धरासना|बेबमिलर|दांडी|नौजवान सभा| विलियम हॉकिंस, राल्फ फिच, सर थॉमस रो,

उस विदेशी पत्रकार का नाम बताइए जिसने धरासना साल्ट वर्क्स पर सत्याग्रह के बारे में समाचार दिए।

सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत गांधी जी द्वारा नमक कानून तोड़ा गया इसी परिपेक्ष में मुंबई में इस आंदोलन का केंद्र बिंदु धरासना था जहां सरोजिनी नायडू, इमाम साहब, गांधी जी के पुत्र मणिलाल लगभग 2000 कार्यकर्ताओं के साथ धरासना नमक कारखाने की ओर बढ़े मुंबई के पास वडाला के नमक कारखाने पर लोगों ने धावा बोला और नमक लूट लिया 1930 में मुंबई के समुद्र पर अमेरिकी पत्रकार बेबमिलर ने सत्याग्रहियो पर अत्याचार का सजीव वर्णन किया।

धरासना

दांडी मार्च 12 मार्च 1930 से 6 अप्रैल 1930 ईस्वी तक

महात्मा गांधी 12 मार्च 1930 को 78 चुने अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम अहमदाबाद से दांडी नौसारी जिला गुजरात के लिए यात्रा प्रारंभ की।

गांधीजी 5 अप्रैल 1930 ईस्वी को 241 मील लंबी पैदल यात्रा के बाद दांडी पहुंचे उसके अगले दिन 6 अप्रैल 1930 को दांडी में नमक कानून तोड़ा।

सुभाष चंद्र बोस ने गांधी जी की दांडी मार्च की तुलना नेपोलियन के पेरिस मार्च और मुसोलिनी के रोम मार्च से की।

पश्चिमोत्तर प्रांत पेशावर में नमक आंदोलन का नेतृत्व खान अब्दुल गफ्फार खान ने किया इनका यह आंदोलन लाल कुर्ती आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अब्दुल गफ्फार खान को सीमांत गांधी फख्र-ए- अफगान, बादशाह खान आदि नामों से जाना जाता है।

पूर्वोत्तर क्षेत्र मणिपुर में सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व यदुनाथ के जिया रंग आंदोलन के नाम से जाना गया।

यदुनाथ पर हत्या का अभियोग लगाकर फांसी की सजा दी गई इसके बाद इनकी बहन गैडिनल्यू ने विद्रोह का संचालन किया इन्हें बाद में आजीवन कारावास की सजा हुई नेहरू जी ने इन्हें रानी की उपाधि प्रदान की।

मुंबई में इस आंदोलन का केंद्र बिंदु धारासना रहा 31 मार्च 1930 को सरोजनी नायडू इमाम साहब तथा गांधी जी के पुत्र मणिलाल लगभग 2000 कार्यकर्ताओं के साथ धारासना कारखाने की ओर बढ़े वहां पर लाठी चार्ज हुआ इस नृशंस अत्याचार का सजीव वर्णन अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने किया।

दक्षिण भारत में इस आंदोलन का नेतृत्व राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से बदओख्यम तक की यात्रा की। सैनिक कट्टा नामक कारखाने पर धावा बोला।

1926 में गठित नौजवान सभा के प्रारंभिक सदस्य कौन कौन थे।

1926 ईस्वी में पंजाब में गठित नौजवान सभा के प्रारंभिक/संस्थापक सदस्य भगत सिंह, छबीलदास और यशपाल थे।

साइमन कमीशन 20 अक्टूबर 1928 ईस्वी को जब लाहौर स्टेशन पर पहुंचा तो नौजवान सभा के सदस्यों ने इस कमीशन का बहिष्कार करने के लिए जुलूस का गठन किया जिसमें लाला लाजपत राय पर लाठियों की बौछार की गई कुछ दिनों बाद लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई इसका बदला लेने के लिए भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और जयपाल ने स्कॉट को मारने का दृढ़ निश्चय किया मगर गलती से दिसंबर 1928 ईस्वी को सांडर्स और उनके रीडर चरण सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई।

 विलियम हॉकिंस, राल्फ फिच, सर थॉमस रो, निकोलस डाउंटन विदेशी यात्रियों को उनके भारत आने के कालक्रमानुसार व्यवस्थित कीजिए।

राल्फ फिच भारत आने वाला पहला इंग्लिश यात्री था जो 1583 ई. में आगरा पहुंचा।

विलियम हॉकिंस इंग्लैंड का यात्री जो अगस्त 1608 में सूरत पहुंचता और अप्रैल 1609 में मुगल शासक जहांगीर के दरबार आगरा पहुंचा।

सर थॉमस रो एक ब्रिटिश यात्री था जो सितंबर 1615 ई. में जहांगीर के दरबार में पहुंचा।

निकोलस डाउंटन 1615 ई. में भारत आया।

तहकीक-ए-हिंद(Tahqiq-I-Hind)|ताज उल मासिर(Taj Ul Maasir)

 

तहकीक-ए-हिंद अलबरूनी द्वारा रचित यह अरबी भाषा का ग्रंथ, जिसका सबसे पहले 1888 में एडवर्ड सांची ने अंग्रेजी अनुवाद किया। बाद में इस अंग्रेजी भाषा के अनुवाद को हिंदी में रजनीकांत शर्मा द्वारा परिवर्तित किया गया और इस पुस्तक को “आदर्श हिंदी पुस्तकालय” इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया।

तहकीक-ए-हिंद

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मध्यकालीन भारतीय इतिहास के स्रोतों की जानकारी के लिए यह पुस्तक बहुत ही प्रमाणित मानी गई है अलबरूनी ने महमूद गजनवी के समय के भारत की आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक स्थिति, सामाजिक स्थिति के बारे में विस्तृत रूप से लिखा है। यह ग्रंथ जिसमें 80 अध्याय हैं जो की एक बहुत ही विस्तृत ग्रंथ माना जाता है।
अलबरूनी ने अपने इस ग्रंथ में भारत की प्राकृतिक दशाएं, जलवायु, रीति रिवाज, धार्मिक परंपराएं, कर्म सिद्धांत, जीव के आवागमन के सिद्धांत, मोक्ष प्राप्त करने का सिद्धांत, भोजन, वेशभूषा, मनोरंजन, धार्मिक उत्सवों आदि के बारे में विस्तृत वर्णन किया है। उसने अपने इस ग्रंथ में भगवद् गीता, वेद, उपनिषदों, पतंजलि के योग शास्त्र आदि के बारे में भी लिखा है।

राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो अलबरूनी ने इस ग्रंथ में उत्तरी भारत, गुजरात, मालवा, पाटलिपुत्र, कन्नौज, मुंगेर आदि के बारे में वर्णन किया है। लेकिन इस ग्रंथ में दक्षिण भारत के किसी भी राज्य के बारे में कुछ भी नहीं लिखा गया है, और इसने भारतीय शासको के आपसी एकता के अभाव को दर्शाया है। जिसके कारण विदेशी आक्रमण कर्ताओं के द्वारा भारत को समय-समय पर क्षति पहुंचाई गई, यहां की जातिगत व्यवस्था की कठोरता और उसके दुष्परिणाम और निम्न जाति के लोगों अर्थात अछूतों की स्थिति के बारे में लिखा है। वह यह स्पष्ट करते हैं कि यहां जाति प्रथा इतनी कठोर थी कि अगर किसी व्यक्ति को जाति ने वहिष्कृत कर दिया तो वह पुनः सम्मिलित नहीं हो पता था। सामाजिक कुरीतियां भी व्याप्त थी जिसमें मुख्यत अलबरूनी ने सती प्रथा के बारे में लिखा है 1 यहां के लोग अपनी भाषा संस्कृत देश आदि को सर्वश्रेष्ठ मानते थे इसके अलावा अलबरूनी ने हिंदू मंदिरों  मूर्तियां और बिहारों का विवरण किया है1 यहां का वैष्णो संप्रदाय सबसे लोकप्रिय संप्रदाय माना जाता था 1 भारतीय लोग प्राय मूर्ति पूजा फ्रेम यह देश आर्थिक दृश्य संपन्न देश था 1 मुद्रा व्यवस्था नापतोल आज के बारे में भी वर्णन किया गया है 1 अलबरूनी ने भारतीय राजाओं द्वारा अपनी प्रजा से कर लेने के अधिकार रूप में कृषकों के उत्पादन का 1/6 भाग लगान के रूप में लिया जाता था 1 उसके अनुसार भारत एक धनवान देश था 1 यह दीप यहां महमूद ने इसकी समृद्धि को लूटकर नष्ट किया

ताज उल मासिर :-

सदरूद्दीन मुहम्मद हसन निजामी द्वारा फारसी भाषा में लिखित यह ग्रंथ दिल्ली सल्तनत का प्रथम राजकीय इतिहास का वर्णन करता है। इस ग्रंथ में मुख्यतः कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल की घटनाओं और कहीं-कहीं पर मुहम्मद गौरी, सुल्तान इल्तुतमिश के समय में हुई घटनाओं को भी दर्शाया गया है।

ताज उल मासिर

इस ग्रंथ में हसन निजामी द्वारा युद्धों तथा उनके कारणों, परिणामों पर प्रकाश डाला है, तथा भारतीय शासन प्रणाली और सामाजिक स्थिति का भी विवरण दिया है। यहां होने वाले मेलो, उत्सवों और भारतीयों के मनोरंजन के साधनों को भी इस ग्रंथ में समाहित किया गया।यह एक छोटा ग्रंथ है। कुछ तत्वों के आधार पर इस ग्रंथ की प्रामाणिकता को प्रश्न चिन्ह लगता है। जैसे इसके अनुसार कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिरहम और दीनार नामक सिक्के चलवाए लेकिन अन्य इतिहासकारों के आधार पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने कोई सिक्का नहीं चलाया। लेकिन फिर भी इस ग्रंथ का ऐतिहासिक स्रोत होना उपयोगी माना गया है।

असहयोग आंदोलन (1920) कब | कहाँ | क्यों | किसके द्वारा | उद्देश्य |समापन

असहयोग आंदोलन

असहयोग आंदोलन का प्रारंभ कोई एक दिन की घटना का परिणाम न होकर, अंग्रेजी शासन द्वारा भारतीयों के प्रति उठाए गए कदमों का परिणाम था। असहयोग आंदोलन की मुख्यतः नींव वर्ष 1919 में पड़ी। क्योंकि इस वर्ष अंग्रेजी सत्ता द्वारा बनाई गई सरकारी नीतियां एवं गतिविधियों के कारण भारत के लगभग सभी सामाजिक वर्ग असंतुष्ट हो गए थे।

असहयोग आंदोलन

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असहयोग आंदोलन का मुख्य कारण :-

असहयोग आंदोलन के मुख्य कारण निम्नलिखित थे:-

 

प्रथम विश्व युद्ध के कारण जनता आर्थिक रूप से त्रस्त हो गई थी। महंगाई अपने चरम पर जिससे कस्बो, नगरों में रहने वाले मध्यम वर्गीय एवं निम्न वर्गीय लोग परेशान थे। खाद्यान्न की कमी, मुद्रास्फीति बढ़ने लगी औद्योगिक इकाइयों का उत्पादन कम हो गया। लोगों पर कर्ज बड़ा इसके साथ-साथ सुखे महामारी और फ्लैग जैसी आपदाओं ने तो आम जनमानस की कमर तोड़ के रख दी।

असहयोग आंदोलन के प्रारंभ होने का सबसे बड़ा कारण रोलेट एक्ट (संदेश मात्र से ही लोगों पर मुकदमा चला कर वर्षों की सजा सुनाया जाना) पंजाब में मार्शल लॉ लागू करना, जलियांवाला बाग हत्याकांड आदि घटनाओं ने अंग्रेजी सरकार के क्रूर और असभ्य रवैए को उजागर किया। हंटर कमीशन की सिफारिश से हाउस आफ लॉर्ड्स में जनरल डायर के कृत्यों को उचित ठहराया गया तथा मॉर्निंग पोस्ट ने डायर के लिए 30000 पौंड की धनराशि एकत्रित करना।
1919 में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार जिसका मुख्य उद्देश्य द्वैध शासन प्रणाली लागू करना था।

असहयोग आंदोलन कहां से शुरू हुआ:-

गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन 1 अगस्त 1920 से प्रारंभ किया गया। इसे पश्चिमी भारत, बंगाल, उत्तरी भारत में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई। इस दौरान मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू तथा राजेंद्र प्रसाद ने वकालत छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। गांधी जी ने एक वर्ष के भीतर स्वराज का नारा दिया।

