजाऊ है और सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण है।
प्रमुख सहायक नदियाँ– तुंगभद्रा, भीमा, कोयना, घाटप्रभा।

* कावेरी:-

उत्पत्ति– तलकावेरी, कर्नाटक (पश्चिमी घाट)।
लंबाई– लगभग 805 किमी।
प्रवाह– कर्नाटक और तमिलनाडु से होकर बंगाल की खाड़ी में।
विशेषता– इसे “दक्षिण की गंगा” कहा जाता है। इसका डेल्टा तमिलनाडु में धान की खेती के लिए प्रसिद्ध है।
प्रमुख सहायक नदियाँ– हेमावती, कबिनी, अर्कावती, भवानी।

•महानदी :-

उत्पत्ति– सिहावा, छत्तीसगढ़।
लंबाई– लगभग 858 किमी।
प्रवाह– छत्तीसगढ़ और ओडिशा से होकर बंगाल की खाड़ी में।
विशेषता:- इसका डेल्टा ओडिशा में कृषि और बाढ़ नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण है।
प्रमुख सहायक नदियाँ– शिवनाथ, तेल, हसदेव।

•पेन्नार नदी:-

उत्पत्ति– नंदी पहाड़ियाँ, कर्नाटक।
लंबाई– लगभग 597 किमी।
प्रवाह– कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से होकर बंगाल की खाड़ी में।
विशेषता– यह छोटी नदी है, लेकिन इसका डेल्टा कृषि के लिए उपयोगी है।

स्वर्णरेखा नदी :-

उत्पत्ति– रानीचुआ पहाड़ी (छोटा नागपुर पठार) नागड़ी गांव के पास जिला रांची (झारखंड)
लंबाई– 400 किलोमीटर
प्रवाह– झारखंड (रांची, सरायकेला, खरसावां, पूर्वी सिंह भूमि)
ओडीशा (मयूरभंज, बालासोर) पश्चिम बंगाल- मेदिनीपुर
विशेषता– औद्योगिक नगर जमशेदपुर इसी नदी के किनारे स्थित है।
इसके किनारे तांबा और यूरेनियम का खनन होता है।
प्रमुख सहायक नदियां– खरकई, रारू, कांची, अंजी, करकरी

2. पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ :-

ये नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलकर अरब सागर में गिरती हैं। ये सामान्यतः छोटी, तेज बहाव वाली और खड़ी ढलानों पर बहने वाली होती हैं। प्रमुख नदियाँ हैं:

नर्मदा नदी :-

उत्पत्ति– अमरकंटक, मध्य प्रदेश।
लंबाई– लगभग 1,312 किमी।
प्रवाह– मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर अरब सागर में।
विशेषता– यह प्रायद्वीपीय भारत की सबसे बड़ी पश्चिमी बहाव वाली नदी है। यह रिफ्ट घाटी में बहती है और इसका मुहाना (एस्चुरी) गुजरात में है।
प्रमुख सहायक नदियाँ– होशंगाबाद, तवा, बरना।

•ताप्ती नदी :-

उत्पत्ति– मुलताई, मध्य प्रदेश।
लंबाई– लगभग 724 किमी।
प्रवाह– मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर अरब सागर में।
विशेषता– यह नर्मदा के समानांतर बहती है और इसका मुहाना भी गुजरात में है।
प्रमुख सहायक नदियाँ– पूर्णा, गिरना, पांझरा।

माही नदी :-

उत्पत्ति– मध्य प्रदेश (विंध्याचल पर्वत)।
लंबाई– लगभग 583 किमी।
प्रवाह– मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात से होकर अरब सागर में।
विशेषता– यह गुजरात में कृषि और जलविद्युत के लिए महत्वपूर्ण है।

•साबरमती :-

उत्पत्ति– अरावली पर्वतमाला, राजस्थान।
लंबाई– लगभग 371 किमी।
प्रवाह– राजस्थान और गुजरात से होकर अरब सागर में।
विशेषता– अहमदाबाद शहर इसके किनारे बसा है।

लूनी नदी :-

उत्पत्ति– राजस्थान के अजमेर जिले में स्थित नाग पहाड़ (अरावली श्रेणी) से।
लंबाई– 495 किलोमीटर
प्रवाह– अजमेर, नागौर, पाली, जोधपुर, बाड़मेर और जालौर कच्छ के रण (गुजरात)।
विशेषता– इस नदी को “आधी मीठी, आधी खारी” नदी भी कहते हैं, क्योंकि उद्गम स्थल से बालोतरा (बाड़मेर) तक इसका पानी मीठा होता है, तथा इससे आगे रेगिस्तान में इसका पानी खारा हो जाता है। यह मौसमी नदी है, तथा कच्छ के रण (गुजरात) में विलीन हो जाती है। प्रमुख सहायक नदियां- लीलड़ी, बाड़ी, सुकड़ी, मीठड़ी, जवाई, खारी और जोजरी, सागाई और गुहिया।
इस नदी को लवण्वती, मरू गंगा, रेगिस्तान की गंगा आदि नाम से भी जाना जाता है।

 बनास नदी :-

उत्पत्ति– खमनोर पहाड़ (Khamnor Hills)अरावली पर्वत श्रेणी, जिला राजसमंद (राजस्थान)।
लंबाई– 512 किलोमीटर
प्रवाह– राजसमंद, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर तथा टोंक जिलों से बहती है। विशेषता- इसका उद्गम स्थल वन क्षेत्र होने के कारण इसे “वन की नदी” कहा जाता है। यह नदी मुख्यतः राजस्थान में बहती है। यह चंबल नदी में मिल जाती है, जो यमुना की सहायक नदी है। प्रमुख सहायक नदियां- बेड़च, कोठारी, मोरेर, मेन्ल,खारी,दई, गंभीरी आदि।

शरावती नदी :-

उत्पत्ति– कर्नाटक राज्य के शिमोगा जिले की अंबुथीर्था (Ambutirtha) पहाड़ी जो पश्चिमी घाट में स्थित है।
लंबाई– 128 किलोमीटर
प्रवाह– शिमोगा जिले से चलकर उत्तर कन्नड़ जिले के होनावर के समीप अरब सागर में गिरती है। विशेषता- यह एक बारहमासी नदी है।
यह नदी अपनी प्राकृतिक सुंदरता तथा विश्व प्रसिद्ध जोग जलप्रपात (Jog Falls) के लिए प्रसिद्ध है।

प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ  की विशेषताएँ और महत्व :-

भौगोलिक प्रभाव- प्रायद्वीपीय नदियाँ कठोर चट्टानी भूभाग से होकर बहती हैं, जिसके कारण इनमें जलप्रपात और घाटियाँ आम हैं। उदाहरण: कावेरी का होगेनक्कल जलप्रपात।
कृषि और अर्थव्यवस्था- पूर्व की ओर बहने वाली नदियाँ अपने डेल्टा क्षेत्रों में धान, गन्ना और अन्य फसलों के लिए उपजाऊ भूमि प्रदान करती हैं। पश्चिमी नदियाँ जलविद्युत और सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण हैं।
सांस्कृतिक महत्व- कावेरी, गोदावरी और नर्मदा जैसी नदियाँ धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पवित्र मानी जाती हैं।

– प्रायद्वीपीय नदियाँ हिमालयी नदियों (जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र) की तुलना में छोटी और मौसमी होती हैं, क्योंकि ये मुख्य रूप से मानसून पर निर्भर हैं।
– इन नदियों पर कई बाँध और जलाशय बनाए गए हैं, जैसे गोदावरी पर जायकवाड़ी बाँध और कृष्णा पर नागार्जुन सागर बाँध, जो सिंचाई और बिजली उत्पादन में सहायक हैं।

 

सैयद वंश (1414-1450 ई.)|Saiyed Vansh| संस्थापक |शासक

सैयद वंश के शासको द्वारा प्रजा को प्रभावित करने वाला कोई कार्य नहीं किया गया। उस समय के शासको की भांति साम्राज्य विस्तार की कोशिश नहीं की गई और न ही प्रशासनिक सुधारो का प्रयत्न  किया गया। इसलिए सैयद शासको द्वारा ऐसा कोई कार्य नहीं किया गया जिसे प्रजा आदर्श मानती फलस्वरुप विभाजन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिला। सैयद वंश का शासन काल केवल 37 वर्ष तक रहा, जो की राजनीतिक दृष्टि से दिल्ली के 200 मील के घेरे तक सिमट कर रह गया।

सैयद वंश के शासक :-

खिज्र खां (1444-1421 ई.):-

* खिज्र खां सैयद वंश का संस्थापक था। इसके पिता का नाम मलिक सुलेमान था। जिसे मुल्तान का सूबेदार मलिक मर्दान दौलत अपना पुत्र मानता था।
•खिज्र खां को सुल्तान फिरोज ने मुल्तान का सूबेदार नियुक्त किया था। लेकिन सारंग खां द्वारा उसे 1395 में मुल्तान से भगाने के लिए मजबूर कर दिया। फलस्वरुप खिज्र खां मेवात चला गया।
•कालांतर में खिज्र खां द्वारा तैमूर का साथ दिया गया। जब तैमूर भारत से गया उसने खिज्र खां को मुल्तान, लाहौर और दीपालपुर की सूबेदारी प्रदान की।
•सन 1414 ई. में खिज्र खां द्वारा दौलत ख़ां लोधी को पराजित कर दिल्ली पर कब्जा कर लिया गया। इस प्रकार खिज्र खां दिल्ली का पहला सैयद सुल्तान बना।

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•खिज्र खां दिल्ली का सुल्तान बना, लेकिन उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की इसके स्थान पर उसने ” रैयत-ए-आला” की उपाधि धारण की।
•खिज्र खां एक स्वतंत्र शासक था, लेकिन वह तैमूर के पुत्र शाहरुख को निरंतर भेंटे और राजस्व पहुंचाता था। इस कारण वह अपने को शाहरुख के अधीन मानता था उसने शाहरुख के नाम से ही खुत्बा भी पढ़ाया हालांकि व्यावहारिक दृष्टि से अधीनता ऐसी कोई बात नहीं थी।
•खिज्र खां द्वारा दिल्ली पर अधिकार होने से पंजाब, मुल्तान और सिंध दिल्ली सल्तनत का हिस्सा हो गए थे।
* खिज्र खां द्वारा सीमा विस्तार पर कोई प्रयास नहीं किया गया, बल्कि उसने अपने साम्राज्य को इक्ताओं (सुबो) तथा शिको (जिलों की भांति) बांट दिया। इससे वह स्थानीय लोगों की वफादारी हासिल करने में सफल रहा।
* खिज्र खां द्वारा दिल्ली के आसपास के उपजाऊ क्षेत्र को हासिल करना तथा वहां के जागीरदारों से राजस्व वसूलने के लिए सैनिक बल का प्रयोग करना पड़ा। हालांकि इसने तुर्की अमीरों को संतुष्ट करने के लिए उनको अपनी जगीरो से वंचित नहीं किया फिर भी इनके द्वारा समय-समय पर विद्रोह किया जाता था।

 *विद्रोह को दबाने हेतु सैनिक अभियान किया जाता, कुछ जमीदार स्वेच्छा से राजस्व देते लेकिन कुछ अपने किलो में बंद हो जाते जो कि पराजित होने पर ही राजस्व देते थे। इस प्रकार खिज्र खां का उद्देश्य बन गया था, कि सैनिक अभियान कर राजस्व वसूलना इतने सैनिक अभियान करने के बाद भी यह विद्रोही जागीरदारों को स्थाई रूप से समाप्त करने में असफल रहा।