सितंबर 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता के विशेष अधिवेशन में असहयोग आंदोलन को स्वीकारा गया। इसकी अध्यक्षता लाला लाजपत राय द्वारा की गई। इसका सी.आर. दास द्वारा विरोध किया गया। दिसंबर 1920 के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन प्रस्ताव को सी.आर. दास ने ही प्रस्तावित किया। जो की अंतिम रूप से पारित होने में सफल रहा।
असहयोग आंदोलन का विरोध सी.आर. दास, जिन्ना, एनीबेंसेंट और विपिन चंद्र पाल ने किया था।

असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम (प्रस्तावित प्रावधान):-

असहयोग आंदोलन के प्रस्तावित प्रावधान संबंधी प्रमुख बातें निम्नलिखित थी :-
– सरकारी उपाधि एवं अवैतनिक सरकारी पदों एवं अन्य पहलुओं का बहिष्कार।
-मद्य निषेध (ताड़ी, शराब जैसी अन्य नशीली चीज)|
-सरकार द्वारा आयोजित सरकारी एवं अर्द्ध सरकारी उत्सवों का बहिष्कार किया जाए। सरकारी शिक्षण संस्थानों तथा अस्पतालों, अदालतों का बहिष्कार।
-विदेशी सामानों, विदेशी नौकरियों का त्याग किया जाए।
-विभिन्न करो को देना बंद किया जाए।
-स्थानीय स्वशासन हेतु पंचायत का गठन किया जाए।
-हिंदू मुस्लिम एकता तथा छुआछूत को मिटाकर भाईचारे की भावना का विकास करना।
-राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन प्रदान किया जाए।

असहयोग आंदोलन के समर्थन में किए गए कार्य:-

ब्रिटिश सरकार द्वारा महात्मा गांधी को प्रदान की गई, कैसर-ए-हिंद की उपाधि गांधी जी द्वारा वापस साथ ही साथ जुलू-युद्ध- पदक बोअर युद्ध पदक भी लौटा दिए गए।

-सीआर दास, जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल,सी राज गोपालाचारी आदि नेताओं ने उपाधियों और नौकरियों को छोड़ दिया।

लोगों द्वारा स्कूल नौकरियों से बायकाट तथा विभिन्न स्थानों पर जनसभाओं को संबोधित किया गया।

1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स भारत भ्रमण पर आए उन्हें यहां की जनता ने काले झंडे दिखाकर उनका स्वागत किया।

इस आंदोलन में सर्वप्रथम गिरफ्तार होने वाले नेता मोहम्मद अली थे |इसी क्रम में सरकार की दमनकारी नीतियों के द्वारा सी. आर. दास तथा उनकी पत्नी बासंती देवी को गिरफ्तार कर लिया गया।

असहयोग आंदोलन में लगभग 30000 लोगों की गिरफ्तारी हुई लेकिन गांधी जी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका।

असहयोग आंदोलन चलाने के लिए 1921 ईस्वी में तिलक स्वराज फंड की स्थापना की गई इसमें 6 माह के अंदर एक करोड रुपए एकत्रित हो गया।

पंजाब में अकाली आंदोलन जो कि अहिंसक आंदोलन था प्रारंभ हुआ।
असम के चाय बागानों के मजदूरों द्वारा हड़ताल करना।

-मिदनापुर के किसानों द्वारा यूनियन बोर्ड को कर देने से मना कर दिया गया।
उपरोक्त सभी कार्यक्रमों के साथ-साथ गांधी जी ने अंग्रेजी सरकार को चेतावनी दी। कि अगर 7 दिनों के अंदर राजनीतिक बंदी रिहा नहीं हुए और प्रेस पर सरकार का नियंत्रण समाप्त नहीं किया गया। तो वह करो की अदायगी समेत सामूहिक रूप से बारदोली में एक सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करेंगे लेकिन इसी दौरान गोरखपुर में चौरी-चोरा कांड हो जाता है। जिससे क्षुब्ध होकर गांधी जी असहयोग आंदोलन वापस ले लेते हैं।

 

प्रश्न :-असहयोग आंदोलन कब हुआ ?

असहयोग आंदोलन 1 अगस्त 1920 को गांधी जी द्वारा प्रारंभ किया गया।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन कहां से शुरू हुआ ?

असहयोग आंदोलन सितंबर 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कोलकाता में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा गांधी के सहयोग से या प्रस्ताव पारित किया गया।

प्रश्न:- सहयोग आंदोलन का मुख्य कारण था।

असहयोग आंदोलन के मुख्य कारण निम्नलिखित थे रॉलेट एक्ट प्रथम विश्व युद्ध के कारण महंगाई, मुद्रा स्फीति ,औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, लोगों पर कर्ज, सूखा, महामारी, फ्लैग पंजाब में मार्शल लॉ आदि।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन कब समाप्त हुआ।

4 फरवरी 1922 को गोरखपुर में चौरी- चोरा कांड के कारण क्षुब्ध होकर महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का निर्णय लिया है। तथा 12 फरवरी 1922 को बारदोली में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में आंदोलन स्थगित करने की घोषणा की।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन क्या है।

अंग्रेजी सरकार द्वारा मानवीय कृत्यों एवं नए-नए समाज विरोधी नियमों को पारित करने पर भारतीय नेताओं एवं जनता द्वारा अंग्रेजी सरकार के सभी कार्यों में सहयोग न करके असहयोग करने का निर्णय लिया गया।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन कब और क्यों वापस लिया गया।

12 फरवरी 1922 को महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन स्थगित करने की घोषणा की। क्योंकि गांधीजी 4 फरवरी 1922 को हुए चौरी- चौरा (गोरखपुर) कांड से बहुत आहत हुए थे।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के किस अधिवेशन में पारित हुआ।

सितंबर 1920 के कोलकाता अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ।

प्रश्न:- असहयोग आंदोलन के उद्देश्य।

जिन कार्यों से खिलाफत आंदोलन प्रारंभ किया गया। उनका उचित समाधान तथा जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रतिकार एवं स्वराज स्थापित।

 लॉर्ड कर्ज़न (1899-1905) जीवन परिचय|नीतियां|सुधार|मृत्यु|बंगाल विभाजन

 

भारतीय इतिहास में लॉर्ड कर्ज़न सबसे अलोकप्रिय वायसराय माना गया है। इसे इसके कार्यों के कारण दूसरा औरंगजेब गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा कहना उचित समझा गया है। हालांकि लॉर्ड कर्जन एक परिश्रमी, जिम्मेदार योग्य गवर्नर था। जिसने अनेक सुधार भी किये जैसे शिक्षा में सुधार, आर्थिक सुधार, पुलिस सुधार, कृषि सुधार आदि। इसका सबसे घृणित कार्य बंगाल विभाजन था।

लॉर्ड कर्ज़न

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लॉर्ड कर्जन का जीवन परिचय

लॉर्ड कर्ज़न का पूरा नाम जार्ज नैथूनियल कर्जन था। यह केडलस्टन डर्बीशायर के रेक्टर व चौथे बैरन स्कार्सडेल के सबसे बड़े पुत्र थे। यह अपने समकालीन लोगों में भारत के विषय में सबसे अधिक जानकारी रखते थे। यह परिश्रमी, जिम्मेदार तथा योग्यतम् गवर्नर था। विद्यालयी शिक्षा के प्रारंभिक स्कूल मास्टर जो शारीरिक दंड में विश्वास रखते थे, उनसे यह काफी प्रभावित था। 1874 में एक दुर्घटना के कारण इसकी पीठ में भयानक दर्द हुआ था। डॉक्टरों ने इसे आराम करने की सलाह दी लेकिन इसने सलाह न मानकर चमड़े का हार्नेस जीवन पर्यंत पहना जिसके कारण इसे नींद नहीं आती थी और यह ड्रग्स लेने लगा जिससे यह और क्रूर प्रवृत्ति का हो गया।

कर्जन जब ईटन में स्नातक कर रहा था। तभी इसने भारत का गवर्नर जनरल बनने की इच्छा प्रकट की थी। इसकी यह इच्छा 1899 में पूर्ण हुई। यह भारतीयों से हमेशा द्वेष भावना रखता था। यह अपने को एक श्रेष्ठ शासन की दृष्टि से देखता। कर्जन की मृत्यु मार्च 1925 में एक आंतरिक ऑपरेशन कराने के कारण हुई।

लॉर्ड कर्जन की नीतियां/ लाॅर्ड कर्जन के सुधार

लॉर्ड कर्ज़न के शिक्षा में सुधार

लॉर्ड कर्ज़न भारतीय विश्वविद्यालय और शिक्षा निकायों को उग्रवादियों और विद्रोहियों का अड्डा मानता। जिसे रोकने के लिए उसने 1901 में शिमला में शिक्षाविदों का सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में एक भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया। सम्मेलन के बाद एक विश्वविद्यालय आयोग टाॅमस रैले की अध्यक्षता 1902 में गठित किया गया। इस आयोग में दो भारतीय सदस्य सैयद हुसैन बिलग्रामी तथा गुरूदास बैनर्जी को सम्मिलित किया गया। इसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय कानून बनाया गया। इस कानून के द्वारा विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ गया। जिससे सरकार विश्वविद्यालयों के लिए नियम बना सकती तथा इनका निरीक्षण भी कर सकती थी। इस नियंत्रण को आगे और कठोरता पूर्वक लागू किया गया। इसलिए इस कानून का जोरदार विरोध किया गया। इस कानून के परिपेक्ष में कर्जन की छवि भारतीय शिक्षाविदों में एक खलनायक के रूप में बनी। कर्जन का भारतीय शिक्षा के बारे में मानना था। कि” पूर्व एक ऐसा विद्यालय है, जहां विद्यार्थियों को कभी प्रमाण पत्र नहीं मिलता।”

लॉर्ड कर्ज़न के आर्थिक सुधार

1899 में भारतीय टंकण तथा मुद्रण अधिनियम के आधार पर भारतीय मुद्रा को परिवर्तीय मुद्रा बना दिया तथा अंग्रेजी पाउंड भारत में विधिग्रह् बन गया तथा यह 1 पाउंड 15 रुपए के बराबर था। इस व्यवस्था के लागू होने पर जिन व्यक्तियों की वार्षिक आय ₹ 1000 थी उन्हें कर देना नहीं पड़ता था तथा नमक कर को भी घटकर 2.5 रुपए प्रतिमन से 1.5 रुपए प्रतिमन कर दिया गया।

कृषि सुधार

लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल में एक कृषि अनुसंधान केंद्र की स्थापना की जिससे वैज्ञानिक ढंग से कृषि की जा सके। पंजाब के कृषकों की स्थिति को मजबूत करने के लिए 1900 में दि पंजाब लैंड एलिनेशन एक्ट लाया गया जो कि किसी भी साहूकार द्वारा बिना सरकार की अनुमति के किसानों की भूमि पर अधिकार नहीं कर सकता था। इसी क्रम में कर्जन द्वारा 1904 में दि कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटीज एक्ट लाया गया। जिसके द्वारा किसानों को कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई तथा फसल नष्ट होने या खराब होने की दशा में लगान माफ करने का आदेश जारी किया।

सिंचाई आयोग का गठन

कर्जन द्वारा 1901 में कालिन स्काट के नेतृत्व में सिंचाई आयोग का गठन किया। इस आयोग ने सिंचाई के महत्व को समझा और अगले 20 वर्षों में इस पर 44 करोड रुपए खर्च करने की सिफारिश की जिसे सरकार द्वारा मान लिया गया।

लॉर्ड कर्ज़न के पुलिस सुधार

लॉर्ड कर्ज़न को पुलिस के क्रियाकलापों मे सुधार की आवश्कता महसूस हुई।इसलिए इसके द्वारा 1902 में पुलिस सुधार हेतु र्फेजर आयोग का गठन किया गया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया कि पुलिस विभाग पूरी तरीके से भ्रष्ट हो चुका है। और आयोग सुझाव दिया कि सिपाहियों और अधिकारियों के लिए विशेष प्रशिक्षण स्कूल खोले जाएं तथा उच्च अधिकारियों की भर्ती प्रत्यक्ष की जाएं इनके वेतन में वृद्धि तथा गुप्तचर विभाग बनाया जाए। आयोग ने स्पष्ट किया कि जनता को संदेह मात्र पर गिरफ्तार न किया जाए। आयोग के उपर्युक्त सभी सुझावों को सरकार ने मान लिया तथा प्रांतीय स्तर पर एक गुप्तचर विभाग (CBI) की स्थापना की गई।

मैक्डोनाल्ड आयोग (1900)