* खिज्र खां के द्वारा राजस्व वसूलने के लिए कटेहर, इटावा, खोर, जलेसर, ग्वालियर, बयाना, मेवात, बदायूं आदि पर सैनिक अभियान करने पड़े।
* सैनिक अभियानों में खिज्र खां के मंत्री ताज-उल-मुल्क ने इसकी बहुत सहायता की।
* खिज्र खां का अंतिम सैनिक अभियान था। मेवात पर आक्रमण जिसमें कोटा के किले को नष्ट कर दिया गया। बाद में ग्वालियर के कुछ क्षेत्रों को लूटने तथा इटावा के राजा द्वारा आधिपत्य स्वीकार करना। तत्पश्चात दिल्ली वापस आते समय रास्ते में बीमार हो गया। जिसके कारण 20 मई 1421 को दिल्ली में खिज्र खां की मौत हो गई।
* खिज्र खां बुद्धिमान, उदार एवं न्यायप्रिय शासक होने के साथ-साथ उसका व्यक्तिगत चरित्र भी अच्छा रहा। प्रजा उससे प्रेम करती थी, इसी कारण उसकी मृत्यु पर प्रजा द्वारा काले कपड़े पहनकर शोक प्रकट किया गया।

मुबारक शाह (1421-1434 ई.) :-

•सैयद वंश के संस्थापक खिज्र खां अपने पुत्र मुबारक खां को उत्तराधिकारी नियुक्त किया, जो मुबारक शाह के नाम से सिंहासन पर बैठा।

* यह स्वतंत्र शासक की तरह रहा, इसने खुत्बा पढ़वाया, सिक्के चलवाए, शाह की उपाधि धारण की इससे स्पष्ट होता है, कि इसने किसी की अधीनता स्वीकार नहीं की।
•मुबारक शाह के तीन मुख्य शत्रु थे। उत्तर पश्चिम में खोक्खर नेता जसरथ, दक्षिण में मालवा का शासक, पूर्व में जौनपुर का शासक।
* मुबारक शाह ने “मुइज्जुद्दीन मुबारक शाह” के नाम से सिक्के चलवाए।
* इसके द्वारा अपने वंश पर तैमूर वंशीय प्रभाव को समाप्त करने का प्रयास किया गया।
* मुबारक शाह द्वारा अपने प्रशासनिक पदों पर हिंदू अमीरों को नियुक्त किया जाना ऐतिहासिक कार्य था ।
* मुबारक शाह द्वारा यमुना नदी के किनारे मुबारकाबाद नामक एक नगर की स्थापना की गई जो वर्तमान में हरियाणा राज्य में अवस्थित है।
* मुबारक शाह के शासनकाल में “याहिया सर हिंदी” द्वारा तारीख के मुबारक शाही ग्रंथ लिखा गया, जिसके द्वारा सैयद वंश के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।
19 फरवरी 1434 को उसके वजीर “सरवर-उल-मुल्क” ने धोखे से मुबारक शाह की हत्या कर दी।
* वजीर सरवर-उल-मुल्क पहले मलिक स्वरूप नामक हिंदू था। परंतु बाद में धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बन गया।
•खिज्र खां के समय सरवर-उल-मुल्क दिल्ली का कोतवाल नियुक्त हुआ। सन् 1422 में वजीर बना।
• मुबारक शाह सरवर-उल-मुल्क को पसंद नहीं करता था, इसी कारण उसने राजस्व के अधिकार छीनकर नायाब सेनापति कमाल-उल-मुल्क को प्रदान किये ।इसी बात से असंतुष्ट होकर इसने नवीन नगर मुबारकबाद का निरीक्षण करते समय मुबारक शाह की धोखे से हत्या कर दी।
* मुबारक शाह के कार्यकाल को देखा जाए तो यह सैयद वंश के सभी शासको में योग्यतम् शासक सिद्ध हुआ।

मुहम्मद शाह (मुहम्मद-बिन- फरीद खां) :-

* मुहम्मद-बिन-फरीद खां जो कि मुबारक शाह के भाई का पुत्र (भतीजा) था। मुहम्मद शाह के नाम से गद्दी पर बैठा।
* मुहम्मद शाह एक विलासी तथा अयोग्य शासक सिद्ध हुआ, जिससे सैयद वंश के पतन की नींव पड़ी।

* वजीर सरवर-उल-मुल्क का मुहम्मद शाह के प्रारंभिक शासनकाल में पूर्ण प्रभाव रहा। इसके द्वारा मुबारक शाह की हत्या में शामिल होने वाले हिंदू सामंतों को उच्च पद प्रदान किये गए। कमाल-उल-मुल्क मुहम्मद शाह का नायब सेनापति था। यह हमेशा सैयद वंश का वफादार रहा।
* कमाल-उल-मुल्क ने एक षड्यंत्र के द्वारा वजीर सरवर-उल-मुल्क की हत्या करवा दी। इस षड्यंत्र में मुहम्मद शाह भी शामिल था।
तलपट का युद्ध (दिल्ली से 10 मील दूर )मालवा के शासक महमूद और मुहम्मद शाह के मध्य हुआ। इस युद्ध में मुल्तान के सूबेदार बहलोल ने मुहम्मद शाह का सहयोग किया। युद्ध अनिर्णित रहा।
* मुहम्मद शाह ने बहलोल को अपना पुत्र कहा तथा सम्मान में “खान एक खाना” की उपाधि प्रदान की।
* बहलोल ने पंजाब के अधिकांश भाग पर अधिकार कर लिया, जिसे सुल्तान द्वारा स्वीकृत प्रदान की गई। जिससे बहलोल का मनोबल बढ़ा और उसने 1443 ईस्वी में दिल्ली पर आक्रमण कर दिया, लेकिन यह असफल रहा।
मुहम्मद शाह एक असफल शासक सिद्ध हुआ। क्योंकि राज्य की सीमाओं की सुरक्षा न कर सका तथा आंतरिक विद्रोह दबा न सका। इसी के समय से सैयद वंश का पतन प्रारंभ हो गया। सुल्तान की मृत्यु 1445 में हो गई।

अलाउद्दीन आलम शाह (1445-1450 ई. तक) :-

मुहम्मद शाह की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र अलाउद्दीन “अलाउद्दीन आलम शाह” के नाम से गद्दी पर बैठा। अलाउद्दीन आलम शाह एक विलासी शासक था, वह अपने वजीर हमीद खां से झगड़ा कर बदायूं भाग गया, और वही बस गया। सैयद वंश के शासको में यह सबसे अयोग्य शासक सिद्ध हुआ।

* 1447 ईस्वी में बहलोल लोदी ने पुनः दिल्ली पर आक्रमण किया, परंतु वह असफल रहा।

• 1450 तक संपूर्ण शासन बहलोल ने अपने हाथों में ले लिया, लेकिन इसने बदायूं में रह रहे अलाउद्दीन को अपदस्थ करने की कोशिश नहीं की।
1476 में अलाउद्दीन के पश्चात उसके दामाद जौनपुर के शासक हुसैन शाह शर्की ने बदायूं को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया।
* इसी प्रकार सैयद वंश अपने 37 साल के अल्प शासनकाल में समाप्त हो गया।

सैयद वंश का अंतिम शासक ?

-सैयद वंश का अंतिम शासक अलाउद्दीन आलम शाह (1445-1450 ई. तक) था।

सैयद वंश का संस्थापक कौन था ?

सैयद वंश का संस्थापक खिज्र खां था।

सैयद वंश का शासन काल ?

सैयद वंश का शासन काल 1414-1450 ई. तक रहा ।

सैयद वंश के शासको के नाम ?

खिज्र खां (1414-1421 ई.)
मुबारक शाह (1421-1434 ई.)
मुहम्मद शाह “मोहम्मद बिन फरीद खान” (1434-1445 ई.)
अलाउद्दीन आलम शाह (1445-1450 ई.)

सैयद वंश के शासको का क्रम ?

खिज्र खां (1414-1421 ई.)
मुबारक शाह (1421-1434 ई.)
मुहम्मद शाह “मोहम्मद बिन फरीद खान” (1434-1445 ई.)
अलाउद्दीन आलम शाह (1445-1450 ई.)

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 वायुमंडल |Atmosphere किसे कहते हैं परते|संघटन| संरचना

वायुमंडल हवा के रूप में पृथ्वी के चारों ओर उपस्थित कई किलोमीटर बनी चादर जो हमारी पृथ्वी का सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करती है।

वायुमंडल द्वारा सूर्य से आने वाले विकिरण को पृथ्वी तक आने दिया जाता है। लेकिन पृथ्वी से निकलने वाले विकिरण को वायुमंडल द्वारा रोक लिया जाता है। फल स्वरुप पृथ्वी से उत्सर्जित होने वाली ऊष्मा को एक “ग्लास हाउस” की भांति कार्य करते हुए रोक लिया जाता है। जिससे पृथ्वी का तापमान औसतन 15 डिग्री सेंटीग्रेड बना रहता है।

इसी तापमान के द्वारा पृथ्वी पर जीव मंडल (जीव जंतुओं की उत्पत्ति) का उद्भव संभव हो सका है। यदि वायुमंडल रूपी वायु की घनी चादर हमारी पृथ्वी के चारों तरफ नहीं होती। तो हम दिन के समय सूर्य के तापमान से जल सकते थे। और रात के समय ठंड से जम सकते थे।

वायुमंडल का संघटन :-

वायुमंडल विभिन्न प्रकार की गैसों का मिश्रण है। जिसमें धूल के कण ठोस अवस्था में तथा जलवाष्प तरल अवस्था में उपस्थित होती है। वायुमंडल में मौजूद गैसे, जलवाष्प, धूल के कण असमान मात्रा में तैरते रहते हैं। यह समय और स्थान के अनुसार बदलते रहते हैं।

वायुमंडल में नाइट्रोजन गैस सर्वाधिक मात्रा में उपस्थित है। उसके बाद क्रमशः ऑक्सीजन, आर्गन, कार्बन डाइऑक्साइड, नेयाॅन, हीलियम, ओजोन व हाइड्रोजन गैस उपस्थित होती है। वायुमंडल में अशुद्धियों के रूप में जलवाष्प व धूल के कारण असमान रूप से वायुमंडल में उपस्थित रहते हैं। जिसके कारण संसार की मौसमी दशाओं में परिवर्तन में अहम भूमिका होती है।

वायुमंडल में उपस्थित विभिन्न गैसों की मौजूदगी मात्र 32 किलोमीटर की ऊंचाई तक होती है। तथा जलवाष्प व धूल के कण अधिकतम 10 किलोमीटर ऊंचाई तक पाए जाते हैं।                                    वायुमंडल