भारत में लार्ड एल्गिन द्वितीय के समय से ही कुछ प्रांतों को छोड़कर लगभग संपूर्ण भारत में अकाल की स्थिति का सामना करना पड़ता था। अतः इस स्थिति से निपटने के लिए लॉर्ड कर्ज़न ने मैक्डोनाल्ड की अध्यक्षता में एक अकाल आयोग का गठन किया। इस आयोग ने एक अकाल आयुक्त बनाने की सिफारिश की और कहा की सरकार को अकाल की स्थिति उत्पन्न होते ही तुरंत सहायता देना प्रारंभ कर देना चाहिए तथा यह भी सुझाव दिया कि इस विषम परिस्थिति में सरकार को गैर सरकारी संगठन से भी सहायता लेनी चाहिए।

रेलवे सुधार (1901)

भारतीय इतिहास में रेलवे के निर्माण को एक नए युग की तरह देखा गया। रेलवे के निर्माण की प्रगति लॉर्ड कर्ज़न के पूर्व ही प्रारंभ हो गई थी। लेकिन अंग्रेजी भारत के इतिहास में सबसे अधिक रेलवे लाइन का विस्तार कर्जन के कार्यकाल में ही संपन्न हुआ। कर्जन ने 1901 में रॉबर्टसन की अध्यक्षता में रेल व्यवस्था के सुधार के लिए एक रेलवे आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग ने सुझाव दिया कि रेलवे का प्रबंधन व्यावहारिक आधार पर होना चाहिए। अतः कर्जन ने रेलवे विभाग खत्म करके रेलवे बोर्ड की स्थापना की।

लॉर्ड कर्ज़न एक पुरातत्वविद् था। उसने 1904 में प्राचीन स्मारक सुरक्षा कानून बनाया। जिसके द्वारा पुरातत्व विभाग की स्थापना की गई। और इसके रखरखाव एवं सुरक्षा के लिए 50000 पाउंड की धनराशि इस विभाग को उपलब्ध कराई गई।

कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन (1905)

लॉर्ड कर्ज़न द्वारा भारत में सबसे घृणित कार्य बंगाल विभाजन था। कर्जन द्वारा यह तत्व प्रस्तुत किया गया। कि बंगाल प्रांत बड़ा होने के कारण प्रशासनिक असुविधा होती है। लेकिन इस विभाजन से देश की जनता में आक्रोश व्याप्त हो गया। कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीतियों की भारतीय युवाओं में प्रतिक्रिया हुई। नए बंगाल प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एंण्ड्रयू फ्रेजर ने सांप्रदायिक आधार पर कहा था।” मेरी दो पत्नियां है जिसमें मुसलमान पत्नी मुझे अधिक प्रिय है।” लॉर्ड कर्ज़न द्वारा किए गए कुछ प्रतिक्रियावादी कार्य जैसे कोलकाता कॉरपोरेशन अधिनियम एवं विश्वविद्यालय अधिनियम आदि भारत ने उग्रवादी कार्यों को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कर्जन के 7 वर्षों के शासनकाल को शिष्टमंडलों भूलों तथा आयोगों का काल कहा जाता है। हालांकि 1911 में बंगाल विभाजन को रद्द कर दिया गया। परंतु लॉर्ड कर्जन अंतत अपने सांप्रदायिक उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल रहा।

 प्रश्न01-बंगाल विभाजन कब हुआ?

बंगाल विभाजन की घोषणा लॉर्ड कर्जन ने 20 जुलाई 1905 को की तथा इसके बाद बंगाल विभाजन लागू 16 अक्टूबर 1905 को कर दिया गया।

प्रश्न02- बंगाल का एकीकरण कब किया गया?

बंगाल विभाजन लॉर्ड हार्डिंग द्वितीय के समय में 1911 में समाप्त किया गया। जिसमें जॉर्ज पंचम, क्वीन मेरी, भारत सचिव जार्ज मार्ले के संयुक्त हस्ताक्षर के द्वारा इसकी समाप्ति की घोषणा की गई

 प्रश्न03- बंगाल विभाजन का कारण क्या था?

बंगाल विभाजन का मुख्य कारण बंगाल की एकजुट शक्ति को तोड़ना था। जिसमें हिंदू तथा मुसलमान सभी शामिल थे। ब्रिटिश भारतीय राष्ट्रीय चेतना को फूट डालो राज करो के सिद्धांत के द्वारा नष्ट करना चाहती थी। उसने धार्मिक आधार पर बंगाल विभाजन करना उचित समझा।

 प्रश्न04- बंगाल विभाजन रद्द कब हुआ?

बंगाल विभाजन 1911 में दिल्ली दरबार के अवसर पर जॉर्ज पंचम तथा क्वीन मेरी के द्वारा रद्द करने की घोषणा की गई।

 प्रश्न05- लार्ड कर्जन की मृत्यु कैसे हुई?

लॉर्ड कर्जन की मृत्यु उसके मूत्राशय में गंभीर रक्तस्राव होने के कारण ऑपरेशन किया गया। जिसके फलस्वरूप 1925 में इसकी मृत्यु हो गई।

विजयनगर साम्राज्य(1336-1652)|संगम वंश|स्थापना|यात्री|मंदिर|अमर नायक प्रणाली

विजयनगर साम्राज्य

भारत के प्रांतीय राज्यों के शासनकाल में विजयनगर साम्राज्य का भारतीय मध्यकालीन इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। भारत के दक्षिणी पश्चिमी तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर एवं बुक्का नामक दो भाइयों ने सन 1336 ईस्वी में की थी। जो वर्तमान में हम्पी (कर्नाटक राज्य) नाम से जाना जाता है।

विजयनगर साम्राज्य

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विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर एवं बुक्का कंपिली राज्य में मंत्री के पद पर कार्यरत थे। 1325 ईस्वी में मुहम्मद बिन तुगलक के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शस्प ने कर्नाटक के सागर स्थान पर विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का दमन करने हेतु मुहम्मद बिन तुगलक स्वयं सागर गया। बहाउद्दीन ने भाग कर कंपिली के राजा के यहां शरण ली। मुहम्मद बिन तुगलक ने कंपिलो को जीत कर दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बना लिया । इसी दौरान हरिहर और बुक्का को कैद कर लिया गया तथा इनका धर्मांतरण कर मुसलमान बनाया गया।

सन 1327-28 में नायको द्वारा आंध्र के तटीय प्रदेशों में विद्रोह कर दिया। फल स्वरुप बीदर, गुलबर्गा, दौलताबाद मदुरा में भी विद्रोह प्रारंभ हो गया। इसी दौरान कंपिली में जनता ने सोमदेव राज के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। इसी विद्रोह का दमन करने के लिए मुहम्मद बिन तुगलक ने हरिहर और बुक्का को कंपिली भेजा। यह दोनों भाई विद्रोह का दमन कर पाने में असफल रहे इसी समय इनकी मुलाकात संत विद्यारण्य से हुई, जिन्होंने अपने गुरु श्रृंगेरी के मठाधीश विद्यातीर्थ की अनुमति से इनको पुनः हिंदू धर्म की दीक्षा प्रदान की।

सन 1336 में हरिहर ने हंपी हस्तिनावती राज्य की नींव डाली। इसी वर्ष तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित अनेगोण्डी के सामने विजयनगर (विद्यानगर) शहर की स्थापना की। यही राज्य बाद में विशाल विजयनगर राज्य बना तथा इसकी राजधानी विजयनगर को बनाया गया। विजयनगर साम्राज्य के स्थापना की साहसिक प्रेरणा उसके गुरु विद्यारण्य तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्कार सायण से मिली।

विजयनगर साम्राज्य से संबंधित कुल चार राजवंशों ने शासन किया:-

संगम वंश:- (संस्थापक हरिहर व बुक्का)
सालुव वंश:- (संस्थापक नरसिंह सालुव)
तुलुब वंश:- (संस्थापक वीर नरसिंह)
अरवीडु वंश:- (संस्थापक तिरुमाल या तिरुमल्ल)

संगम वंश (1336-1485 ई.):-

विजयनगर साम्राज्य के चार राजवंशों में संगम वंश पहला वंश था। जिसकी स्थापना हरिहर व बुक्का ने अपने पिता संगम के नाम पर इस वंश का नाम संगम वंश रखा।

विजयनगर साम्राज्य

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संगम वंश के शासक:-

हरिहर प्रथम (1336-1356ई.):-

संगम वंश का प्रथम शासक हरिहर प्रथम था। जिसने दो राजधानियां बनाई,इसकी प्रथम राजधानी तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित अनेगोंण्डी थी। बाद में सुरक्षा कारणों से राजधानी परिवर्तन कर विजयनगर को बनाया गया। हरिहर तथा बुक्का दोनों भाइयों ने मिलकर विजयनगर साम्राज्य का विस्तार उत्तर में कृष्णा नदी से दक्षिण में स्थित कावेरी नदी तक किया। इसके साम्राज्य में बदामी, उदयगिरि, गुट्टी के दुर्ग पर कब्जा किया। तथा होयसल तथा कादम्ब प्रदेश को इसमें शामिल कर लिया।

हरिहर प्रथम के शासन काल में बहमनी तथा विजयनगर राज्यों के मध्य संघर्ष प्रारंभ हुआ। यह संघर्ष लगभग 200 वर्षों तक जारी रहा। हरिहर प्रथम ने अपने राज्य को देश स्थल तथा नांड्डुओ में बांटा। इसकी मृत्यु 1336 ईस्वी में हो गई।

बुक्का प्रथम (1356-77 ई.) तक:-

हरिहर प्रथम की मृत्यु के बाद बुक्का प्रथम सिंहासन पर बैठा। वेद मार्ग प्रतिष्ठापक की उपाधि धारण की और हिंदू धर्म की सुरक्षा का दावा किया। यह एक महान योद्धा, विद्या प्रेमी व राजनीतिक होने के साथ-साथ शासन का केंद्रीयकरण किया। तमिलनाडु के साथ-साथ उसने कृष्णा तुंगभद्रा के दोआब की मांग की जिससे बहमनी और विजयनगर राज्यों में संघर्ष प्रारंभ हो गया। अंततः कृष्णा नदी को बहमनी व विजयनगर की सीमा मान लिया गया।

“मदुरा विजयम” ग्रंथ की रचना “गंगा देवी” ने की गंगा देवी बुक्का प्रथम के पुत्र कंपन की पत्नी थी। इस ग्रंथ में मदुरा विजय का वर्णन किया गया है। इसके शासनकाल में सभी धर्मो को स्वतंत्रता प्राप्त थी। बुक्का प्रथम के काल में वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार,सायणाचार्य दरबार की शोभा में चार चांद लगाते थे। अभिलेखों में बुक्का को “पूर्वी पश्चिमी व दक्षिणी सागरों का स्वामी” कहा गया है। 1377 में इसकी बुक्का प्रथम की मृत्यु हो गई।

हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.):-

बुक्का प्रथम की मृत्यु के बाद हरिहर द्वितीय सिंहासन पर बैठा। इसने राजाधिराज, राजव्यास या राज बाल्मिकी, राज परमेश्वर आदि उपाधियां धारण की। इसने कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, कांची प्रदेश, दभोल का तटीय क्षेत्र मुस्लिम शासको से गोवा जीतकर विजयनगर की सीमा का विस्तार किया। इतिहासकारों का मानना है कि इसने श्रीलंका विजय कर वहां के शासक से कर वसूल किया।

हरिहर द्वितीय विरुपाक्ष का उपासक होने के साथ इसने शैव, वैष्णव व जैनियों को संरक्षण प्रदान किया। सायणायाचार्य एक प्रसिद्ध वेदों के टिकाकार इसके दरबार में मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्त थे। तथा जैन धर्म का अनुयाई ईरूगापा नानार्थ रत्नमाला का लेखक इसका सेनापति था। 1404 में हरिहर द्वितीय की मृत्यु के बाद इसके पुत्रों में संघर्ष हुआ तथा विरुपाक्ष प्रथम और बुक्का द्वितीय ने क्रमशः शासक बने अंततः 1906 में देव राय प्रथम शासक बना।

देव राय प्रथम (1406-22) तक

देव राय प्रथम के शासन संभालते ही बहमनी शासक फिरोजशाह ने विजयनगर पर आक्रमण किया। जिसमें देवराय को पराजय का सामना करना पड़ा और एक संधि के फलस्वरुप देव राय प्रथम को अपनी पुत्री का विवाह फिरोजशाह के साथ तथा बांकापुर दहेज में भेंट करना पड़ा। यह संधि बहुत दिनों तक न टिक सकी तथा 1417 में फिरोजशाह ने देव राय प्रथम पर आक्रमण कर पनागल (नालगोंडा) दुर्ग की लगभग 2 वर्षों तक घेराबंदी की फिरोजशाह की सेना में महामारी फैलने के कारण वापस जाना पड़ा। एक बार फिर 1419 में दोनों में युद्ध हुआ जिसमें फिरोज शाह की पराजय हुई।