और पढ़े :-पृथ्वी की आंतरिक संरचना|सियाल(SiAl)|सीमा(SiMa)|निफे(NiFe)|      

वायुमंडल के गैसीय मिश्रण में पाई जाने वाली विभिन्न गैसे निम्नलिखित हैं :-

नाइट्रोजन (N₂):-

नाइट्रोजन वायुमंडलीय गैसों का एक प्रमुख अवयव है। जो हमारे वायुमंडल में लगभग 78% भाग में उपस्थित है। जो की आयतन की दृष्टि से वायुमंडलीय गैसों में सबसे अधिक है। वायुमंडलीय नाइट्रोजन पोषक तत्वों की पूर्ति लेग्यूमेनस पौधों द्वारा की जाती है। पेड़ पौधे मिट्टी से नाइट्रोजन नाइट्रेट के रूप में प्राप्त करते हैं। वायुमंडल और पृथ्वी पर नाइट्रोजन की उपस्थिति विभिन्न इसके अवयवों का बाहुल्य भार 0.01% है।

ऑक्सीजन (O₂):-

वायुमंडल में ऑक्सीजन कुल गैसों का लगभग 21% आयतन होता है। यह गैस मनुष्यों जीव जंतुओं के लिए प्राण दायिनी गैस है। अतः इसे “प्राण वायु” भी कहा जाता है। इसका उत्पादन हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा करते हैं। यदि पृथ्वी की सारी वनस्पतियां नष्ट हो जाए तो ऐसी स्थिति में जीव जंतु ऑक्सीजन के अभाव में मर जाएंगे। ऑक्सीजन जल में संयुक्त रूप से पाई जाती है। इस प्रकार यह भार की दृष्टि से लगभग 88.9% होती है।

आर्गन (Ar):-

आर्गन एक अक्रिय गैस है। जो वायुमंडल में उपस्थित अन्य अक्रिय गैसों (हीलियम, नेयाॅन, क्रेप्टांन, जे़नांन) में सबसे अधिक मात्रा में पाई जाती है। इसका उपयोग कुछ तापीय धातु कर्मिक प्रक्रियाओं धातु अथवा मिश्रधातुओं की आर्क वेल्डिंग में निष्क्रीय वातावरण बनाने में तथा विद्युत बल्ब में भरने में किया जाता है।

कार्बन डाइऑक्साइड (CO2):-

वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड एक महत्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस है, जो वायुमंडल में लगभग 0.0407 प्रतिशत (लगभग 407 पार्ट्स पर मिलियन या PPM )उपस्थित है। यह गैस जीवाश्म ईंधन जैसे प्राकृतिक गैस, तेल, कोयला आदि के दहन तथा कल कारखानों से उत्पन्न होती है।
CO2 गैस पौधों में होने वाली प्रकाश संश्लेषण क्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इसके उपयोग से पौधे ग्लूकोज और ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं जो की जीवन के लिए अति आवश्यक होते है।
कार्बन डाइऑक्साइड गैस (CO2) एक ग्रीनहाउस गैस होने के कारण हमारी पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करने में भूमिका रखती है।
जब इस गैस की मात्रा बढ़ती है, तो यह ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का कारण बनती है।

 

नियॉन (Ne):-

नियाॅन एक अक्रिय गैस है, जो लगभग 0.0018% वायुमंडल में उपस्थित है। मात्रा के हिसाब से यह पांचवीं नंबर की गैस है। यह हीलियम के बाद दूसरी सबसे हल्की नोबल गैस है।
– इस गैस का उपयोग चमकीले साइन बोर्ड तथा विज्ञापन लाइट्स में किया जाता है।
– इस गैस का गलनांक व क्वथनांक बहुत कम होने के कारण इसका प्रयोग क्रायोजेनिक रेफ्रिजरेंट के रूप मे किया जाता है।
– नियाॅन गैस एक अक्रिय गैस होने के कारण जलवायु परिवर्तन या ग्रीन हाउस प्रभाव में इसका कोई योगदान नहीं रहता है।

हीलियम (He) :-

– यह गैस के अक्रिय गैस है। जो रासायनिक क्रियाओं में भाग नहीं लेती है। वायुमंडल में इसकी उपस्थिति लगभग 0.0005 प्रतिशत है, जो की एक अल्प मात्रा है, हाइड्रोजन के बाद यह दूसरी सबसे हल्की गैस है।
– इस गैस का क्वथनांक (-268.9 सेंटीग्रेड) सभी तत्वों से कम है। इसी कारण यह अत्यंत निम्न तापमान पर द्रव अवस्था में बनी रहती है।
– हीलियम गैस का उपयोग एमआरआई मशीन, सुपरकंडक्टिव मैग्नेट, परमाणु रिएक्टर, अंतरिक्ष अनुसंधान, गोताखोरी आदि में किया जाता है।

मेथेन (CH4):-

– मेथेन गैस वायुमंडल में लगभग 0.00018 प्रतिशत उपस्थित है। इसकी मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड CO2 से बहुत कम है, फिर भी यह ग्रीन हाउस प्रभाव में CO2 से लगभग 25 से 30 गुना अधिक प्रभाव डालती है। मेथेन को मार्श गैस/स्वैम्प गैस भी कहते हैं।
– यह गैस ऑक्सीजन की उपस्थिति में जलकर कार्बन डाइऑक्साइड और जलवाष्प का निर्माण करती है।
– मिथेन अत्यधिक ज्वलनशील होने के कारण इसका उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है।
– यह गैस धान के खेतों, बायोगैस संयंत्रों, जुगाली करने वाले जानवरों (जैसे गाय, भैंस आदि) कचरे के अपघटन आदि से इसका प्राकृतिक उत्पादन होता है।

क्रिप्टन (Kr):-

क्रिप्टन गैस वायुमंडल में लगभग 0.0001% उपस्थित है। यह एक निष्क्रिय गैस है, इसका क्वथनांक -153.4 डिग्री सेंटीग्रेड है, इसका उपयोग फ्लैश लैंप तथा कुछ फ्लोरोसेंट बल्ब में किया जाता है।

 जेनाॅन (Xe):-

जेनाॅन गैस वायुमंडल में लगभग 0.000009 प्रतिशत उपलब्ध है। यह एक निष्क्रिय गैस है।इसे अजनबी गैस (Stranger Gas) भी कहते हैं

हाइड्रोजन (H2):-

यह वायुमंडल में लगभग 0.00005 प्रतिशत मौजूद है। यह एक अत्यधिक हल्की गैस है, जो अक्सर पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण से बचकर अंतरिक्ष में चली जाती है इसका क्वथनांक – 252.9 डिग्री सेंटीग्रेड होता है यह एक अत्यधिक ज्वलनशील गैस होती है।

 हाइड्रोजन विश्व में पाया जाने वाला सबसे अधिक मात्रा वाला तत्व है। इसकी मौजूदगी में सूर्य में नाभिकीय संलयन क्रिया होती है, जो तारों में भी संपन्न होती है। इसकी खोज 1766 में हेनरी कैवेंडिश द्वारा की गई थी।

जलवाष्प (H2O):-

वायुमंडल में जलवाष्प की मात्रा परिवर्तनशील होती है, जो लगभग 0 से 4% के मध्य बनी रहती है, यह एक ग्रीनहाउस गैस है, जो मौसम और जलवायु को प्रभावित करती है।

ओजोन (O3):-

ओजोन वायुमंडल में लगभग 0.000004% मौजूद है। वायुमंडल की अधिकांश ओजोन गैस 15 से 35 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्टैटोस्फियर में मौजूद ओजोन परत में पाई जाती है। इसका क्वथनांक – 112 डिग्री सेंटीग्रेड होता है। ओजोन परत सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करने का कार्य करती है, जिससे जीवो में त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद और पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाले नुकसान से बचाती है।

उपरोक्त के अलावा हमारे वायुमंडल में सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) नाइट्रोजन ऑक्साइड ( NO2) और कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) आदि मानवीय गतिविधियों के कारण उपस्थित हो सकती है।

सिंधु नदी तंत्र| झेलम(वितस्ता)| चेनाब (अस्किनी)| रावी

सिंधु नदी तंत्र :-

* सिंधु नदी का उद्गम तिब्बत में स्थित बोखर- चू हिमनद से होता है। इसकी सहायक नदियां झेलम, चेनाव, रावी, व्यास तथा सतलज हैं। सिंधु नदी तंत्र यह भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे पश्चिमी नदी तंत्र है।

सिंधु नदी तंत्र

और पढ़े :-पृथ्वी की आंतरिक संरचना|सियाल(SiAl)|सीमा(SiMa)|निफे(NiFe)|

* सिंधु नदी की कुल लंबाई 2880 किलोमीटर जिसमें 709 किलोमीटर भारत में शेष 2171 किलोमीटर पाकिस्तान में प्रवाहित होती है। कुल जल ग्रहण क्षेत्र लगभग 1165000 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें 321284 वर्ग किलोमीटर भारत में है।

•इसका उद्गम स्थल बोखर- चू हिमनद कैलाश श्रेणी के उत्तरी ढ़ाल पर अवस्थित है। यह नदी काराकोरम, लद्दाख, जास्कर पर्वत श्रेणियां में प्रवाहित होती है। तिब्बत में इस नदी को सिंगी खंबन या लायंस माउथ(lion’s mouth) नाम से जाना जाता है।

•जास्कर नदी इसमें लेह के नीचे मिलती है। तथा कारगिल के पास बायें किनारे से सुरू एवं द्रास नदियां मिलती हैं। काराकोरम श्रेणी में स्थित सियाचिन हिमनद से स्योक, नुबरा सहायक नदियां उत्तर पश्चिम ओर से निकलकर सिंधु नदी में मिलती हैं।

* सिंधु नदी में दाएं से मिलने वाली नदियां श्योक, गिलगिट, काबुल, कुर्रम, टोची, गोमल, जोब(zhob) आदि।

* बाए से मिलने वाली नदियां जास्कर, सुरू, सोहन, चेनाव (झेलम, रावी ,व्यास, सतलज) आदि।

झेलम (वितस्ता):-

 झेलम नदी, सिंधु नदी तंत्र की महत्वपूर्ण नदी है, जिसका  उद्गम पीर पंजाल पर्वत के पदस्थली में स्थित बेरीनाग झरने से होता है। जो कश्मीर घाटी के दक्षिणी पूर्वी भाग में स्थित है। श्रीनगर इसी नदी के किनारे बसा है। अपने उद्गम स्थल से लगभग 110 किलोमीटर उत्तर पश्चिम बहने के बाद यह नदी बुलर झील में प्रवेश करती है। मुजफ्फराबाद (पाकिस्तान) से मंगला तक यह नदी भारत पाकिस्तान सीमा के लगभग समानांतर प्रवाहित होती है। यह ट्रिग्यू में चेनाब नदी से मिलती है। कश्मीर घाटी में झेलम की ढाल अधिक गहरी नहीं है। इसलिए अनंतनाग से बारामुला तक झेलम नदी नौकागम्य है। किशनगंगा इसकी सहायक नदी है। जिसे पाकिस्तान में नीलम नदी के नाम से जाना जाता है। यह नदी कश्मीर की सबसे महत्वपूर्ण नदी है।

चेनाब (अस्किनी):-

•यह सिंधु नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है।
* चंद्रा तथा भागा चेनाब नदी की दो सहायक नदियां हैं। जो ऊपरी भाग से मिलती हैं।
* हिमाचल प्रदेश में चेनाब नदी को चंद्रा-भागा नाम से जानते हैं।
•चंद्रा-भागा का उद्गम बारा-लाच्चा दर्रे के दोनों तरफ से होता है।
•बारा लाच्चा दर्रा हिमाचल प्रदेश के लाहौल जिले में स्थित है।
* चंद्रा नदी का उद्गम एक हिमनद से होता है, जबकि भाग नदी प्रपाती है।
* चंद्रा और भागा दोनों नदिया टांडी में मिलने के बाद चेनाब के रूप में पीर पंजाल तथा वृहद हिमालय के बीच बहती हैं।

•चेनाब नदी किश्तवार के निकट कैंची मोड़ के साथ पीर पंजाल पर्वत श्रेणी में रिआसी में पार कर पाकिस्तान में प्रवेश करती है। •बागलिहार, सेलाल तथा दुलहस्ती जैसी महत्वपूर्ण जल बिजली परियोजनाएं इसी नदी पर स्थित है।
* बागलिहार परियोजना जम्मू कश्मीर के डोडा जिले में स्थित है। जो 450 मेगावाट बिजली का उत्पादन कर जम्मू कश्मीर को पर्याप्त बिजली आपूर्ति करती है।

 रावी (पुरुष्णी अथवा इरावती):-

* रावी नदी का उद्गम कुल्लू (हिमाचल प्रदेश) में रोहतांग दर्रे के पास होता है। इसी स्रोत के निकट से ही व्यास नदी का भी उद्गम होता हैं।
•रावी नदी की घाटी को कुल्लू घाटी कहते हैं।
•यह नदी धौलाधार श्रेणी में एक महाखड्ड के निर्माण के बाद पंजाब के मैदान में प्रवेश करती है। यहां यह नदी भारत पाक सीमा के साथ-साथ बहती है।
गुरुदासपुर तथा अमृतसर इसी नदी पर स्थित है। इन्हीं जिलों को पार कर यह नदी पाकिस्तान में प्रवेश करती है।

व्यास (विपाशा अथवा अर्गीकिया):-

व्यास नदी का उद्गम स्थल व्यास कुंड है जो कुल्लू हिमाचल प्रदेश के रोहतांग दर्रे के दक्षिण में स्थित है
*व्यास नदी सतलज नदी की सहायक नदी है
•धौलाधार श्रेणी को पार कर व्यास नदी कोटी एवं लार्जी के पास एक महाखड्ड का निर्माण करती है।

•मनाली एवं कुल्लू जो हिमाचल प्रदेश में अवस्थित है। इसी नदी के किनारे स्थित है। यहीं पर इसके द्वारा एक अनुप्रस्थ घाटी का निर्माण होता है, जिसे कुल्लू घाटी कहते हैं।
•व्यास नदी कांगड़ा घाटी को पार कर पश्चिम की ओर मुड़कर पंजाब के मैदान में प्रवेश करती है।
•पंजाब के मैदान में कपूरथला तथा अमृतसर जिलों को पार कर यह हरिके (भारत) के पास सतलज नदी में मिल जाती है।

सतलज (साताद्रु अथवा सातुद्री):-

•सतलज नदी का उद्गम मानसरोवर झील (चीन) के निकट स्थित राकास झील (राकास ताल) से होता है।
•सतलज नदी एक पूर्ववर्ती नदी का उदाहरण है।
•सतलज नदी को तिब्बत में लांग चेन खम्बाब नाम से जाना जाता है।
•यह नदी जास्कर और वृहद हिमालय श्रेणी में एक महाखड्ड का निर्माण करती है।
शिपकी ला दर्रे से होती हुई हिमाचल प्रदेश में प्रवेश करती है।
•हिमाचल प्रदेश में यह नदी जास्कर श्रेणी को पार कर पश्चिम की ओर मुड़कर कल्पा को पार कर रामपुर के पास धौलाधार श्रेणी को एक महाखड्ड के द्वारा पार करती है।
•सतलज नदी शिवालिक श्रेणी को पार कर भाखड़ा गांव के पास महाखड्ड पर भाखड़ा बांध का निर्माण किया गया है।
•भाखड़ा बांध के पास रोपड़ में यह नदी पंजाब के मैदान में प्रवेश करती है।
•सतलज नदी कपूरथला के दक्षिण पश्चिम किनारे पर स्थित हरिके नामक स्थान पर व्यास नदी में मिलती है, तथा आगे चलकर पाकिस्तान में प्रवेश करती है।

घाघरा (पौराणिक सरस्वती):-

•घाघरा नदी का उद्गम सिरमुर के शिवालिक के पाद मलवा पंख (Talus Fan) से होता है। जो की अंबाला (हरियाणा) के निकट स्थित है।
•घाघरा नदी एक अतः स्थलीय अपवाह का उदाहरण है।
•यह नदी शिवालिक श्रेणी को पार करके जब मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद विलुप्त हो जाती है। लेकिन यह करनाल जिले में फिर से प्रकट हो जाती है। तब इसे सरिता हरका कहा जाता है। जो की हनुमानगढ़ (बीकानेर राजस्थान) के निकट पुनः विलुप्त हो जाती है।
•वैदिक काल में घाघरा नदी को सरस्वती नाम से जाना जाता था।
•घाघरा नदी पाकिस्तान में कच्छ के क्षेत्र (Raan of kachchh) में मिल जाती है।

भूदान आंदोलन (18 अप्रैल 1951)|उत्पत्ति |उद्देश्य |प्रभाव

भूदान आंदोलन भूमि वितरण को समान बनाने तथा देश में असमान भूमि जोत गरीबी, बेकारी को मिटाने के लिए प्रसिद्ध गांधीवादी नेता आचार्य विनोबा भावे द्वारा भारत में 18 अप्रैल 1951 में शुरू किया गया, भूदान आंदोलन जिसे भूमि दान आंदोलन भी कहा जाता है।

भूदान आंदोलन

 

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यह एक सामाजिक सुधार आंदोलन था। इसका मुख्य उद्देश्य भूमिहीन किसानों को भूमि प्रदान करना और सामाजिक-आर्थिक असमानता को कम करना था। यह आंदोलन अपने में एक बृहद रचनात्मक कार्य था, जो महात्मा गांधी के सिद्धांतों से प्रेरित था और अहिंसा, स्वैच्छिक दान, और सामुदायिक सहयोग पर आधारित था।

उत्पत्ति :-
आंदोलन की शुरुआत 18 अप्रैल 1951 को तेलंगाना के पोचमपल्ली गांव में हुई, जब विनोबा भावे ने वहां के जमींदारों से भूमिहीन किसानों के लिए जमीन दान करने की अपील की। मार्च 1956 तक इस कार्यक्रम में दान के रूप में 40 लाख एकड़ जमीन मिल गई थी यह करीब दो लाख परिवारों में बांटी गई एक जमींदार, वेदिरे रामचंद्र रेड्डी, ने 100 एकड़ जमीन दान की, जिससे आंदोलन को गति मिली।

उद्देश्य :-
इस आंदोलन के द्वारा अहिंसात्मक तरीके से भूमि वितरण की समानता तथा इसके माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाना था।
* भूमिहीन किसानों और हरिजनों को जमीन प्रदान करना।
* सामाजिक समानता को बढ़ावा देना और जमींदारी व्यवस्था के प्रभाव को कम करना।
* विनोबा भावे ने सर्वोदय समाज (सभी का उत्थान) की स्थापना की।

कार्यप्रणाली :-
* विनोबा भावे ने देश भर में अपने अनुयायियों के साथ गांव-गांव पैदल यात्रा की तथा जमींदारों, धनी लोगों से स्वेच्छा से अपनी जमीन का 1/6 वाॅं हिस्सा दान करने को कहते और यह जमीन इस गांव के भूमिहीन किसानों, विशेषकर समाज के वंचित वर्गों में वितरित कर दी जाती थी।
* यह आंदोलन अहिंसक और स्वैच्छिक था। इस कार्यक्रम की लोकप्रियता तथा रचनात्मकता को देखकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख जयप्रकाश नारायण और कई कांग्रेसी नेता सक्रिय राजनीति छोड़कर इस आंदोलन में जुड़ गए। इस आंदोलन की विशेषता यह रही कि, इसमें किसी पर जोर जबरदस्ती या बल का प्रयोग नहीं किया गया।

प्रभाव :-
* भूदान आंदोलन के तहत देश भर में लगभग 40 लाख एकड़ जमीन दान की गई, इस आंदोलन में बंजर तथा विवादित भूमिका का भी वितरण कर दिया गया था। जिससे किसानों को समस्याओं का सामना करना पड़ा।
* इस आंदोलन ने सामाजिक जागरूकता उत्पन्न की और ग्रामीण भारत में भूमि सुधार के लिए प्रोत्साहित किया।
भूदान आंदोलन की रचनात्मकता के चलते तथा जनता का उत्साह देखते हुए 1955 में उड़ीसा में एक अन्य आंदोलन ग्रामदान आंदोलन (गांवों का दान) और संपत्तिदान आंदोलन प्रारंभ किया गया।

चुनौतियां :-
* दान की गई जमीन का वितरण और प्रबंधन कुछ समय बाद निष्प्रभावी हो चुका था।
* कुछ चालक जमीदारों ने ऐसी भूमि का वितरण किया जो पहले से ही बंजर या अनुपजाऊ थी। इससे जिन भूमिहीनों को लाभ होना था उन्हें उस प्रकार का वास्तविक लाभ नहीं मिल सका।
उस समय भूमि के हस्तांतरण में अनेक प्रकार की प्रशासनिक और कानूनी जटिलताएं थी। जिसके कारण इस आंदोलन की गतिशीलता प्रभावित हुई ।

वर्तमान स्थिति :-
* वर्तमान समय में भूदान आंदोलन का प्रत्यक्ष प्रभाव कम हो गया है, लेकिन भूदान आंदोलन ने भूमि सुधार और सामाजिक समानता के लिए एक महत्वपूर्ण मॉडल प्रस्तुत किया।
* यह आंदोलन वर्तमान समय में भी सामाजिक कार्यकर्ताओं और सुधारकों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।

निष्कर्ष :-
भूदान आंदोलन एक अनूठा प्रयोग था, जिसने भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय को बढ़ावा देने की कोशिश की। विनोबा भावे की अहिंसक और स्वैच्छिक दृष्टिकोण ने इसे एक ऐतिहासिक पहल बनाया, हालांकि इस आंदोलन की कुछ सीमाओं के कारण यह पूर्ण रूप से अपनी क्षमता तक नहीं पहुंच सका।

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चौरी चौरा कांड (5 फरवरी 1922)

चौरी चौरा कांड (5 फरवरी 1922):-

असहयोग आंदोलन के दौरान सी.आर. दास और उनकी पत्नी बसंती देवी के साथ-साथ लगभग 30,000 लोगों की गिरफ्तारी के विरोध में गोरखपुर जिले के चौरी चौरा नामक स्थान पर लोगों ने शांत पूर्वक जुलूस निकालकर अपना विरोध प्रदर्शन किया। प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने भीड़ पर गोलियां चलाई। जिससे प्रदर्शनकारी उग्र हो गए ।उग्र हुए किसान आंदोलनकारियों ने थाने के थानेदार सहित 22 पुलिस कर्मियों को थाने में बंद कर आग लगा दी। जिससे सभी 22 पुलिसकर्मी मारे गए। इस हिंसक भीड़ का नेतृत्व किसान “भगवान दास अहीर” कर रहा था। जो की एक रिटायर्ड सैनिक था।

चौरी चौरा कांड

इस घटना से महात्मा गांधी अत्यंत दुखी हुए। गांधी जी हिंसा के घोर विरोधी थे, उनके विचार से यदि यह आंदोलन हिंसक हो गया तो उनका उद्देश्य असफल हो जाएगा। इसी कारण उन्होंने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन को वापस लेने की घोषणा की |