देवराय प्रथम के शासनकाल को देखा जाए तो वह एक महान सैनिक, राजनीतिज्ञ तथा निर्माता था। उसने अनेक सिंचाई योजनाएं तथा तुंगभद्रा तथा हरिहर नदी पर बांधों का निर्माण कराया। इसके शासनकाल में इतालवी यात्री निकोलोकान्टी (1420) ने विजयनगर की यात्रा की। इसने अपने यात्रा वृतांत में दीपावली, नवरात्र, बहुविवाह, सतीप्रथा आदि का उल्लेख किया। देवराय के दरबार में हरीविलास ग्रंथ के रचनाकार प्रसिद्ध तेलुगू कवि श्रीनाथ को संरक्षण प्रदान किया। 1422 में देव राय प्रथम की मृत्यु हो गई।

देवराय द्वितीय (1422-46)ई. तक

देवराय प्रथम की मृत्यु के बाद क्रमशः रामचंद्र, विजयप्रथम ने लगभग 6,6 माह शासन किया इसके उपरांत देवराय द्वितीय सिंहासन पर आसीन हुआ। इसने गजवेटकर (हाथियों का शिकारी) इम्मादि, देवराय या प्रौढ़ देवराय आदि उपाधियां धारण की। यह संगम वंश का महानतम शासक माना जाता है। यह एक धर्म सहिष्णु शासक था। सिंहासन पर आसीन होने पर इसने कुरान की प्रति अपने समक्ष रखी तथा मुस्लिम सैनिकों की भर्ती की अपनी सैनिक शक्ति विस्तार करने के लिए इसने 2000 तुर्की धनुर्धरों को अपनी सेवा में भर्ती किया। आंध्रा में कोड़ाबिंदु, वेलम का शासक तथा केरल को अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया तथा अपना साम्राज्य श्रीलंका (सीलोन)तक विस्तृत किया।

इसके शासनकाल में फारस (ईरान) के राजदूत अब्दुल रजाक ने विजयनगर की यात्रा की। जो कि ईरान के शासक मिर्जा शाहरुख का दूत था। लिंगायत धर्म को मानने वाले मंत्री लक्कना या लख्मख को “दक्षिणी सागर का स्वामी” नियुक्त किया। देवराय द्वितीय द्वारा संस्कृत ग्रंथों महानाटक, सुधा नीति एवं वादरायण के ब्रह्मसूत्र पर एक टीका की रचना की। दिनदिमा इसका दरबारी कवि था। इसके संरक्षण में 34 कवि फले-फूले। 1446 में देव राय द्वितीय की मृत्यु हो गई। इसके बाद विजय द्वितीय 1446 ईस्वी में लगभग 1 वर्ष शासन किया तथा बाद में अपने भतीजे मल्लिकार्जुन के लिए सिंहासन का त्याग कर दिया।

मल्लिकार्जुन (1446- 65) ई. तक

मल्लिकार्जुन ने इम्मादि देवराय, प्रौढ़ देवराय तथा गजबेटकर उपाधियां धारण की। गजबेटकर उपाधि इसके पिता देवराय द्वितीय ने भी धारण की थी। अल्पायु में ही इसका राज्यारोहण हुआ उड़ीसा के गजपतियों द्वारा इसके दो किले कोंडवीर, उदयगिरि को छीन लिया गया। इसके शासनकाल में माहुयान नामक चीनी यात्री विजयनगर आया। इसकी मृत्यु सन् 1465 में हुई इसका उत्तराधिकारी विरुपाक्ष द्वितीय बना।

विरुपाक्ष द्वितीय (1465-85)ई. तक

विरुपाक्ष द्वितीय विजयनगर साम्राज्य के संगम वंश का अंतिम शासक था। इसकी हत्या इसके पुत्र प्रौढ़ देवराय ने कर दी। इस घटना को इतिहास में प्रथम बलापहार कहा जाता है। इसके साम्राज्य में अराजकता फैल गई इसी अवसर को देखकर चंद्रगिरि के गवर्नर सालुक नरसिंह ने शासन पर अधिकार कर लिया और सालुव वंश की स्थापना की।

प्रश्न 01- विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कब हुई?

-विजयनगर साम्राज्य की स्थापना सन 1336 ईस्वी में की गई।

प्रश्न 02- विजयनगर साम्राज्य की स्थापना किसने की?

-विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर एवं बुक्का नामक दो भाइयों ने की थी।

प्रश्न 03- विजय नगर की यात्रा करने वाला पहला विदेशी कौन था?

-विजयनगर की यात्रा करने वाला पहला विदेशी यात्री इतालवी यात्री निकोलो कान्टी था। जो देवराय प्रथम के शासनकाल में सन् 1440 ईस्वी में आया था।

प्रश्न 04- विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी?

-विजयनगर की राजधानी विजयनगर (विद्यानगर) थी। समय-समय पर विजयनगर की राजधानी परिवर्तित होती रही यह क्रमशः अनेगोण्डी, विजयनगर, पेनुकोण्डा तथा चंद्रगिरि, हम्पी (हस्तिनावती) विजयनगर की पुरानी राजधानी का प्रतिनिधित्व करता था। विजयनगर का वर्तमान नाम हंपी (हस्तिनावती) है।

प्रश्न 05- विजयनगर का अंतिम शासक कौन था?

-विजयनगर साम्राज्य का अंतिम शासक श्रीरंग तृतीय (अरविडु वंश) था।

प्रश्न 06- विजयनगर किस नदी के किनारे है?

-विजयनगर तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित है।

प्रश्न 07- विजयनगर साम्राज्य से संबंधित वंश हैं?

-संगम वंश (1336-1485 ई.)
-सालुव वंश (1485-1505 ई.)
-तुलुव वंश (1505-1565 ई.)
-अरविडु वंश (1570-1652ई.)

प्रश्न 08- विजयनगर के दो प्रसिद्ध मंदिर कौन से थे?

-विजयनगर के दो प्रसिद्ध मंदिर हजारा राम मंदिर तथा विट्ठल स्वामी मंदिर था।

प्रश्न 09- विजयनगर साम्राज्य की अमर नायक प्रणाली?

-विजयनगर साम्राज्य में सैनिक और असैनिक अधिकारियों को उनकी सेवाओं के बदले जो भूमि प्रदान की जाती थी। उसे अमरम् कहा जाता था। तथा इस अमरम् को प्राप्त करने वालों को अमरनायक कहा जाता था

लघु संविधान किसे कहते है|स्वर्ण सिंह समिति|एस के धर आयोग

प्यारे दोस्तों आज हम इस लेख में संविधान के बारे में महत्वपूर्ण तथ्यों को पढ़ेंगे,जिसमें लघु संविधान किसे कहते हैं, स्वर्ण सिंह समिति, एस के धर आयोग, आदि विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण तथ्यों को वन लाइनर के रूप में पढ़ेगे |

-42 वे  संविधान संशोधन अधिनियम (1976) को “मिनी कॉन्स्टिट्यूशन” कहा जाता है।

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-केशवानंद भारती मामला (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि (अनुच्छेद 368) संविधान संशोधन मूल ढांचे में कोई बदलाव की अनुमति नहीं।

-भारत राज्यों का संघ है।

-मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर कोई व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है।

राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 20-21) में प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है।

-मौलिक कर्तव्यों को स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के द्वारा 42वें संविधान संशोधन 1976 में शामिल किया गया।

-2002 के 86 में संविधान संशोधन के माध्यम से एक नए मौलिक कर्तव्य को जोड़ा गया।
धर्मनिरपेक्ष शब्द 1976 के 42 वे संविधान संशोधन में जोड़ा गया।

-61 में संविधान संशोधन अधिनियम 1988 के तहत वर्ष 1989 में मतदान करने की उम्र 21 वर्ष से घटकर 18 वर्ष कर दी गई।

-भारतीय संविधान में कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना भी करता है जैसे निर्वाचन आयोग (अनुच्छेद 324) नियंत्रण एवं महालेखाकार (अनुच्छेद 148) संघ लोक सेवा आयोग एवं राज्य लोक सेवा आयोग (अनुच्छेद 315)।

-वर्ष 1992 में 73 वे एवं 74 में संविधान संशोधन के तहत तीन स्तरीय स्थानीय सरकार का प्रावधान किया गया जो भारतीय संविधान के अलावा विश्व के किसी भी संविधान में नहीं है।

-73वें संविधान संशोधन 1992 के तहत पंचायत को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई।

-97 वे संविधान संशोधन 2011 के द्वारा सरकारी समितियां को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

-भारतीय संविधान की आलोचना में इसे उधार का संविधान, उधारी की एक बोरी, हांच-पांच  कॉन्स्टिट्यूशन, पैबंध गिरी आदि कहा गया।

-प्रस्तावना को सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान में सम्मिलित किया गया था।

एन ए पालकी वाला ने प्रस्तावना को “संविधान का परिचय पत्र कहा”

-42वे  संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में समाजवादी धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्दों सम्मिलित किए गए।

-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित सामाजिक आर्थिकराजनीतिक न्याय के तत्वों को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है।

-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता क्षमता और बंधुत्व के आदर्शों को फ्रांस की क्रांति (1789- 1799) से लिया गया है।

-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समता के तीन आयाम शामिल है नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक।
बेरुबाडी संघ मामले (1960) में उच्चतम न्यायालय ने कहा की प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।
केशवानंद भारती मामले (1973) में उच्चतम न्यायालय ने पुनः स्पष्ट किया की प्रस्तावना संविधान का आंतरिक हिस्सा है।

-भारत को “विभक्ति राज्यों का अभिभाज्य संघ” कहा गया है।

-अमेरिका को “अविभाज्य राज्यों का अभिभाज्य संघ” कहा गया है।

-संविधान संसद को यह अधिकार प्रदान करता है, कि वह नए राज्य बनाने, नाम परिवर्तन, सीमा परिवर्तन करने में राज्यों की अनुमति की आवश्यकता नहीं है| अर्थात यह साधारण बहुमत और साधारण विधायी प्रक्रिया  के द्वारा पारित किया जा सकता है| अर्थात या प्रक्रिया अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन नहीं माना जाएगा।

-भारतीय क्षेत्र के अन्य देश को देने में अनुच्छेद 368 में संशोधन विशेष बहुमत से संसद द्वारा किया जा सकता है।

-552 देशी रियासतें भारत की सीमा में थी जिनमें 549 रियासतें भारत में शामिल हो गई थी।
हैदराबाद जूनागढ़ और कश्मीर रियासतों ने भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया लेकिन बाद में हैदराबाद को पुलिस कार्रवाई द्वारा जूनागढ़ को जनमत द्वारा कश्मीर को विलय पत्र के द्वारा भारत में शामिल कर लिया गया।

-जून 1948 में एस के धर आयोग का गठन किसने अपनी रिपोर्ट दिसंबर 1948 में पेश की जिसमें राज्यों का पुनर्गठन भाषा ही आधार पर न करके प्रशासनिक सुविधा के अनुसार होना चाहिए।

-धर आयोग की रिपोर्ट को अत्यधिक विद्रोह होने पर दिसंबर 1948 में जवाहरलाल नेहरू वल्लभभाई पटेल पत्ता भी सीता रमैया को शामिल कर जेपी समिति का गठन किया गया किसने अप्रैल 1949 में रिपोर्ट पेश की जिसमें राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हो अस्वीकार कर दिया।

-कांग्रेसी कार्यकर्ता पोट्टी श्री रामलू की 56 दिन की भूख हड़ताल से मृत्यु होने पर अक्टूबर 1953 में मद्रास से तेलुगु भाषा क्षेत्र से आंध्र प्रदेश का गठन किया गया।

-दिसंबर 1953 में फजल अली की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया गया इसके अन्य दो सदस्य के.ऍम.पणिक्कर और एच एन कुंजूरू थे | 1955 में अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें राज्यों के पुनर्गठन में को मुख्य आधार बनाया जाना चाहिए लेकिन इसने “एक राज्य एक भाषा” के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया।

-वर्ष 1960 में मुंबई को बांटकर  महाराष्ट्र और गुजरात दो नए राज्य बने अर्थात गुजरात भारतीय संघ का 15 वां राज्य बना।