गांधी जी के इस निर्णय से आंदोलन से जुड़े नेता आश्चर्यचकित थे, कुछ नेताओं ने इस निर्णय पर विरोध जताया और कहा कि “देश के एक गांव के कुछ लोगों की गलती का खामियाजा समूचा देश क्यों भुगते।” कुछ इतिहासकारों का मानना है, कि गांधी जी एक दूरदर्शी व्यक्ति थे, वह इस आंदोलन को वापस लेने के पीछे उनकी दूरगामी परिणामों की सोची समझी रणनीति हो सकती थी। जिसे निम्न बिंदुओं द्वारा समझा जा सकता है:-

•गांधी जी के विचार से “कैदी नागरिक दृष्टि से मृत होते हैं” और इस आंदोलन के तहत प्रथम पंक्ति के लगभग सभी नेताओं को जेल में बंद किया जा चुका था।

•आंदोलन बिना नेताओं के नेतृत्व विहीन, उदासीन हो गया था।

•जनता में उदासीनता झलकने लगी थी, क्योंकि यह आंदोलन काफी लंबा हो गया था।

•यह आंदोलन अपने वास्तविक उद्देश्य से अलग निजी स्वार्थ की ओर अग्रसर हो रहा था।

•आंदोलन का दमन करने के लिए चौरी चौरा कांड सरकार के लिए एक बहाना मिल गया था। जिसके सहारे आंदोलन और आंदोलनकारी दोनों को नष्ट कर दिया जाता।
परिणाम स्वरुप नेताओं के विरोध/ प्रतिक्रियाओं के बाद अंततः सभी ने गांधी जी के फैसले को स्वीकार किया और असहयोग आंदोलन स्थगित हो गया। इसी समय जेल में सी.आर.दास ने कहा “समूचा देश (भारत) एक विशाल बंदी ग्रह है।”

चौरी-चौरा घटना के होने का मुख्य कारण अनाज की बढ़ती कीमतें, शराब की बिक्री का विरोध आदि। इन्हीं समस्याओं के विरोध में एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा धरना प्रदर्शन किया जा रहा था।
चौरी-चौरा घटना के बाद 225 अभियुक्त पकड़े गए। इनमें से 19 व्यक्तियों को फांसी की सजा दी गई तथा शेष अभियुक्तों को देश से निष्कासन की सजा दी गई।

गांधी जी के आंदोलन वापस लेने पर पंडित मोतीलाल नेहरू और लाला लाजपत राय द्वारा गांधी जी को पत्र लिखकर विरोध दर्ज कराया गया और कहा कि “किसी एक स्थान पर दंगे होने की सजा समस्त देशवासियों को नहीं दी जा सकती।”

सुभाष चंद्र बोस ने अपनी “पुस्तक द इंडियन स्ट्रगल (The Indian Struggle)”में लिखा कि “ऐसे अवसर पर जब जनता का उत्साह चरम पर था, पीछे लौटने का आदेश देना किसी राष्ट्रीय संकट से कम नहीं था।”

आंदोलन वापस लेने की घटना से नाराज होकर डा. मुंजे और जे.एम.सेन गुप्ता ने 1922 में दिल्ली की विजय समिति की बैठक में गांधी जी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया। आंदोलन के स्थगन के बाद गांधीजी को गिरफ्तार किया गया तथा 6 वर्ष की सजा दी गई।

प्रश्न:- चौरी चौरा कांड कब और कहां हुआ था?
उत्तर:- चौरी चौरा कांड 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के चौरी चौरा नामक स्थान पर हुआ था।
प्रश्न:- चौरी चौरा कांड का नया नाम?
उत्तर:- चौरी चौरा कांड का नया नाम चौरी चौरा क्रांति कर दिया गया है।
प्रश्न:- चौरीचौरा कांड के समय भारत का वायसराय कौन था?
उत्तर:- चौरी चौरा कांड के समय भारत का वायसराय अर्ल ऑफ रीडिंग (Earl Of Reading) था ।
प्रश्न:- चौरी चौरा कांड किस वर्ष हुआ?
उत्तर:- चौरी चौरा कांड 5 फरवरी 1922 को हुआ।

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भारत में पंचायती राज(1959)|बलवंत राय मेहता,अशोक मेहता समिति

भारत में पंचायती राज (Panchayati Raj In India):-

भारत में पंचायती राज व्यवस्था का सीधा सरोकार ग्रामीण स्थानीय स्वशासन पद्धति से है | यह भारत के सभी राज्य में निचले पायदान पर लोकतंत्र के निर्माण की रूपरेखा है, सन् 1992 के 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत पंचायती राज को संविधान में शामिल किया गया।

भारत में पंचायती राज

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भारत में पंचायती राज का विकास(Panchayati Raj Development In India):-

भारत में पंचायती राज को लागू करने के लिए समय-समय पर विभिन्न समितियां बनाई गई जिनके सिफारिशों के फलस्वरूप पंचायती राज की स्थापना हुई। जो निम्नवत् है:-

बलवंत राय मेहता समिति(Balwant Rai Mehta Committee):-

बलवंत राय मेहता समिति भारत में पंचायती राज विकास कार्य का क्रियान्वयन ढंग से हो सके इसके लिए जनवरी 1957 में भारत सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952 तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवा 1953 जो पहले से क्रियान्वित थे, इनके कार्यों की समीक्षा करके इनको और बेहतर किस तरीके से किया जा सकता है| इसलिए इस एक समिति का गठन हुआ, इस समिति के अध्यक्ष बलवंत राय मेहता थे, इसलिए इस समिति का नाम बलवंत राय मेहता समिति रखा गया|

समिति ने अपनी रिपोर्ट नंबर 1957 सरकार को सौंपी इसलिए लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण स्वच्छता की योजना की सिफारिश की जो अंतिम रूप से पंचायती राज के रूप में जानी गई समिति द्वारा कुछ विशिष्ट सिफारिशें की गई, जो निम्नवत है:-

•इस समिति ने तीन स्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना गांव स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद की सिफारिश की।

•इस समिति द्वारा सुझाव दिया गया कि ग्राम पंचायत की स्थापना हेतु सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से होना चाहिए तथा पंचायत समिति और जिला परिषद के सदस्यों को अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाना चाहिए।

•पंचायतों को कार्यकारी निकाय तथा जिला परिषद को सलाहकारी समन्वयकारी और पर्यवेक्षण निकाय बनाना चाहिए। और इन्हीं संस्थाओं को पंचायतों की सभी योजनाओं और विकास कार्यों का क्रियान्वयन करने की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए।

जिला अधिकारी को जिला परिषद का अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए।
इन निकायों को पर्याप्त आर्थिक व सामाजिक रूप से शक्तिशाली बनाया जाए ताकि अपने कार्य और जिम्मेदारियों को भली-भांति संपादित करने में सक्षम बन सके।
भविष्य में इन निकायों को और मजबूती प्रदान करने के लिए नई-नई पद्धतियों का विकास किया जाना चाहिए।

इस समिति की सिफारिश को राष्ट्रीय विकास परिषद ने जनवरी 1958 में स्वीकृत प्रदान की।
पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य बना इस योजना का उद्घाटन 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान राज्य के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया।

अशोक मेहता समिति(Ashok Mehta Committee):-

भारत में पंचायती राज व्यवस्था में  सुधार और मजबूत करने के लिए दिसंबर 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने पंचायती राज पद्धति जोकि कमजोर होती जा रही थी। इसे पुनः मजबूती प्रदान करने के लिए 132 सिफारिशें लागू करने पर जोर दिया। इसने अपनी रिपोर्ट अगस्त 1978 में सौंपी। इसके द्वारा दी गई प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित है:-

*त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति को द्विस्तरीय पद्धति में परिवर्तित करना चाहिए।
विकेंद्रीकरण के लिए राज्य स्तर से नीचे लोक निरीक्षण के लिए जिला ही प्रथम बिंदु होना चाहिए।

*जिला परिषद कार्यकारी निकाय बनाया जाना चाहिए और यह राज्य स्तर की योजनाओं और विकास के लिए जिम्मेदार हो।

*पंचायती चुनाव के किसी भी स्तर पर राजनीतिक पार्टियों की आधिकारिक भागीदारी निर्धारित की जानी चाहिए।

*पंचायत को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिए उन्हें अपने आर्थिक स्रोतों के लिए टैक्स लगाने का अधिकार प्रदान किया जाए।

*जिला स्तर पर गठित समिति के द्वारा इस संस्था का नियमित सामाजिक लेखा परीक्षण होना चाहिए। ताकि यह मालूम पड़ सके की जिन आवश्यकता वाले समूह के लिए धनराशि आवंटित की गई है, वह उन तक पहुंच रही है या नहीं।

*इस संस्था का राज्य सरकारों द्वारा अतिक्रमण न किया जा सके इसलिए संस्था के क्रियाशील न होने की दशा में 6 महीने के भीतर चुनाव अवश्य कर लिया जाए।

*मुख्य चुनाव आयुक्त के परामर्श के आधार पर राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी द्वारा पंचायती राज चुनाव कराना निर्धारित किया जाए।

*पंचायती संस्थाओं के मामलों की देखरेख के लिए राज्य मंत्री परिषद में एक मंत्री की नियुक्त की जानी चाहिए।

*पंचायती राज को मजबूती प्रदान करने के लिए लोगों को प्रेरित किया जाए तथा स्वैच्छिक संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।

*पंचायत में अनुसूचित जाति व जनजाति के समूह को जनसंख्या के आधार पर आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।

*इस समिति का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही जनता पार्टी की सरकार गिर गई। इसलिए अशोक मेहता समिति की सिफारिशों पर कोई भी कार्रवाई नहीं की जा सकी, लेकिन तीन राज्य कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में इस समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखकर पंचायत राज संस्थाओं के पुनरुद्धार के लिए कुछ कदम उठाए।

जी.वी.के. राव समिति (G.V.K.Rao Committee):-

सन् 1985 में योजना आयोग द्वारा जी.वी.के.राव (गुन्नुपति वेंकट कृष्ण राव) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति को ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की समीक्षा कर रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी।

समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि ग्रामीण विकास कार्यक्रम की प्रक्रिया केवल दफ्तरों तक सीमित होकर रह गई अर्थात नौकरशाहीकरण का दबदबा है, इसी कारण विकास प्रक्रिया पंचायत राज से अलग हो गई और लोकतांत्रीकरण के स्थान पर नौकरशाहीकरण होने के कारण पंचायती राज संस्थाएं कमजोर हो गई, इसीलिए पंचायती राज संस्थाओं को “बिना जड़ की घास” कहा गया।

इन संस्थाओं को सशक्त तथा पुनर्जीवित करने हेतु जी.वी.के. राव समिति द्वारा निम्नलिखित सिफ़ारिशें प्रस्तुत की गई:-

*जिला स्तरीय निकायों को “विकास की प्राथमिक इकाई” के रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए, अर्थात नियोजन और विकास की उचित इकाई जिला है। इसलिए जिले को मुख्य निकाय मानकर विकास कार्यक्रम संचालित किए जाएं।

*राज्य स्तर से संचालित होने वाले कुछ कार्यक्रमों को विकेंद्रीकरण के तहत जिला स्तर पर हस्तांतरित किया जाना चाहिए।

*भारत में पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए।

*समिति द्वारा एक जिला विकास आयुक्त के पद का सृजन करने की सिफारिश की गई, जो जिले का मुख्य कार्यकारी अधिकारी होगा।

*समिति द्वारा पाया गया कि राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं के नियमित चुनाव नहीं हो रहे हैं। अर्थात चुनाव नियमित तथा समय से संपन्न होने चाहिए।

*त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था {ग्राम पंचायत, पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर) जिला परिषद} को पुनः प्रभावी रूप से लागू किया जाना चाहिए।

एल.एम. सिंघवी समिति (L.M.Singhvi Committee):-

राजीव गांधी सरकार के समय 1986 में एल.एम.सिंघवी (डॉक्टर लक्ष्मीमल सिंघवी) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। जिसे लोकतंत्र और विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं को पुनर्जीवित करने हेतु अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी। इसने निम्न लिखित सिफ़ारिशें प्रस्तुत की:-

*भारतीय संविधान में एक नया अध्याय शामिल किया जाए। जिसमें पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान कर उनका संरक्षण किया जाए। जिससे उनकी पहचान तथा अखंडता बनी रहे।

*पंचायती राज निकायों के नियमित स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने हेतु संवैधानिक उपबंध की सिफारिश की। एक से अधिक गांवों को मिलकर न्याय पंचायत की स्थापना की जाए। जिससे स्थानीय विवादों का शीघ्र निस्तारण किया जा सके।

*गांव का पुनर्गठन कर ग्राम पंचायत को अधिक व्यावहारिक बनाया जाए। ग्राम पंचायत को “लोकतंत्र की भूमि बताया”

*ग्राम पंचायतों को अधिक आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराए जाएं। ताकि यहां विकास कार्यों को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जा सके।

*पंचायती राज संस्थाओं के विवादों के निस्तारण हेतु न्यायिक अधिकरणों की स्थापना की जानी चाहिए।

पी.के. थुंगन समिति(P.K.Thungon Committee):-

1988 में पी.के.थुंगन की अध्यक्षता में संसद की सलाहकार समिति की एक उप समिति का गठन किया गया। जिसका उद्देश्य राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की जांच कर पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने हेतु सुझाव देना था। इस समिति ने निम्नलिखित सिफ़ारिशें प्रस्तुत की:-

•ग्राम तथा जिला स्तर पर त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू की जाए।

•पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की जानी चाहिए।

•पंचायती राज व्यवस्था में जिला परिषद को केंद्र मानकर योजना निर्माण तथा उनके क्रियान्वयन हेतु अधिकार प्रदान किए जाएं।

•पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया जाना चाहिए।

•पंचायती राज संस्थाओं हेतु
राज्य स्तर पर योजना मंत्री की अध्यक्षता में योजना निर्माण व समन्वय समिति का गठन किया जाए।

•पंचायती राज व्यवस्था पर केंद्रित विषयों की सूची तैयार कर उन्हें संवैधानिक दर्जा प्रदान किया जाए।

•पंचायती राज के तीनों स्तरों पर जनसंख्या के आधार पर आरक्षण होना चाहिए तथा महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु आरक्षण का प्रावधान किया जाए।

•सभी राज्यों में राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाए।

•जिले के कलेक्टर को जिला परिषद का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया जाए।

गाडगिल समिति(Gadgil Committee):-

भारत में पंचायती राज में सुधार हेतु 1988 में कांग्रेस पार्टी द्वारा एक नीति एवं कार्यक्रम समिति का गठन किया गया। जिसका अध्यक्ष वी.एन.गाडगिल को नियुक्त किया गया। इस समिति को इस उद्देश्य से नियुक्त किया गया, कि पंचायती राज संस्थाओं को प्रभावित कैसे बनाया जा सके, समिति ने यथास्थिति का अवलोकन कर निम्नलिखित सिफ़ारिशें प्रस्तुत की :-

•पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया जाए।

•पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष सुनिश्चित किया जाए।

•समिति द्वारा स्पष्ट किया गया कि गांव, प्रखंड (ब्लॉक) तथा जिला स्तर पर त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था सुनिश्चित की जाए।

•पंचायत के तीनों स्तरों पर सदस्यों के चुनने हेतु सीधा निर्वाचन होना चाहिए।

•सभी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए।

•पंचायती राज संस्थाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने हेतु कर (Tax) लगाने, वसूलने तथा जमा करने का अधिकार प्रदान किया जाए।

•पंचायती राज संस्थाओं को पंचायत क्षेत्र के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए नीति निर्माण करना तथा उनके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी होगी।

राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाए जो आवश्यकता अनुसार पंचायतों को वित्त आवंटन करें।

•पंचायतों के निष्पक्ष निर्वाचन कराने हेतु राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया जाए।

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विश्व की स्थानीय पवने|चिनूक| फाॅन| सिराको|हरमट्टन|नार्वेस्टर

विश्व की स्थानीय पवने निम्नलिखित हैं:-

1- गर्म स्थानीय पवने:- 

चिनूक हवा (Chinook wind):-                                                    एक प्रकार की गर्म और शुष्क हवा होती है जो मुख्य रूप से पर्वतीय इलाकों से नीचे की ओर बहती है, खासकर उत्तरी अमेरिका में। यह हवा विशेष रूप से *रॉकी पर्वत* (Rocky Mountains) के आस-पास के क्षेत्रों में पाई जाती है। यह हवा उत्तरी अमेरिका के राॅकी पर्वत श्रेणियां के पूर्वी ढाल पर अलबर्टा, पश्चिमी सस्केचवान तथा मोंटाना राज्यों में ढालों से नीचे की और शुष्क और गर्म दक्षिणी-पश्चिमी पवनें प्रवाहित होती हैं।

बसंत काल में इनकी गर्मी से तापमान अचानक बढ़ जाता है। और बर्फ पिघलने की क्रिया तेजी से होने लगती है इन्हीं पवनो को चिनूक कहते हैं। यह पवन वहां के स्थानीय पशुपालकों के लिए लाभदायक होती है क्योंकि इसके आगमन से चरागाहों की बर्फ पिघल जाती है। और वह बर्फ मुक्त हो जाते हैं। जिससे उनके पशुओं को चारा उपलब्ध होता है। चिनूक हवा का प्रभाव मौसम पर बहुत अधिक पड़ता है, और इसे “चिनूक” इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह हवा अक्सर चिनूक नामक स्थानों से आती है।

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चिनूक हवा के प्रमुख लक्षण:-

1.गर्म और शुष्क:- चिनूक हवा में आमतौर पर उच्च तापमान होता है, जो ठंडी और नम हवा की तुलना में बहुत अधिक गर्म होती है।

2.पर्वतीय क्षेत्रों से बहना:- यह हवा जब पर्वतों से नीचे की ओर आकर उतरती है, तो उसे “चिनूक” कहा जाता है। इस प्रक्रिया को “ओरोग्राफिक लिफ्टिंग” कहते हैं, जिसमें हवा पर्वतों के ऊपर चढ़ने के बाद, जब नीचे उतरती है, तो उसकी नमी घट जाती है और तापमान बढ़ जाता है।

3.तेज़ी से मौसम में बदलाव:- चिनूक हवा के कारण अचानक मौसम में परिवर्तन होता है, और इससे ठंडे मौसम में भी गर्मी का अनुभव हो सकता है। यह हवा कभी-कभी हिमपात (snow) को भी जल्दी पिघला देती है।

4.विविध प्रभाव:- चिनूक हवा के कारण बर्फ़ीले इलाकों में जल्दी गर्मी आती है, जिससे बर्फ़ जल्दी पिघलती है और स्थानीय तापमान में तेजी से वृद्धि होती है।

चिनूक हवा विशेष रूप से *कनाडा के प्रेयरी इलाकों* और *संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी राज्यों* में महसूस की जाती है। यह हवा कृषि, मौसम और दिनचर्या पर महत्वपूर्ण असर डाल सकती है।

विश्व की स्थानीय पवने

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फाॅन (Foehn):-
फाॅन पवन एक गर्म तथा अत्यधिक शुष्क पवन है। जो आल्पस पर्वत के उत्तरी ढ़ाल से नीचे उतरती है। इसको ऑस्ट्रिया तथा जर्मनी में फाॅन कहा जाता है। इसका प्रभाव सबसे अधिक स्विट्जरलैंड में होता है।

यह पवन जब पर्वत से नीचे उतरती है तो इसका तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस से 20 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है। इसी कारण अपने मार्ग की बर्फ को पिघला देती है, जिससे मौसम सुहावना हो जाता है, इसके प्रभाव से यहां अंगूर की फसल शीघ्र पक जाती है। चारागाह पशुओं के चरने योग्य बन जाते हैं। यह पवन मुख्यतः शीत ऋतु के अंत में तथा बसंत ऋतु के प्रारंभ में चला करती है।

 सिराको (SIROCCO):-
यह पवन अत्यधिक आर्द्र और अत्यधिक शुष्क सहारा मरुस्थल में भूमध्य सागर की ओर चलने वाली गर्म हवा है। भूमध्य सागर से गुजरते समय यह नमी धारण करती है तथा इटली में वर्षा करती है।

मरुस्थल की रेत के साथ वर्षा होने पर पानी की बूंदे लाल हो जाती है, इसी कारण इटली में इसे रक्त की वर्षा (Blood rain) कहते हैं। इटली में इसे सिराको (sirocco), स्पेन में लेवेंच (Levech) तथा मैड्रिया तथा कनारी द्वीप समूह में इसे लेस्ट नाम से जाना जाता है। इसे विभिन्न स्थानों में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। जैसे:- मिस्र में खमसिन, लीबिया में गिबली, ट्यूनीशिया में चिली, स्पेन में लेवेंच, मेडिरा व कनारी में लेस्ट, अरब के रेगिस्तान में सिमूम।

सिराको पवन प्रायः सभी मौसमों में चलती है, लेकिन बसंत काल में भूमध्य सागर में चलने वाले चक्रवातों के समय अत्यधिक सक्रिय होती है। यह हवाएं कृषि और बागवानी फसलों के लिए विनाशकारी होती हैं। जैसे स्पेन इटली आदि में इसके चलने से अंगूर और जैतून की फसलों के फूल झड़ने से अत्यधिक नुकसान होता है।

अरब के रेगिस्तानों में सिमूम के नाम से पुकारी जाने वाली यह हवा अत्यधिक गर्म शुष्क रेत की आंधियां होती हैं। जिससे यहां की दृश्यता लगभग शून्य हो जाती है।

हरमट्टन (HARMATTAN):-
सहारा मरुस्थलीय प्रदेश में चलने वाली गर्म अति शुष्क और रेत युक्त गिनी की तट की ओर चलने वाली पवन को “हरमट्टन” कहते हैं। यह पवन इतनी गर्म होती है, जिसके फलस्वरुप पौधों के तनों में दरारें पड़ जाती हैं।

यह हवाएं गिनी तट पर पहुंचती हैं, तो वहां की आर्द्र हवा (उमस) का वाष्पीकरण होने के कारण हवाएं ठंडी हो जाती हैं, फलस्वरुप लोगों को उमस से राहत मिलती है, इसी कारण इस पवन को “डॉक्टर पवन” (Doctor wind) की संज्ञा दी जाती है।