दसवीं संविधान संशोधन अधिनियम 1961 द्वारा दादरा एवं नगर हवेली को संघ शासित क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया गया।

-भारत में पुडुचेरी, कराईकाल, माहे यनम 14 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1962 में संघ शासित प्रदेश बनाया गया।

-1963 में नागालैंड 16वां राज्य बना।

-1966 में हरियाणा 17वां राज्य व चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश का गठन किया गया।

-1971 में हिमाचल प्रदेश 18 राज्य बना पहले केंद्र शासित राज्य था। पूर्ण राज्य बना।

भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं|जलोढ़,लैटराइट,लाल,काली,मरुस्थलीय मिट्टियां

भारतीय मृदा के प्रकार

हेलो दोस्तों आज हम लोग इस लेख में भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं (Indian soil types and characteristics) पढ़ेगे और विश्लेषण करेंगे| कृषि प्रधान हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों में मृदा एक बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन है। पौधों के विकास में सहायक महीन कण युक्त और ह्ममस वाले मेंटल के ऊपरी परत के भुरभुरे पदार्थ को मृदा कहते हैं।

मृदा शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द सोलन से हुई मानी जाती है। जिसका अर्थ फर्श होता है। प्राकृतिक रूप से मौजूद मृदा पर कई कारकों का प्रभाव होता है। जैसे मूल पदार्थ, धरातलीय दशा, वनस्पति प्राकृतिक जलवायु, समय, उच्चावच, आदि। समय-समय पर शोधकर्ताओं ने मिट्टी के प्रकारों का विभाजन किया है। लेकिन वर्तमान समय में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भारतीय मृदा को 10 रूपों में वर्गीकृत किया है।

भारतीय मृदा के प्रकार

भारतीय मृदा के प्रकार और विशेषताएं:-

जलोढ़ मृदा या कछार मिट्टी(Alluvial soil):-

भारतीय मृदा के प्रकार में जलोढ़ मृदा मुख्यतः गंगा सतलज ब्रह्मपुत्र के मैदाने में पाई जाती है इसका क्षेत्रफल लगभग 43.4% है। जो भारत में पाई जाने वाली अन्य मृदाओं में सबसे अधिक है। इसका विस्तार लगभग 142.50 मिलियन वर्ग किलोमीटर में है। यह नर्मदा तथा तापी नदी घाटियों पश्चिमी तथा पूर्वी घाटों तथा गिरीपाद मैदानो में पाई जाती है। इसका रंग हल्के भूरे रंग का होता है। यह बलुआ व से मिश्रित होती है। इसको दो प्रकार में बांटा जा सकता है।

भारतीय मृदा के प्रकार

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बांगर/ भांगर मृदा:-

इस प्रकार की मृदा का रंग काला या बुरा होता है। इसमें अशुद्ध कैल्शियम कार्बोनेट व कंकर होते हैं। इस मिट्टी का विस्तार नदियों के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में होता है। जिससे प्रत्येक वर्ष यहां की परत नई मिट्टी द्वारा निर्मित होती है। इस प्रकार की मृदा में ह्यूमस, चूना, फास्फोरिक अम्ल तथा जैविक पदार्थ की अधिकता होती है। लेकिन पोटाश कम मात्रा में उपलब्ध होता है। इस मृदा में गेहूं, चावल, मक्का, चारा, तिलहन सब्जियां आदि की पैदावार अच्छी होती है।

खादर:-

यह मृदा बांगर मृदा से लगभग 30 मीटर नीचे गहराई में मिलती है। वर्षा काल में नदियों में बाढ़ आने के कारण इसकी ऊपरी परत नई बन जा बनी रहती है जिससे बाहर द्वारा लाई गई मिट्टी से इसकी उर्वरा शक्ति बनी रहती है। इस मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण पाए जाने के कारण इसे स्थानीय भाषाओं में रेह( Reh) कल्लर(kallar) या धुर(thus) कहा जाता है।

लाल मृदा (Red soil):-

लाल मृदा बालू, चिकनी तथा दोमट मिट्टी का मिश्रण है। यह भारत के लगभग 18.6 % भाग (61 मिलियन हेक्टेयर) पर विस्तृत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारतीय मृदा के प्रकार में पाई जाने वाली मृदाओं में दूसरे स्थान पर है। यह मुख्यतः प्रायद्वीपीय क्षेत्र तमिलनाडु, बुंदेलखंड, राजस्थान, काठियावाड़, कच्छ (गुजरात) कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड, मिर्जापुर, सोनभद्र आदि स्थानों में पाई जाती है।

इस मृदा का रंग लाल होता है। जो फेरिक ऑक्साइड के कारण होता है। इस मृदा की ऊपरी परत लाल तथा इसकी निकली परत में पीले रंग का अवक्षेप होता है। यह मिट्टी अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है। इसमें कंकड़ और कार्बोनेट तथा कुछ मात्रा में लवण होते हैं। चूने, फास्फेट, मैग्नीशिया, नाइट्रोजन, ह्यूमस एवं पोटाश आदि अल्प मात्रा में पाए जाते हैं। परंतु निम्न मैदानी भागों में यह मृदा उर्वर, दोमट होती है। तथा इसका रंग गाढ़ा होता है। इस मृदा में मुख्यतः गेहूं, कपास, दलहनों, तंबाकू मिलेट, तिलहनों, आलू एवं फलों की खेती की जाती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

काली मृदा(Black soil):-

क्षेत्रफल की दृष्टि से यह मिट्टी भारत में तीसरे नंबर पर आती है। इसको रेंगुर मिट्टी, कपासी मिट्टी तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चेर्नोजेम आदि नाम से जाना जाता है। इस मृदा का विस्तार भारत में लगभग 50 मिलियन हेक्टेयर में है। जो सभी प्रकार की मृदाओं का लगभग 15% है। इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी लावा के अपरदन के द्वारा हुआ है। जो मुख्यत क्रिटेसस युगीन अपक्षयित लावा रहा होगा। मैग्नेटाइट, एल्युमिनियम सिलीकेट, लोहा, ह्यूमस आदि की उपस्थिति के कारण इसका रंग काला हो जाता है।

यह मृदा गीली होने पर चिपकने वाली हो जाती है। तथा सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसलिए इस मिट्टी को स्वतः कृष्य मिट्टी भी कहा जाता है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस और जैविक पदार्थों की कमी पाई जाती है। गीली होने पर इसमें जुताई करना अत्यधिक कठिन हो जाता है। यह मृदा काफी उर्वर होती है। जिसमें कपास, दलहनों, मिलेट, अलसी अरंडी, तंबाकू, गन्ना, सब्जियां, नींबू आदि की खेती के लिए उपयुक्त है। यह मिट्टी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में विस्तृत है।

भारतीय मृदा के प्रकार

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मरुस्थलीय मृदा(Desert soil):-

इस प्रकार की मृदा देश की मृदा का लगभग 4% है। जिसका क्षेत्रफल लगभग 15 मिलियन हेक्टेयर है। यह मृदा मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, दक्षिणी हरियाणा, अरावली पर्वत के निकटवर्ती क्षेत्र में पाई जाती है।

मरुस्थलीय मृदा में जैविक पदार्थ की कमी और नाइट्रोजन एवं कैल्शियम कार्बोनेट की विधि प्रतिशतता पाई जाती है। इस प्रकार की मिट्टी में आद्रता और नमी को धारण करने की क्षमता कम होती है। इस मिट्टी में घुलनशील लवणों की मात्रा अधिक होती है। इंदिरा नहर से प्राप्त जल द्वारा पश्चिमी राजस्थान की मिट्टियों का कायापलट हुआ है। इस प्रकार की मिट्टी में मुख्ता बाजरा, ग्वार, दलहनों, चारे आदि फसलों की खेती की जाती है। इन फसलों में पानी की न्यून आवश्यकता होती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

लैटराइट मिट्टी(Laterite soil):- 

लैटराइट मिट्टी का नामकरण लैटिन भाषा के शब्द लैटर से हुआ है। जिसका अर्थ ईट होता है। यह मिट्टी भीगी हुई स्थिति में काफी मुलायम होती है लेकिन सूखने पर यह इतनी कड़ी हो जाती है कि ईट के समान हो जाती है। इस प्रकार की मिट्टी मानसूनी जलवायु तथा मौसमी वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाती है। इन मृदाओं का निर्माण आर्द्र एवं शुष्क ऋतुओं की बारंबारता से सिलिकामय पदार्थों के निक्षालन के परिणाम स्वरुप हुआ है। इस प्रकार की मिट्टी में ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण इसका रंग लाल होता है। इस मिट्टी का विकास मुख्यतः पठार के उच्च भागों में हुआ है।

इस मिट्टी का विस्तार भारत में लगभग 12.2 मिलियन हेक्टेयर है। यह भारत की समस्त मृदाओं की 3.7 प्रतिशत है। इस प्रकार की मृदा मुख्यतः पश्चिमी घाट की पहाड़ियों, राजमहल की पहाड़ियों, पूर्वी घाट, सतपुड़ा, विंध्य, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम की उत्तरी पहाड़ियों, मेघालय की गारो पहाड़ियों में पाई जाती है। इस मृदा में लोहे और एल्युमिनियम की प्रचुरता होती है, वहीं इसमें नाइट्रोजन, पोटेशियम, पोटाश, चूना और जैविक पदार्थों की न्यूनता होती है। हालांकि उनकी उर्वरकता निम्न होती है। इनमें चावल, रागी गन्ने और काजू की खेती होती है।

भारतीय मृदा के प्रकार

पर्वतीय मृदा(Mauntein soil):-

इस प्रकार की मृदा हिमालय की घाटियों में ढलानों पर लगभग 2700 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर पाई जाती है। भारत के लगभग 18.2 मिलियन हेक्टर क्षेत्रफल में फैली है। समस्त मृदा में इसका लगभग 5.5% भाग है यह मिट्टी अप्रौढ़ है तथा इनका क्रमबद्ध अध्ययन अभी बाकी है। इस प्रकार की मृदा का रंग भूरा होता है।

यह मिट्टी दार्जिलिंग, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, लद्दाख आदि क्षेत्रों में पाई जाती है। यहां देवदार, नीले चीड़ के वृक्ष अधिकता में पाए जाते हैं। इस मिट्टी का चरित्र अम्लीय होता है इसमें ह्यूमस की निम्नता पाई जाती है। इन मृदाओं में चावल, मक्का, फलों एवं चारे की खेती की जाती है। वनाच्छादन के कारण ढाल एवं वर्षा की मात्रा के आधार पर उच्च स्थानीय मृदाओं को भूरी एवं लाल मृदा कहा जाता है।

भारतीय मृदा के प्रकार

उपरोक्त भारतीय मृदा के प्रकार में जलोढ़, लैटराइट, काली, लाल, मरुस्थलीय, पर्वतीय मिट्टी आदि का अध्ययन में प्रकार और विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्त की गई।

ज्वालामुखी किसे कहते है |प्रकार |सक्रिय,शांत,मृत,शील्ड ज्वालमुखी|ज्वालामुखी के अंग

ज्वालामुखी किसे कहते है

 

दोस्तों आज हम लोग इस लेख में ज्वालामुखी के बारे में अध्ययन करेंगे जिसमें ज्वालामुखी किसे कहते हैं। ज्वालामुखी की परिभाषा, ज्वालामुखी के प्रकार, ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ, लावा मैग्मा में अंतर, शांत, सक्रिय, मृत, शील्ड ज्वालामुखी। ज्वालामुखी कैसे फटता है, ज्वालामुखी के अंग, ज्वालामुखी का विश्व वितरण, विश्व के प्रमुख ज्वालामुखी, भारत के प्रमुख ज्वालामुखी, ज्वालामुखी शंकु की आकृति के बारे में विस्तृत अध्ययन करेंगे।

      ज्वालामुखी किसे कहते है      

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ज्वालामुखी(VALCANO)

ज्वालामुखी पृथ्वी पर एक विवर या छिद्र (opening)अथवा दरार (Repture) है जिसका संबंध पृथ्वी के आंतरिक भाग से पिघला पदार्थ लावा ,राख, गैस व जलवाष्प का उद्गार होता है। ज्वालामुखी क्रिया में पृथ्वी के अंदर से निकले मैग्मा जो कि पृथ्वी के अंदर विभिन्न रूपों में ठंडा हो जाता है। तथा कभी-कभी धरातल पर भी आ जाता है, और ठंडा होकर यह एक रूप धारण कर लेता है।