 लू (Loo):-
उष्ण प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु में बहने वाली शुष्क हवाओं को “लू” कहते हैं। भारत में इस पवन का तापक्रम 38 डिग्री सेल्सियस से 49 डिग्री सेल्सियस तक होता है। यह भारत में मई के अंतिम सप्ताह से जून के अंतिम सप्ताह तक बहती है।

 ब्रिक फील्डर (Brick Fielder):-
ब्रिक फील्डर दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया के मरुस्थलीय प्रदेशों (विक्टोरिया) से चलने वाली गर्म शुष्क धूल भरी स्थानीय हवा है। इसे “साउदर्ली बूस्टर” के नाम से भी जाना जाता है। इसके प्रभाव से ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण पूर्वी तटीय क्षेत्र का तापमान बहुत बढ़ जाता है, और यहां का मौसम गर्म और शुष्क हो जाता है।

इस पवन में धूल की मात्रा होने के कारण दृश्यता को प्रभावित करती है। यह अर्जेंटीना में चलने वाली “जोंडा पवन” के समकक्ष होती है। इसका नाम मध्य सिडनी में स्थित ब्रिक फील्ड पहाड़ी के नाम से पड़ा है।

 सिमूम(Simoom):-
यह एक गर्म शुष्क तथा दम घुटाने वाली हवा है। जो सहारा और अरब के मरुस्थलों में बसंत और ग्रीष्म में चलती है। यह अपने साथ बालू उड़ा कर लाती है, इन हवाओं का तापमान 32 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक हो जाता है। जिससे शरीर में इतनी गर्मी उत्पन्न होती है, कि पसीने के वाष्पीकरण से उसका समाधान नहीं हो पाता है। जिससे “हीट स्ट्रोक” होने का खतरा रहता है। इसलिए इसे “जहरीली हवा” भी कहते हैं।

काराबुरान (Kara buran):-
काराबुरान पवन मध्य एशिया में सिक्यांग के तारिम बेसिन में बहने वाली गर्म और शुष्क उत्तरी पूर्वी हवा है। यह हवा मरुस्थलों में धूल उड़ाकर लोएस (पाऊस) के मैदान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह हवा बसंत के आरंभ से ही लेकर ग्रीष्म के अंत तक बहती है।

 खमसिन(Khamsin):-
मिस्र में सिराको पवन को ही खमसिन नाम से जाना जाता है। जो मिस्र के उत्तर की ओर प्रवाहित होती है, इसकी उत्पत्ति उष्ण मरुस्थलीय प्रदेशों से होने के कारण इसमें धूल कणों की अधिकता होती है। मुख्यतः यह पवन बसंत ऋतु में चलती है।

 गिबली(Gibli):-
यह पवन उत्तरी अफ्रीका के लीबिया, ट्यूनीशिया से भूमध्य सागर की ओर चलने वाली स्थानीय पवन है। जो कि गर्म शुष्क और धूल भरी होती है। यह पवन जब भूमध्य सागर से गुजरती है तो नमी ग्रहण करती है, जिसके फल स्वरुप बादलों का निर्माण होकर बारिश होती है। जिसमें धूल के कणों की उपस्थिति रहती है। यह पवन सिराको पवन का ही विस्तार है। जिसे लीबिया में गिबली नाम से जाना जाता है।

 चिली(Chilli):-
यह ट्यूनीशिया में चलने वाली गर्म शुष्क हवा है, जो भूमध्यसागरीय क्षेत्र में उत्तरी अफ्रीका से चलने वाली गर्म और शुष्क पवन सिराको को ही ट्यूनीशिया में चिली नाम से जाना जाता है।

 ब्लैक रोलर (Black Roller):-
ब्लैक रोलर एक गर्म स्थानीय पवन है, जो उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदान में दक्षिण पश्चिम या उत्तरी पश्चिमी तेज धूल भरी आंधियों के रूप में चलती है। इन पवनो में धूल की मात्रा इतनी होती है कि जो कि मार्ग में पढ़ने वाली इमारतों को ढ़क देती है।

 शामल (Shamal):-
यह एक गर्म हवा है, जो इराक, मेसोपोटामिया, फारस की खाड़ी की ओर उत्तर पूर्व से चलने वाली पवन है।

 नार्वेस्टर(Norwester):-
यह न्यूजीलैंड के दक्षिण द्वीप की पर्वतमालाओं से उत्पन्न होने वाली फाॅन पवन की भांति गर्म शुष्क झोकेदार पवन है।
भारत और बांग्लादेश में भी बंगाल की खाड़ी से आने वाली स्थानीय आंधी तूफान को नार्वेस्टर या काल वैसाखी कहा जाता है यह उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है यह गरज, बिजली, ओलावृष्टि और भारी बारिश लाती हैं। लेकिन यह कुछ फसलों के लिए लाभकारी सिद्ध होती है।

 सांता आना (Santa Ana):-
सांता आना धूलयुक्त, गर्म, शुष्क स्थानीय पवन है। जो कि दक्षिणी कैलिफोर्निया के तटीय मैदानों में चलती है। इस पवन के प्रकोप से कैलिफोर्निया के फलों के बगीचों को अपार क्षति होती है।पेड़-पौधे सूख जाते हैं, फलस्वरुप जंगलों में आग भी लग जाती है।

 कोयमबैंग (Coembang ):-
कोयमबैंग जावा, इंडोनेशिया में चलने वाली गर्म स्थानीय हवा है। फाॅन के समान लक्षण वाली पवन है। इस पवन द्वारा यहां की तंबाकू की फसल को अधिक नुकसान होता है।

 योमा(Yoma):-
योमा जापान की खड़ी घाटियों में चलने वाली गर्म, शुष्क स्थानीय पवन है। जो निर्धारित स्थानों पर नियमित चलती है।

जोन्डा (Zonda):-
यह अर्जेंटीना में चलने वाली गर्म, शुष्क, उमसदार स्थानीय पवन है। जो पश्चिम में एंडीज पर्वतमालाओं से नीचे मैदानों की ओर चलती है। इसे “शीत फाॅन” (Winter Foehn) भी कहते हैं।

 सोलैनो(Solano):-
यह दक्षिणी पूर्वी स्पेन तथा जिब्राल्टर में बहने वाली पूर्वी तथा दक्षिणी पूर्वी स्थानीय पवन है। यह पवन गर्मियों में शुष्क, गर्म होती है, तथा कभी-कभी नमी ग्रहण करके वर्षा भी करती है।

 ट्रेमोंटेनो (Tramontano):-
यह मध्य यूरोमें बहने वाली गर्म, शुष्क स्थानीय हवा है। जो यहां की संकरी घाटियों में बहती है।

 सिमून(Simun/Simoon):-
यह ईरान मैं चलने वाली कर गर्म, शुष्क स्थानीय पवन है। जो यहां के कुर्दिस्तान पर्वत के नीचे मैदानी भागों में चलती है।

 अयाला (Ayala):-
यह एक तीव्र प्रचंड गर्म स्थानीय पवन है। जो कि फ्रांस के सेंट्रल मैसिफ क्षेत्र में बहती है। मध्य एशिया, इराक, गिनी तट, अमेरिका के मेड्रिया,इटली मे इसी पवन को सिराॅको कहते हैं।

 बर्ग(berg):-
दक्षिण अफ्रीका में चलने वाली गर्म एवं शुष्क स्थानीय पवन है। यह यहां के आंतरिक पठारों से तटीय क्षेत्र की ओर बहती है।

 बाग्यो (Baguio):-
यह फिलिपींस द्वीप समूह क्षेत्र में बहने वाली उष्णकटिबंधीय चक्रवाती पवनें (Tropical Storm) है। जो जुलाई से नवंबर तक चलती हैं

2-ठंडी स्थानीय पवने :-

 मिस्ट्रल(Mistral):-यह एक ठंडी शुष्क स्थानीय हवा है। जो फ्रांस के उच्च पठार से होकर भूमध्य सागर की ओर तीव्र गति से चलती हैं। और यह उत्तरी पश्चिमी अथवा उत्तरी हवाएं जो मुख्यतः रोन डेल्टा तथा लायन्स की खाड़ी में चलती है।

यह ठंडी हवाएं मध्यवर्ती यूरोप में उपस्थित शीतकालीन प्रतिचक्रवात से होकर गुजरती हैं।इन हवाओं की औसत गति 60 किलोमीटर प्रति घंटा होती है, लेकिन कभी-कभी इनकी गति 130 किलोमीटर प्रति घंटा तक पहुंच जाती है।

 बोरा (Bora):-
एड्रियाटिक सागर के उत्तरी तट पर चलने वाली एक ठंडी पवन है। यह पवन मध्य यूरोप में उत्तरी पूर्वी पर्वतों के उच्च दाब क्षेत्र से भूमध्य सागर में विद्यमान निम्न दाब के क्षेत्र में प्रायः शीत काल में चलती है। इस पवन के लक्षण मिस्ट्रल पवन से मिलते जुलते होते हैं।

 विली विली (Willy Willy):-
यह पवन एक रूप से उष्णकटिबंधीय तीव्र तूफान की श्रेणी में आता है जो ठंडा अल्पकालिक एवं स्थानीय होता है। यह हवाएं ऑस्ट्रेलिया में उत्तरी -पश्चिमी तट के समीप उत्पन्न होती हैं।

 पोनेण्टी (Ponente):-
यह एक ठंडी पवन है, जिसके चलने से सामान्यता मौसम शुष्क हो जाता है। यह भूमध्य सागरीय क्षेत्र में कोर्सिका के तट पर तथा भूमध्य सागरीय फ्रांस में चलने वाली पश्चिम पवन हैं।

 पुर्गा (Purga):-
यह एक ठंडी स्थानीय पवन है। जो टुंड्रा प्रदेश के अलास्का व साइबेरिया क्षेत्र में प्रचंड हिम झंझावात या बर्फीले तूफानों के रूप में उत्तर- पश्चिम दिशा में चलते हैं।

 ब्लिजर्ड(Blizzard):-
यह एक ठंडी स्थानीय हवा है। जिसे ‘हिम झंझावात” भी कहते हैं। जो दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र साइबेरिया, कनाडा तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में चलती है। यह पवन ध्रुवों से आने के कारण बर्फ के कणों से युक्त होती है। इसके चलने से यहां का तापमान अचानक हिमांक से नीचे गिर जाता है। सतह बर्फ से ढक जाती है, जिससे शीत लहर चलने लगती है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में पश्चिम व पूर्व में कोई अवरोध न होने के कारण यह हवाएं समस्त मध्यवर्ती मैदानों को प्रभावित करती हुई दक्षिणी प्रान्तो तक पहुंच जाती है। यहां पर इनको “नॉर्दर्न (Northern)” कहते हैं, तथा साइबेरिया में इन्हें “बुरान” कहते हैं।

 बाइज (Bise):-
यह दक्षिणी फ्रांस में शीत ऋतु के समय चलने वाली अत्यधिक ठंडी पवन है।

 लेवेंतर(Leventer):-
दक्षिणी स्पेन में शीत ऋतु के समय चलने वाली ठंडी हवा है।

 पैंम्पीरो (Pempero):-
यह एक तीव्र गति से चलने वाली ठंडी हवा है। जो अर्जेंटीना तथा उरुग्वे के पम्पास क्षेत्र में चलती है। कभी-कभी यह पवन चमक और गरज के साथ तीव्र वर्षा भी करती हैं।