ज्वालामुखी क्रिया दो रूपों में संपन्न होती है 1

भूगर्भ में /धरातल के नीचे:-

जब ज्वालामुखी का मैग्मा पृथ्वी से बाहर नहीं निकल पाता है। तो वह पृथ्वी के आंतरिक भाग में ही ठंडा होकर जम जाता है इसके फलस्वरुप पृथ्वी के आंतरिक भाग में विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। जो निम्नलिखित है:-

बैथोलिथ(Batholith):-

चट्टानों में जब मैग्मा गुंबदनुमा आकार में जम जाता है। जो कि ठंडा होने की मंदगति होने के कारण बड़े-बड़े रवों के आकार में प्रदर्शित होता है। इस प्रकार से निर्मित चट्टानें ग्रेनाइट प्रकार की होती हैं। इस प्रकार की चट्टानें अपेक्षाकृत अधिक गहराई में निर्मित होती हैं। जब यही मैग्मा अवसादी चट्टानों में अपेक्षाकृत कम गहराई में ठंडा होता है, तो इससे कई प्रकार की स्थलाकृतियां का निर्माण होता है:-

लैकोलिथ(Laccolith):-

जब मैग्मा पृथ्वी के अंदर उत्तल ढ़ाल के आकार में जम जाता है जिसके फल स्वरुप जो आकृति बनती है। उसे लैकोलिथ कहा जाता

लैपोलिथ(Lapolith):-

जब लावा का जमाव अवतल बेसिन के आकार में होता है जिसके फल स्वरुप जो आकृति का निर्माण होता है। उसे लोपोलिथ कहा जाता है।

फैकोलिथ(Phacolith):-

जब लावा का जमाव मोड़दार पर्वतों के अभिनतियो व अपनतियों में अभ्यांतरिक होता है। जिसके कारण बनने वाली आकृति को फैकोलिथ कहा जाता है।

सिल(Sill):-

जब लावा का जमाव क्षैतिज रूप में होता है। तो जो आकृति बनती है उसे सील कहते हैं इसी सिल की पतली परत को शीट कहा जाता है।

डायक(Dayke):-

जब लावा का जमाव लंबवत रूप में होता है। तो जो आकृति बनती है उसे डायक कहते हैं। और डायक के छोटे-छोटे रूप को स्टॉक कहा जाता है।

धरातल के ऊपर:-

इसके अंतर्गत ज्वालामुखी धरातलीय प्रवाह, गर्म जल के स्रोत, गेंसर, धुआंरे आदि आते है।
जब ज्वालामुखी में विस्फोट होता है। और लावा धरातल के ऊपर निकलता है। जिसके फलस्वरुप विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। और इन्हीं आकृतियों के बाहरी भाग पर शंकु का निर्माण होता है। इन्हीं शंकु में ऊपर क्रेटर और काल्डेरा आकृतियों का निर्माण होता है। ज्वालामुखी से निकलने वाले लावा की घटती तीव्रता के आधार पर ज्वालामुखी शंकुओ को निम्नलिखित प्रकारों में बांटा जाता है:-
पीलियन तुल्य
वल्कैनो तुल्य
स्ट्रांबोली तुल्य
हवाईयन तुल्य

पिलियन तुल्य:-

पिलियन तुल्य ज्वालामुखी सबसे विनाशकारी होते हैं। क्योंकि मैग्मा में सिलिका की अधिक मात्रा होने के कारण मैग्मा अत्यधिक अम्लीय और चिपचिपा हो जाता है। जो कि विस्फोट के बाद शंकु पर कठोरता से जम जाता है। इसी कारण अगला विस्फोट इसी जमे लावा को तोड़ते हुए बाहर निकालने के कारण विनाशकारी विस्फोट में तब्दील हो जाता है। जैसे-
पीली (PELEE)ज्वालामुखी………मार्टीनिक द्वीप
क्राकाटाओ -……………………जावा सुमात्रा
माउंट ताल-……………………..फिलिपींस

वल्केनो तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी अपेक्षाकृत कम विनाशकारी होते हैं। क्योंकि इसमें अम्लीय क्षारीय दोनों प्रकार का मैग्मा निकलता है। इसके साथ-साथ अत्यधिक मात्रा में गैस का उद्धार होता है। जिससे दूर-दूर तक ज्वालामुखी मेंघो का निर्माण होता है। इसकी संरचना फूल गोभी के आकार में प्रदर्शित होती है।

स्ट्राम्बोली तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी के लावा में अम्ल की मात्रा कम होती है। जिससे लावा में कठोरता या चिपचिपापन नहीं होता है। यदि इससे उत्सर्जित गैसों के मार्ग में कोई रुकावट ना हो तो इसमें विस्फोट की संभावना न के बराबर होती है।

हवाई तुल्य:-

इस प्रकार के ज्वालामुखी का मैग्मा क्षारीय व तरल होता है। तरल होने के कारण मैग्मा दूर-दूर तक फैल जाता है। जिससे शंकु की ऊंचाई कम रहती है। और शंकु की चौड़ाई अधिक होती है। फलस्वरुप इस प्रकार के ज्वालामुखी का उद्गार अत्यंत शांत होता है।

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ज्वालामुखी के प्रकार:-

ज्वालामुखियों को निम्नलिखित आधारों पर बनता जा सकता है।

सक्रियता के आधार पर:-
1- सक्रिय ज्वालामुखी(Active Valcano):-

इस प्रकार के ज्वालामुखी से सदैव लावा, धूल, धुआं, वाष्प, राख व गैसों का उद्धार होता रहता है। वर्तमान में संपूर्ण पृथ्वी पर इस प्रकार के ज्वालामुखियों की संख्या 500 से अधिक है। भारत का एकमात्र ज्वालामुखी जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह के बैरन द्वीप में स्थित है। सक्रिय ज्वालामुखी की श्रेणी में आता है।

ज्वालामुखी किसे कहते है
विश्व के प्रमुख सक्रिय ज्वालामुखी:-

स्ट्रांबोली (भूमध्य सागर का प्रकाश स्तंभ)-…………………लिपारी द्वीप सिसली।
एटना-……………………………………. …………इटली
कोटोपैक्सी (विश्व का सबसे ऊंचा सक्रिय ज्वालामुखी)… ………इक्वाडोर
माउंट एर्बुश (अंटार्कटिका का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी)- …….अंटार्कटिक
बैरन द्वीप (भारत का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी)- ……………अंडमान निकोबार भारत
कियालू -……………………………………………….हवाई द्वीप (USA)
लांगिला एवं बागाना – ……………………पापुआ न्यू गिनी समेरू- जावा इंडोनेशिया
मेरापी (सर्वाधिक सक्रिय)- ………………..इंडोनेशिया दुकोनो- इंडोनेशिया
यासुर -…………………………………तान्ना द्वीप (वनुआतू)
मौनोलोवा -……………………………..हवाई द्वीप (USA)
ओजल डेल सालाडो- ……………………..अर्जेंटीना 

2- प्रसुप्त ज्वालामुखी (Dormant valcano)

जिन ज्वालामुखियों में वर्षों से विस्फोट या लावा उद्गार नहीं हुआ है। परंतु इस प्रकार की ज्वालामुखी में भविष्य में कभी भी उद्गार होने की संभावना बनी है। प्रसुप्त ज्वालामुखी कहते हैं। जैसे:-
विसुवियस-………………………………. इटली
फ्यूजीयामा- ……………………………….जापान
क्राकाटाओ-………………………………..इंडोनेशिया
नारकोंडम द्वीप में- …………………………..अंडमान निकोबार (भारत)

ज्वालामुखी किसे कहते है
3-शांत ज्वालामुखी(Extinet Volcano):-

इस प्रकार के ज्वालामुखी में अतीत में कभी उद्गार नहीं हुआ है। और न भविष्य में उद्गार होने की संभावना है।
कोह सुल्तान -……………. ईरान
देवबंद – ………………….ईरान
किलिमंजारो- ……………..तांजानिया
पोपा-…………………… म्यांमार
एकांक गुआ -……………. इंडीज पर्वत श्रेणी
चिंम्बराजो- ……………….इक्वाडोर
केनिया – …………………अफ्रीका

ज्वालामुखी किसे कहते है
उद्गार के आधार पर:-

उद्गार के आधार पर ज्वालामुखियों को दो भागों में बांटा जा सकता है।

केंद्रीय उद्भेदन:-

इस प्रकार का उद्भेदन विनाशात्मक प्लेटों के किनारो के सहारे होता है। और एक केंद्रीय मुख के द्वारा भयंकर विस्फोट के साथ लावा का उद्भेदन होता है।
पीली ज्वालामुखी-…………………….. पश्चिमी द्वीप
क्राकाटोवा ज्वालामुखी -………………….सुण्डा (जावा सुमात्रा )
माउंट ताल- ……………………………फिलीपाइन

दरारी उद्भेदन:-

इस प्रकार का उद्भेदन रचनात्मक प्लेटों के किनारों से होता है। भूगार्भिक हलचलों के कारण भूपर्पटी की शैलों में दरारें बन जाती हैं। इन्हीं दरारों से लावा प्रवाहित होकर धरातल पर प्रवाहित होकर निकलता है। इसी निकले लावा के कारण पठारों का निर्माण हुआ है।

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 ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ:-

ज्वालामुखी से उद्गमित होने वाले पदार्थों को तीन भागों में बांटा जा सकता है:-

गैस तथा जलवाष्प:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय सबसे पहले गैसे और जलवाष्प बाहर आता है। निकलने वाले पदार्थ में सबसे अधिक जलवाष्प लगभग 60 से 90% होती है। इसके साथ-साथ कार्बन डाइऑक्साइड नाइट्रोजन तथा सल्फर डाइऑक्साइड निकलने वाली प्रमुख गैसें हैं।

विखंडित पदार्थ:-

टफ:-

यह मूलतः धूल और राख से निर्मित चट्टानों के टुकड़े होते हैं।

प्यूमिस:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले छोटे-छोटे चट्टानी टुकड़े जिनका घनत्व बहुत कम होता है। इसलिए यह पानी पर तैरते रहते हैं प्यूमिस कहलाते हैं।

लैपिली:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले मटर /अखरोट के समान आकार वाले टुकड़ों को लैपिली कहते हैं।

बाम्ब:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ में छोटे-बड़े चट्टानी टुकड़ों को बाम्म कहते हैं। जिनका व्यास कुछ सेंटीमीटर से लेकर फीट तक होता है।

ब्रेसिया:-

ज्वालामुखी से निकलने वाले नुकीले अपेक्षाकृत बड़े आकार के चट्टानी टुकड़ों को ब्रेसिया कहा जाता है।

लावा:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय निकालने वाला चिपचिपा द्रव पदार्थ लव कहलाता है।
अम्ल की अधिकता के कारण लावा का रंग पीला हल्का गाढ़ा होता है।
क्षार की अधिकता के कारण लावा का रंग गहरा काला, भारी तथा द्रव के समान होता है।

पायरोक्लास्ट:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय सर्वप्रथम भूपटल पर चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़े बाहर निकलते हैं। इन्हीं टुकड़ों को पायरोक्लास्ट कहते हैं। इनके पहले निकलने के कारण ज्वालामुखी पर्वतों की निचली परत में पायरोक्लास्ट पाए जाते हैं।

लावा तथा मैग्मा में अंतर:-

ज्वालामुखी विस्फोट के समय निकलने वाला द्रव पदार्थ जब तक पृथ्वी के आंतरिक भाग अर्थात भूगर्भ में रहता है। तब तक उसे मैग्मा कहा जाता है। जब यही मैग्मा पृथ्वी की सतह पर आ जाता है। तो इसे लावा कहा जाता है।

ज्वालामुखी के अंग:-

ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाला लावा विस्फोटित स्थान के आसपास जमा होने लगता है। जिसके परिणाम स्वरुप एक शंकु नुमा आकृति का निर्माण होता है। उसे ज्वालामुखी शंकु कहते हैं। ज्वालामुखी शंकु के आसपास लावा अधिक मात्रा में एकत्रित होने पर पर्वत का रूप धारण कर लेता है। तब इसे ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। इन पर्वतों के ऊपर बीचो-बीच में गर्तनुमा आकृति का निर्माण होता है। उसे ज्वालामुखी छिद्र कहते हैं। इस ज्वालामुखी छिद्र से नली के रूप में भूगर्भ से संपर्क होने वाली आकृति को ज्वालामुखी नली कहते हैं।