संविधान में रिट के प्रकार|बन्दी प्रत्यक्षीकरण|परमादेश|प्रतिषेध

भारतीय संविधान में रिट के प्रकार:- भारतीय संविधान में कुल 5 प्रकार की रिटों का उल्लेख है, अनुच्छेद 32 के अनुसार उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय इन्हें जारी करता है। जो निम्नलिखित है:-

बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) रिट :-यह रिट एक आदेश है जो उस व्यक्ति के लिए होती है| जिसने किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में रखा है। न्यायालय आदेश पारित करता है कि जिस व्यक्ति को अवैध रूप से बंदी बनाया गया है उसे सशरीर उपस्थित किया जाए। जिससे न्यायालय उसके कारावास के कारणों से अवगत हो सके । यदि हिरासत में लिए गए व्यक्ति का मामला अवैध है।तो उसे स्वतंत्र किया जा सकता है । यह रिट किसी व्यक्ति, चाहे अधिकारी हो या प्राइवेट व्यक्ति को  जारी की जा सकती है। इसकी अवमानना करने पर उसे दण्डित भी किया जाएगा। कुछ मामलो मे यह रिट जारी नही की जा सकती हैं जैसे :-

– हिरासत कानून के अनुसार है |

यदि कार्यवाही किसी विधान मंडल या न्यायालय की अवमानना के तहत हुई हो।

किसी न्यायालय ने हिरासत में रखने की सजा दी हो| हिरासत न्यायालय के न्याय क्षेत्र के बाहर हुई हो।

यह रिट अनु० 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवम  दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नही। इसी संदर्भ में यह रिट मानव स्वतंत्रता  का सर्वोत्तम अग्रदूत कहा गया है। यह रिट व्यक्तिगत आजादी के लिए जारी की जाती है।

रिट
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परमादेश(Mandamus) रिट:- यह रिट सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है। इसका शाब्दिक अर्थ “हम आदेश देते हैं” इसके तहत न्यायालय किसी सरकारी अधिकारी, सरकारी इकाई, सरकारी निगम, अधीनस्थ न्यायालय, प्राधिकरणों को यह आदेश जारी करता है। कि वह सार्वजनिक उत्तरदायित्व का निर्वहन ठीक प्रकार से करें। उनके द्वारा उनके कार्यों और उसे न करने के बारे में पूछा जा सके परमादेश रिट निम्नलिखित को जारी नहीं की जा सकती
1- निजी इकाई या निजी (प्राइवेट) व्यक्तियों के विरुद्ध।
2- भारत के राष्ट्रपति एवं राज्यों के राज्यपालों के विरुद्ध।
3- गैर संवैधानिक विभागों के विरुद्ध।

 प्रतिषेध(Prohibition) रिट:-यह रिट सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों द्वारा निम्न/अवर न्यायालयों को आदेश जारी किया जाता है। कि वह अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर के मामलों में की जाने वाली कार्रवाई को रोक दें इस रिट का शाब्दिक अर्थ ही “रोकना है” यह रिट केवल न्यायिक व अर्ध न्यायिक प्राधिकरण के विरुद्ध ही जारी की जा सकती है
 

उत्प्रेषण(Certiorari) रिट:-उत्प्रेषण रिट का शाब्दिक अर्थ “प्रमाणित होना या सूचना देना है।” इस रिट को किसी विवाद को निम्न/अवर न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है। रिट के न्यायिक व अर्ध न्यायिक प्राधिकरणों के खिलाफ ही जारी किया जाता था। लेकिन सन 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि यह रिट व्यक्तियों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक प्राधिकरणों के खिलाफ भी जारी की जा सकती है। हालांकि देखा जाए तो यह विधिक निकायों एवं निजी व्यक्तियों या इकाइयों के विरुद्ध जारी नहीं की जा सकती है।
 

अधिकार पृच्छा(Quo Warranto) रिट:-यह रिट किसी भी व्यक्ति द्वारा जारी की जा सकती है। न कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा और पूछा जा सकता है। कि वह किस अधिकार से उस पद पर कार्य कर रहा है। अर्थात इस रिट का शाब्दिक अर्थ “किस अधिकार से, प्राधिकृत या वारंट द्वारा।”
इस रिट के द्वारा न्यायालय उस व्यक्ति के खिलाफ आज्ञा पत्र जारी करता है। जो व्यक्ति उस पद पर कार्यरत है जिसे करने के लिए वह अधिकार नहीं रखता है। अर्थात न्यायालय उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्यरत है। अतः जिस किसी व्यक्ति द्वारा लोक कार्यालय के अवैध अनाधिकार ग्रहण करने को रोकता है। इसे मंत्रित्व कार्यालय या निजी कार्यालय के लिए जारी नहीं किया जा सकता है। यदि पूरक सार्वजनिक कार्यालयों का निर्माण संवैधानिक हो तब इस रिट को जारी किया जा सकता है।

 इल्बर्ट बिल | विवाद क्या था | विरोध किसने किया |वायसराय कौन था

इल्बर्ट बिल भारतीय जजों के साथ होने वाले भेदभाव/अन्याय को दूर करने की भावना से एक विधेयक सर पी.सी. इलबर्ट द्वारा प्रस्तुत किया गया जिसे “इल्बर्ट बिल” की संज्ञा दी जाती है।

इल्बर्ट बिल

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भारत में 1861 से समस्त क्षेत्र में एक समान फौजदारी कानून लागू कर दिया गया था। इसी तहत सभी प्रान्तों में उच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी।

सन 1861 से पूर्व देश में दो प्रकार के कानून थे। एक प्रेसीडेंसी नगरों के लिए अंग्रेजी कानून तथा दूसरा ग्रामीण क्षेत्रों में मुगल कानून लागू था। उस समय के नीति निर्धारकों का विचार रहा कि यूरोपीय लोगों को मुगल कानून के अंतर्गत लाना उचित नहीं। कालांतर में इसने एक प्रथा का रूप धारण किया। जिसमें प्रेसीडेंसी नगरों के भारतीय दंड नायक (मजिस्ट्रेट) तथा सेशन जज भारतीय तथा यूरोपीय दोनों व्यक्तियों के मुकदमों की सुनवाई कर सकते थे। कहने का आशय है, कि उस समय प्रेसीडेंसी नगरों के न्यायालय में कोई भी भारतीय जज नहीं होते थे। दूसरी तरफ ग्रामीण प्रदेशों के न्यायालयों में भारतीय तथा यूरोपीय दोनों प्रकार के जज होते थे। परंतु यूरोपीय अभियुक्तों का मुकदमा केवल यूरोपीय जज ही सुनता था। यह नियम केवल फौजदारी मामलों पर लागू था। परंतु दीवानी मामलों पर ऐसा भेदभाव नहीं था।

विवाद का मुख्य कारण था। 1972 में तीन भारतीय न्यायिक सेवा में चयनित हुए तथा 1882 में उनकी पदोन्नति की गई तब वह प्रेसीडेंसी नगर कोलकाता से बाहर भेज दिए गए, जहां यूरोपीय अभियुक्तों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। इसी कारण पदोन्नति हुई भारतीय जज श्री बिहारी लाल गुप्ता ने बंगाल के उप गवर्नर सर इशले ईंडन को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने अपने पदोन्नति होने पर अधिकारों में कमी होने को न्याय संगत नहीं होना बताया तथा भारतीय और यूरोपीय पदाधिकारी में तो इस भेदभाव से न्यायाधीशों की शक्तियां नष्ट होती है।
सर पी.सी. इल्बर्ट एक न्याय में विश्वास करने वाले व्यक्ति थे। अतः वह भारतीयों को न्याय दिलाने के पक्षधर थे। इस समय वायसराय की परिषद में एक विधि सदस्य थे। इसलिए उन्होंने भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से 2 फरवरी 1883 को विधान परिषद में एक विधेयक प्रस्तुत किया। इसी विधेयक को उनके नाम पर “इल्बर्ट बिल” कहा गया।

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इल्बर्ट बिल का प्रमुख उद्देश्य भारतीय न्यायधीशों को यूरोपीय में न्यायाधीशों के समान शक्तियां प्रदान करना था। और काले- गोरे जाति भेद पर आधारित सभी न्यायिक अयोग्यताएं समाप्त करके यूरोपीय न्यायधीशों की भांति भारतीय न्यायाधीशों को सामान शक्तियां प्रदान की जाए।
इस बिल का विरोध बड़े-बड़े उद्यानों वाले यूरोपीय मालिकों द्वारा प्रमुखता से किया गया। क्योंकि इन मालिकों द्वारा भारतीय मजदूर पर बर्बरता का व्यवहार किया जाता था ।और उनसे कठोर परिश्रम कराया जाता था। यदि मजदूर कार्य करने में असमर्थता व्यक्त करता तो उसे बेरहमी से पीटा जाता था। कभी-कभी तो पीटते-पीटते उनकी मृत्यु तक हो जाती थी। इस प्रकार की हत्या का मामला न्यायालय में जाता था। तो वहां यूरोपीय न्यायाधीश ही मामले की सुनवाई करते थे और उन्हें थोड़ा दंड देकर या कभी-कभी बिना दंड के ही छोड़ देते थे लेकिन जब भारतीय न्यायाधीशों के समक्ष ऐसा मामला पहुंचा तो शायद उन्हें कठोर सजा सुनाई जा सकती थी। इसलिए इन मालिकों ने इस बिल का विरोध किया।

यूरोपीय मालिकों ने इल्बर्ट बिल के विरोध हेतु एक प्रतिरक्षण संघ (Defence association) बनाया जिसमें लगभग डेढ़ लाख रुपये चंदे के रूप में एकत्रित हुए। इस प्रकार उन्होंने प्रचार किया “कि क्यों हमारा निर्णय काले लोग करेंगे। क्या वे हमें जेल भेजेंगे क्या वह हम पर आज्ञा चलाएंगे यह मालिकों द्वारा मानना असंभव है” उन्होंने यहां तक कहा कि भारत में अंग्रेजी शासन समाप्त हो जाए लेकिन वह इस घृणित कानून को नहीं मानेंगे।

विरोध इतना प्रचंड था। कि कुछ यूरोपीय ने वायसराय को बंदी बनाकर इंग्लैंड भेजने की साजिश रची। गालियां दी गई तथा कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही वायसराय को वापस बुला लिया जाए इसकी मांग कर दी। विरोध का असर इंग्लैंड में भी दिखने लगा क्योंकि लंदन के प्रसिद्ध समाचार पत्र द टाइम्स ने भी वायसराय रिपन की नीतियों की आलोचना की। महारानी विक्टोरिया ने वायसराय के इस बिल के प्रति व्यवहार पर संदेह व्यक्त किया।

अंततः रिपन को झुकना पड़ा और 26 जनवरी 1884 को नया विधेयक पारित किया गया। जिसमें नियम बनाया गया कि यदि यूरोपीय व्यक्तियों का मुकदमा सेशन जजों के समक्ष आए तो वे लोग 12 सदस्यों की पीठ की मांग कर सकते हैं। जिसमें कम से कम सात यूरोपीय//अमेरिकी जज होना अनिवार्य होगा ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार जजों की पीठ गठित करना संभव नहीं था। इसलिए यह मुकदमे हस्तांतरित करना होता था।