ज्वालामुखी किसे कहते है
                        क्रेटर:-

ज्वालामुखी शंकु के ऊपर कीपनुमा रचना को क्रेटर कहते हैं। जब इस क्रेटर में पानी भर जाता है। तो इसे क्रेटर झील कहा जाता है। लोनार झील जो महाराष्ट्र (भारत) में स्थित है। क्रेटर झील का उदाहरण है।
जब ज्वालामुखी में पूर्व में हुए उद्गार से अगला उद्गार कम तीव्रता का होता है। तो मुख्य क्रेटर के ऊपर छोटे-छोटे क्रिएटरों का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार की रचना को घोषलाकार क्रेटर कहते हैं। माउंट ताल फिलिपींस इसका उदाहरण है।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना|सियाल(SiAl)|सीमा(SiMa)|निफे(NiFe)|

 

दोस्तों आज हम लोग इस आर्टिकल में सौरमंडल का अकेला ग्रह जिस पर जीवन है। अर्थात आज हम लोग पृथ्वी की आंतरिक संरचना को अप्राकृतिक साधन घनत्व, दबाव ,तापमान तथा पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांतों के साथ और प्राकृतिक साधनों में ज्वालामुखी क्रिया, भूकंप विज्ञान के साथ और पृथ्वी की विभिन्न परतो के संगठन के आधार पर सियाल(SiAl), सीमा(SiMa), निफे(NiFe) के बारे में विस्तृत चर्चा करके पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में जानने की कोशिश करेंगे।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना

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पृथ्वी की आंतरिक संरचना/नीला ग्रह (जल की अधिकता के कारण )

A-अप्राकृतिक साधन (artificial sources):-
1-घनत्व:-

घनत्व के आधार पर यदि पृथ्वी की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया जाए। तो सबसे आंतरिक भाग का घनत्व लगभग 11 से 13.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है तथा मध्य परत का घनत्व लगभग 5.0 और बाहरी परत अर्थात भू-पर्पटी का घनत्व लगभग 3.0 है। उपरोक्त के क्रम में यदि पृथ्वी का औसत घनत्व देखा जाए तो 5.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है अर्थात पृथ्वी की आंतरिक संरचना में घनत्व के आधार पर कई परते निर्मित है। इन परतों में आंतरिक परत अर्थात क्रोड का घनत्व सबसे अधिक है ।

2-दबाव:-

पृथ्वी के आंतरिक भाग अर्थात क्रोड के अधिक घनत्व के बारे में चट्टानों के दबाव व भार के संदर्भ में समझा जा सकता है। कि दबाव बढ़ने से घनत्व बढ़ता है। लेकिन प्रत्येक चट्टान की अपनी एक सीमा होती है। जिससे अधिक उसका घनत्व नहीं हो सकता है। चाहे दवाब कितना ही क्यों न डाल दिया जाए। यद्यपि प्रयोगों से सिद्ध होता है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग के दबाव के कारण न होकर वहां पाये जाने वाले पदार्थों के अधिक घनत्व के कारण है।

3-तापमान:-

पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी उसके तापमान से भी लगाई जा सकती है सामान्य रूप से यदि पृथ्वी के अंदर 8 किलोमीटर तक गहराई में जाने पर पृथ्वी के तापमान में प्रति 32 मीटर में 1 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बढ़ जाता है। लेकिन इससे और अधिक गहराई में जाने पर तापमान में वृद्धि दर कम हो जाती है। और यह पहले 100 किलोमीटर की गहराई तक प्रत्येक किलोमीटर पर 12 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि होती है। इस गहराई के उपरांत लगभग 300 किलोमीटर की गहराई तक जाने पर 1 किलोमीटर पर 2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि होती है और इस गहराई के बाद में प्रत्येक किलोमीटर की गहराई में 1 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि होती है। पृथ्वी के आंतरिक भाग से ऊष्मा का प्रवाह बाहर की ओर होता है। जो तापीय संवहन तरंगों के रूप में प्रकट होता है। यह तरंगे रेडियो सक्रिय पदार्थ तथा गुरुत्व बल के तापीय ऊर्जा में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती हैं। प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के आने के बाद यह और भी स्पष्ट हो गया है कि तापीय संवहन तरंगों के रूप में होता है।

पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांतों के द्वारा आंतरिक संरचना का अध्ययन

टी.सी. चैंम्बरलिन के द्वारा दिए गए ग्रहाणु संकल्पना अनुसार पृथ्वी का निर्माण ठोस अणुओ के एकत्रीकरण से हुआ है। इसके कारण इसका मध्य भाग ठोस होना चाहिए।
ज्वारीय संकल्पना जो कि जेम्स जीन द्वारा दी गई है इसके द्वारा पृथ्वी का जन्म सूर्य द्वारा उत्पादित ज्वारीय पदार्थ के ठोस होने से हुई है। अतः इनका मानना है कि पृथ्वी का केंद्र द्रव अवस्था में होना चाहिए। लाप्लास के निहारिका सिद्धांत के द्वारा पृथ्वी की आंतरिक संरचना गैसीय अवस्था में होनी चाहिए। अतः उक्त विचारधाराओं के अध्ययन से पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं बन सकी है।

B-प्राकृतिक साधन(Natural sourses):-

A-ज्वालामुखी क्रिया:-

ज्वालामुखी में विस्फोट होता है। तो उसमें से जो तरल मैग्मा निकलता है। उसके आधार पर स्पष्ट होता है। कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में कोई न कोई ऐसी परत उपस्थित है। जिसकी अवस्था तरल या अर्ध्दतरल है। किंतु यह भी स्पष्ट है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में अत्यधिक दबाव चट्टानों को पिघली अवस्था में नहीं रहने देगा । इन तत्वों के आधार पर भी यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि पृथ्वी की आंतरिक बनावट क्या है ।

B-भूकंप विज्ञान के साक्ष्य:-

भूकंप विज्ञान में भूकंप के समय उत्पन्न होने वाली भूकंपीय लहरों का अंकन सिस्मोग्राफ (sesmograph) नामक यंत्र पर किया जाता है । इसके अध्ययन से पृथ्वी के अंदर लहरों के विचलन के आधार पर इसका अध्ययन करना संभव हो सका है । सिस्मोग्राफ एक प्रत्यक्ष साधन है जिसके द्वारा पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध हो सकी है ।

पृथ्वी का रासायनिक संगठन एवं विभिन्न परतें:-

International union of geodesy and geophysics (IUGG) के द्वारा किए गए शोध के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है जो निम्न लिखित है-

1-भू-पर्पटी (Crust):-

भूपर्पटी पृथ्वी का सबसे ऊपरी भाग होता है तथा इसकी मोटाई महाद्वीपों और महासागरों में अलग-अलग होती है। I.U.G.G. के अनुसार – महासागरों के नीचे इसकी जो औसत मोटाई लगभग 5 किलोमीटर होती है। जबकि महाद्वीपों के नीचे या लगभग 30 किलोमीटर तक होती है।
I.U.G.G. के अनुसार पी लहरों की गति और क्रस्ट के औसत घनत्व के आधार पर भू-पर्पटी को ऊपरी क्रस्ट तथा निचली क्रस्ट में बांटा जा सकता है।

ऊपरी क्रस्ट

ऊपरी क्रस्ट में “P” लहरों की गति 6.1 किमी प्रति सेकंड तथा इसका औसत घनत्व 2.8 है।

निकली क्रस्ट

निकली क्रस्ट में “P” लहरों की गति 6.9 किलोमीटर प्रति सेकंड तथा इसका घनत्व 3.0 है।

ऊपरी क्रस्ट व निकली क्रस्ट में जो घनत्व का अंतर है वह यहां उपस्थित दबाव के कारण है अतः ऊपरी एवं निकली क्रस्ट के बीच घनत्व संबंधी एक असंबद्धता का निर्माण होता है। जिसकी खोज कोरनाड ने की थी। इसलिए यह असंबद्धता कोनराड असंबद्धता कहलाती है। इस क्रस्ट का निर्माण सिलिका (Silica-Si )और एल्यूमीनियम (Aluminum -Al) से हुआ है इसलिए इसे “सियाल परत” भी कहते हैं ।
सियाल परत का निर्माण ग्रेनाइट चट्टानों द्वारा हुआ है जो कि परतदार शैलों के नीचे पाई जाती है ।

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2- मैंटल (Mantle):-

भू पर्पटी के बाद जब भूकंपीय लहरें मैंटल में पहुंचती हैं। तो इसमें प्रवेश करने से पहले भूकंपीय लहरों की गति में अचानक वृद्धि हो जाती है। और ये लहरें 7.9 किलोमीटर प्रति सेकंड से बढ़कर 8.1 किलोमीटर प्रति सेकंड तक हो जाती है। इस तरह निचली क्रस्ट तथा ऊपरी मेंटल के बीच में एक असंबद्धता का निर्माण होता है। जो कि चट्टानों के घनत्व में परिवर्तन को दर्शाती है। इस इस असंबद्धता की खोज ए.मोहोरोविकिक द्वारा की गई थी । इसलिए इस असंबद्धता को मोहो असंबद्धता कहते हैं। मोहो असंबद्धता से लगभग 2900 किलोमीटर की गहराई तक मेंटल का विस्तार है। और इस मेंटल का आयतन पृथ्वी के कुल आयतन का लगभग 83% और द्रव्यमान लगभग 68% है। मेंटल का निर्माण प्रमुखतः सिलिका(Silica-Si और मैग्नीशियम magnisium-Ma) से हुआ है। अतः से हम SiMa (सीमा)परत भी कहा जाता है। आई. यू. जी. जी.(IUGG) ने मेंटल को भूकंपीय लहरों की गति के आधार पर तीन भागों में बांटा है।

1- मोहो असंबद्धता से 200 किलोमीटर की गहराई तक का भाग।
2- 200 से 700 किलोमीटर ।
3- 700 से 2900 किलोमीटर ।

मेंटल की ऊपरी परत लगभग 100 से 200 किलोमीटर की गहराई तक भूकंपीय लहरों की गति धीमी पड़ जाती है। यह लगभग 7.8 किलोमीटर प्रति सेकंड रह जाती है इस भाग को निम्न गति का मंडल भी कहते हैं ऊपरी मैंटल और निचली मैंटल के बीच घनत्व संबंधी इस असंबद्धता को रेपिटी असंबद्धता कहते हैं।

3-क्रोड़(core):-

पृथ्वी की इस परत का विस्तार 2900 किलोमीटर से 6371 किलोमीटर तक है। अर्थात इसका पृथ्वी के केंद्र तक विस्तारित है। निचले मैंटल के आधार पर P तरंगो की गति में जो अचानक वृद्धि होती है। और यह लगभग 13.6 किलोमीटर प्रति सेकंड हो जाती है। P तरंगो की गति में अचानक से जो वृद्धि होती है, वह चट्टानों के घनत्व में परिवर्तन को दर्शाती है जिससे यहां पर एक असंबद्धता उत्पन्न होती है। इसे गुटेनबर्ग- विशार्ट असंबद्धता कहते हैं। गुटेनबर्ग असंबद्धता से लेकर पृथ्वी के केंद्र तक के भाग को दो भागों में विभाजित किया गया है:-

1-बाह्य क्रोड़़ (outer core) (2900-5150 कि.मी.)
2-आंतरिक क्रोड़ (inner core) (5150-6371 कि.मी.)

बाह्य क्रोड़ का विस्तार 2900 किलोमीटर से 5150 किलोमीटर की गहराई तक विस्तारित है इस मंडल में भूकंपीय S लहरें प्रवेश नहीं कर पाती है। आंतरिक भाग में जहां घनत्व सर्वाधिक है तुलना की दृष्टि से अधिक तरल होने के कारण P तरंगों की गति 11.23 किलोमीटर प्रति सेकंड रह जाती है। हालांकि अत्यधिक तापमान के कारण क्रोड़ को पिघली हुई अवस्था में होना चाहिए किंतु अत्यधिक दबाव के कारण यह अर्ध्दतरल या प्लास्टिक अवस्था में रहता है। क्रोड़ का आयतन पूरी पृथ्वी का मात्र 16% है। लेकिन इसका द्रव्यमान पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 32% है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह मंडल तरल अवस्था में होना प्रदर्शित करता है। 5150 से 6371 किलोमीटर की गहराई तक का भाग आंतरिक क्रोड़ के अंतर्गत आता है। जो ठोस या प्लास्टिक अवस्था में है एवं इसका घनत्व 13.6 है यहां P लहरों की गति 11.33 किलोमीटर प्रति सेकंड हो जाती है।

बाय क्रोड़ और आंतरिक क्रोड़ के बीच में पायी जाने वाली घनत्व से संबंधित असंबद्धता को लैहमेन असंबद्धता कहा जाता है इस क्रोड़ का आयतन पूरी पृथ्वी का लगभग 16% है। लेकिन इसका द्रव्यमान पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 32% है क्रोड़ के आंतरिक भागों का निर्माण निकेल और लोहा से हुआ है। इसलिए इसे निफे (NiFe) परत कहा जाता है। हालांकि इसमें सिलिकन की भी कुछ मात्रा रहती है।
नीफे (NiFe)
सीमा परत के नीचे पृथ्वी की तीसरी एवं अंतिम परत पाई जाती है इसे नीफे परत कहते हैं। क्योंकि इसकी रचना निकेल (Nickel)तथा फेरियम (Ferrium) से मिलकर हुई है। इस प्रकार यह परत कठोर धातुओं की बनी है जिस कारण इसका घनत्व अधिक है।

गुरु नानक(1469)जयंती|जन्मकथा|वाणी|दोहा|वंशज

 

नानक पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी (1469-1538) के द्वारा संगठित संप्रदाय एक व्यापक संगठन बना यह उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अस्तित्व में आया, नानक देव जी समन्वयशील, उदार प्रवृत्ति, अद्भुत संगठन शक्ति, क्षमाशीलता, दूरदर्शिता आदि गुणों से ओत-प्रोत थे। ऐसे ओजस्वी महापुरुष के जीवन से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तत्वों को इस लेख में समाहित किया गया है जिसका हम अध्ययन करेंगे।

  गुरु नानक                         

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                         गुरु नानक जयंती

27 नवंबर 2023 दिन सोमवार
गुरु नानक देव जी का जन्म दिवस प्रकाश पर्व या प्रकाश उत्सव के रूप में मनाया जाता है । इनके द्वारा सिख धर्म की नींव पंजाब में डाली गई। गुरु नानक देव जी का जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 15 अप्रैल 1469 तलवंडी राय भोई गांव में हुआ था।

          गुरु नानक देव जी की जन्म कथा 

नानक पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। इनका जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 15 अप्रैल 1969 को तलवंडी राय भोई गांव में हुआ था। बाद में इनको ननकाना साहिब के नाम से जाना जाने लगा। इनके पिता का नाम कालू जी मेहता जो कि एक पटवारी होने के साथ- साथ खेती का भी कार्य करते थे। इनकी माता का नाम श्रीमती तृप्ता देवी था। इनका विवाह बटाला निवासी मूला की कन्या सुलक्षणा देवी से 16 साल की उम्र में हो गया था। इनके दो पुत्र     श्री चंद और श्री लक्ष्मी चंद्र थे। पिता की तरह श्री चंद भी एक प्रसिद्ध साधु हुए और उन्होंने उदासी संप्रदाय का प्रवर्तन किया। इनका अधिक समय बड़ी बहन नानकी के यहां गुजरा उनके बहनोई जयराम ने इनको सुल्तानपुर में बुला लिया था।

गुरु नानक  देव जी  कुछ समय तक दौलत खान लोधी के यहां नौकरी की परंतु बाद में नौकरी छोड़कर के यह देशाटन पर निकल गए और लगभग पूरे देश का 5 बार चक्कर 30 वर्षों में लगाया। इस यात्रा को ही सिख धर्म में उदासी कहा गया इनको काली बेन नदी के किनारे ज्ञान प्राप्त हुआ ।

गुरु नानक  देव जी ने संस्कृत, फारसी, पंजाबी एवं हिंदी की शिक्षा प्राप्त की, आरंभ से ही आत्मचिंतन, ईश्वर भक्ति और संत सेवा की ओर उन्मुख थे| हालांकि उन्होंने कुछ समय अपनी गृहस्थी जीवन में बिताया लेकिन बाद मैं इनका मोह साधु संतों एवं धार्मिक विचारधारा की ओर प्रेरित हुआ। इन्होंने धार्मिक रूढ़िवाद जात के संकीर्ण बंधनों तथा अनाचारों के प्रति सदैव विरोध करते रहे। इन्होंने महिलाओं एवं पुरुषों को बराबरी का दर्जा दिया और यह कहा की महिलाओं के सहयोग के बिना किसी भी देश का उत्थान नहीं हो सकता।

गुरु नानक  देव जी एकेश्वरवाद के समर्थक थे और सभी धर्मो का सम्मान करते थे। सत्संग में इनकी रुचि होने के कारण यह अक्सर सत्संगों में प्रतिभाग किया करते थे और भजन गाते थे। इनका एक सहयोगी मर्दाना तलवंडी से आकर इनका सेवक बन गया| जब नानक देव जी भजन गाते थे तो मरदाना रवाब बजाता था। इनके समकालीन कबीर सिकंदर लोदी बाबर और हुमायूं थे ।इनकी विचारधारा कबीर से मिलती-जुलती थी क्योंकि काव्यों में कबीर की तरह उन्होंने भी शांत रस की निर्बाध धारा प्रवाहित की है। कहीं-कहीं पर करुण और अद्भुत आदि रसों का भी व्याख्यान आता है नानक के अनुसार ईश्वर कृपा से तत्व दर्शन तो हो जाता है किंतु उस अनुभव की अभिव्यक्ति सदैव नहीं हो पाती है।

नानक देव जी के द्वारा रचित पद ऑन को ग्रंथ साहिब में संकलित किया गया है इनकी विचारधारा का सारतत्व जपुजी है। इनकी प्रसिद्ध रचनाएं असा दी वार, रहिरास,तथा सोहिला आदि हैं। नानक देव जी की अधिकांश रचनाएं हिंदी फारसी बहुल पंजाबी और पंजाबी में है परंतु इनकी रचना नसीहतनामा में खड़ी बोली का भी समावेश हुआ है हालांकि उन्होंने अधिकांश साहित्य पंजाबी में लिखे हैं लेकिन कहीं-कहीं पर बृजभाषा का भी प्रयोग हुआ है नानक वाणी में उपमा, रूपक प्रतीक, और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग भी किया गया है।

                गुरुनानक के दोहे 

              सिखों के प्रथम गुरु गुरु नानक जी के उपदेशों द्वारा उनकी विचारधारा को समझा जा सकता है |जो कि उन्होंने दोहों के रूप में प्रस्तुत किये है, अतः उनके द्वारा रचित कुछ दोहे निम्नलिखित है:-

                                      1.

                     थापिआ न जाइ कीता न होइ l

                       आपे आपि निरंजनु सोइ l

                                   2.

                       ऐसा नामु निरंजनु होइ

                       जे को मंनि जाणै मनि कोइ

                                    3.

                      रमी आवै कपड़ा। नदरी मोखु दुआरू

                       नानक एवै जाणीऐ। सभु आपे सचिआरू

                                  4.

                        गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ

                       दुखु परहरि सुखु घरि लै जाइ

                                  5.       

                    गुरा इक देहि बुझाई

                     सभना जीआ का इकु दाता सो मैं विसरि न जाई

                               6.

                       जेती सिरठि उपाई वेखा

                        विणु करमा कि मिलै लई

                                   7.

                         तीरथि नावा जे तिसु भावा

                          विणु भाणे कि नाइ करी

                                8.

                         गुरा इक देहि बुझाई

                        सभना जीआ का इकु दाता

                           सो मैं विसरि न जाई

                                   9.

                            करमी आवै कपड़ा। नदरी मोखु दुआरू

                              नानक एवै जाणीऐ। सभु आपे सचिआरू

                                     10.

                      फेरि कि अगै रखीऐ। जितु दिसै दरबारू

                    मुहौ कि बोलणु बोलीएै। जितु सुणि धरे पिआरू

                                   11.

                        मंनै मुहि चोटा ना खाइ

                         मंनै जम कै साथि न जाइ

                                       12.

                           साचा साहिबु साचु नाइ । भाखिआ भाउ अपारू

                            आखहि मंगहि देहि देहि । दाति करे दातारू

                  गुरु नानक देव की वाणी

गुरु नानक देव जी ने समय-समय अपने विचारों को प्रस्तुत किया है उन्हीं के संदर्भ में कुछ तत्व इस प्रकार हैं जिन्हें गुरु नानक की वाणी की संज्ञा दी गई है पवित्रता को वास्तविक धर्म और उन्होंने कहा है, कि जो सत्य की खोज करता है, संयम का व्रत रखता है, मन के सरोवर में डुबकियां लगाता, दया को अपना धर्म मानता, क्षमा के भाव को धारण करता है, उन पर ईश्वर की हमेशा कृपा बनी रहती है।
आगे वह कहते हैं की अपने आसपास जो विलासिता पूर्ण या अन्य प्रकार की इच्छाएं विचरण कर रही हैं, उनको अपने पास आने से रोको, संयम की लंगोटी पहनो अपने माथे पर अच्छे कर्मों का टीका लगाओ और भक्ति में लीन होकर भोजन करो। कोई बिरला ही जो उचित कार्य करता है उसमें आनंद का अनुभव करेगा।

आगे उन्होंने कहा है कि जो लोग असत्य का सहारा लेते हैं वह गंदगी खाते है और जो अमर्यादित कार्य कर्ता है, वह दूसरों को सत्य बोलने और मर्यादा पूर्ण कार्य करने के लिए उपदेश देता है, ऐसे ही असामाजिक लोग अर्थात पथभ्रष्ट लोगो से दूर रहना चाहिए । अपने प्रति तथा मनुष्यो के प्रति कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए तभी ईश्वर की प्राप्ति संभावित है।उन्होंने मुक्ति को पाने के लिए नाम जपने पर बल दिया जीवन भर उन्होंने लोगों को धार्मिक उपदेश और ज्ञान के प्रकाश से फलीभूत किया।

गुरु नानक देव जी एक सामाजिक सुधारक थे उन्होंने हिंदू परंपराओं के द्वारा विभिन्न पाखण्डो का अनुकरण किए जाने का घोर विरोध किया तथा उनसे मुक्त करवाने का प्रयास करते रहे। इनके द्वारा जात- पात का विरोध किया किया गया तथा सभी को सामान अधिकार देने का प्रबल समर्थन किया उन्होंने महिलाओं के प्रति अपने विचारों से स्पष्ट किया कि महिलाएं गर्भधारण करके हम सभी को जन्म देती हैं, इसलिए उन्होंने महिलाओं को ईश्वर के समान दर्जा दिया और उनका उत्तरदायित्व भी पुरुषों के समान बताया। विभिन्न जगहों के पंडितों के उपदेशों में सूर्य की पूजा करना,मृतको को जल समर्पित करना आदि कार्य को निरर्थक बताया। ईश्वर की प्रेरणा से सेवा तथा बलिदान का जीवन व्यतीत करने के लिए उन्होंने अच्छे कर्म करने पर बल दिया।

गुरु नानक देव जी ने पारिवारिक जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है अर्थात उन्होंने एकांत तपस्या की आवश्यकता को अस्वीकार कर दिया है उन्होंने तीन बातों पर बल दिया। नामतः नाम, कृत् तथा वन्द अर्थात ईश्वर का चिंतन करना ईमानदारी से परिश्रम करना तथा दूसरों में बांटकर भोजन करना। यह सभी आदर्श सुखद जीवन के आधार हैं।

गुरु नानक देव जी ने बेईमानी या छल-कपट से अर्जित धन को उन्होंने मुसलमान के लिए सूअर के मांस के समान तथा हिंदुओं के लिए गाय के मांस के समान अपवित्र बताया। उनके द्वारा जो व्यक्ति परिश्रम करके कमाता है और उस कमाई में से थोड़ा दान करता है, वही वास्तविक मार्ग पर आगे बढ़ता है।

गुरु नानक देव जी का मानना था कि नाम जपने से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार इन पांचों दोषों पर विजय प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है इन्होंने बताया कि ईश्वर की इच्छा अनंत है वह अपनी इच्छा के दौरान अंतरिक्ष में संसार की रचना करता है और इसकी सुरक्षा भी करता है वह सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापक हैं ,हर जगह उसका निवास है, सभी कुछ देखता और समझता है।

                 गुरु नानक देव जी के वंशज

1-बाबा श्रीशचंद
2-बाबा लखमीदास
3-बाबा मेहर चंद
4-बाबा रूपचंद
5-बाबा करमचंद
6-बाबा महासिंह
7-बाबा लखपत सिंह
8-बाबा राघपत सिंह
9-बाबा गण्डा सिंह
10-बाबा मूल सिंह
11-बाबा करतार सिंह
12-बाबा प्रताप सिंह
13-बाबा विक्रम सिंह
14-बाबा नरेंद्र सिंह
15-कंवर जगजीत सिंह
16-सरदार चरणजीत सिंह बेदी /सरदार हरचरण बेदी